पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में मनोनीत करने के निर्णय को लेकर तरह-तरह की बातें की जा रही हैं. न्यायाधीशों के सेवानिवृत्त होने के चंद महीनों के भीतर ही नये पदों पर उनकी नियुक्तियों और मनोनयन को उनके कुछ फैसलों से भी जोड़कर देखने की प्रवृत्ति बढ़ रही है.
न्यायमूर्ति गोगोई के मनोनयन के बाद सवाल उठ रहा है कि क्या वास्तव में न्यायपालिका में राजनीति अपनी पैठ बनाने में कामयाब हो गयी है? अगर हां, तो सवाल उठता है कि राजनीति से दूर रहने वाले न्यायपालिका के सदस्यों के राजनीति के प्रति आकर्षण के लिये कौन जिम्मेदार है? निश्चित ही हमारे सत्तासीन राजनेताओं को इसके लिये जिम्मेदार ठहराया जायेगा.
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई पहले न्यायाधीश नहीं है जो सेवानिवृत्ति के बाद संसद में पहुंचे है. इससे पहले, एक अन्य पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र भी 1998 में राज्यसभा के सदस्य थे. असम के ही बहरूल इस्लाम का नाम भी इसी कड़ी में जोड़ा जा सकता है.
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इसके अलावा, ऐसे अनेक दृष्टांत हैं जिनमें उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को अवकाश ग्रहण करने से पहले ही और अवकाश ग्रहण करने के बाद व्यवस्था में नयी जिम्मेदारियां सौंपी गईं और उन्होंने इन्हें स्वीकार भी किया. कई बार तो इस तरह की नियुक्तियो को न्यायाधीशों के फैसलों से भी जोड़ने का प्रयास किया गया है.
हालांकि, किसी भी न्यायाधीश के अवकाश ग्रहण करने के बाद नयी नियुक्ति को न्यायाधीश के रूप में उनके फैसलों के साथ जोड़ना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा करने से हम जाने अंजाने में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के प्रति जनता के विश्वास को कम करने का ही प्रयास कर रहे होते हैं.
न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत करने की घोषणा के बाद से ही जनता, विशेषकर राजनीतिक क्षेत्रों में, के बीच तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे हैं. कोई इसे नरेन्द्र मोदी सरकार के राफेल लड़ाकू विमानों के सौदे के मामले में शीर्ष अदालत के फैसले से जोड़ने का प्रयास कर रहा है तो कोई अयोध्या में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद पर सुनाये गये निर्णय से.
लेकिन एक तथ्य यह भी है कि राजीव गांधी के कार्यकाल में 1985 में हुये असम समझौते के तहत 25 मार्च 1971 तक असम में आये अवैध घुसपैठियों को रहने की अनुमति देने और 1951 की जनगणना के आधार पर असम के लिये राष्ट्रीय नागरिक पंजी बनाने के प्रावधान को न्यायमूर्ति गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने ही अंतिम मुकाम तक पहुंचाया.
अगर न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के फैसलों को इस मनोनयन से जोड़ा जाता है तो सवाल यह है कि क्या ये फैसले उन्होंने अकेले लिये थे? नहीं. न्यायमूर्ति गोगोई ने इन मामलों पर फैसला सुनाने वाली पीठ की अध्यक्षता की थी.
इसी तरह, 31 अक्टूबर, 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में भड़के सिख विरोधी दंगों की घटनओं की जांच के लिये 26 अप्रैल, 1985 को तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग गठित किया था. इस आयोग ने फरवरी, 1987 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी.
न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में चूंकि सिख विरोधी दंगों के मामले में कांग्रेस को क्लीन चिट दे दी थी. इसका मतलब यह तो नहीं हो सकता कि कांग्रेस ने न्यायमूर्ति मिश्रा को राज्यसभा का सदस्य बनाकर उन्हें उनकी सेवाओं के लिये पुरस्कृत किया था.
हालांकि, राजनीति और न्यायपालिका में घालमेल के लिये असम के ही न्यायमूर्ति बहरूल इस्लाम को हमेशा याद किया जाता है. बहरूल भारत के इतिहास में वह पहले राजनीतिक व्यक्ति थे जो संसद की सदस्यता से त्याग पत्र देकर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने, फिर वह उच्चतम न्यायालय के भी न्यायाधीश बने और सेवानिवृत्त होने से करीब डेढ़ महीने पहले ही उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया था.
असम के प्रमुख राजनीतिक व्यक्ति बहरूल इस्लाम 1962 में राज्यसभा में कांग्रेस के सदस्य थे. उन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के बीच में ही त्यागपत्र दे दिया. उन्हें 1972 में असम और नगालैंड उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया. बाद में वह जुलाई, 1979 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी बने. वह एक मार्च 1980 को सेवानिवृत्त हुये और इसके बाद 4 दिसंबर, 1980 को उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया था लेकिन यहां भी कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उन्होंने जनवरी, 1983 में त्यागपत्र दे दिया था.
इसी तरह, न्यायमूर्ति गुमानमल लोढा भी इसी श्रृंखला में आते हैं. राजस्थान उच्च न्यायालय में 1978 में न्यायाधीश नियुक्त होने से पहले वह 1972 से 1977 तक राजस्थान विधान सभा के सदस्य रह चुके थे. गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायमूर्ति गुमान मल लोढ़ा सक्रिय राजनीति में लौटे और तीन बार लोकसभा के सदस्य रहे. वह 1989 में पहली बार लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुये थे.
न्यायाधीश के पद से इस्तीफा देकर राजनीति में आने वालों में भाजपा नेता, जो पहले कांग्रेस में थे, विजय बहुगुणा को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है. विजय बहुगुणा पहले उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हुये और फिर वह बंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने लेकिन अचानक ही उन्होंने 15 फरवरी, 1995 को न्यायाधीश के पद से इस्तीफा दे दिया. न्यायाधीश के पद से इस्तीफा देने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गये और 2007 से 2012 तक लोकसभा में कांग्रेस के सदस्य बने और फिर 13 मार्च 2012 से 31 जनवरी 2014 तक वह उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी बने थे.
इसी तरह, न्यायमूर्ति गुमानमल लोढा भी इसी श्रृंखला में आते हैं. राजस्थान उच्च न्यायालय में 1978 में न्यायाधीश नियुक्त होने से पहले वह 1972 से 1977 तक राजस्थान विधानसभा के सदस्य रह चुके थे. गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायमूर्ति गुमानमल लोढा सक्रिय राजनीति में लौटे और तीन बार लोकसभा के सदस्य रहे. वह 1989 में पहली बार लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुये थे.
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उच्चतम न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को राज्यपाल बनाने की परंपरा भी 1997 में शुरू हुई. उच्चतम न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनने का गौरव प्राप्त करने वाली न्यायमूर्ति एम फातिमा बीवी को सेवानिवृत्ति के बाद 25 जनवरी, 1997 को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया गया था. न्यायमूर्ति फातिमा बीवी ने राज्यपाल के रूप में राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों की मौत की सजा के मामले में दायर दया याचिकायें खारिज की थीं.
राजग सरकार तो अपनी पूर्ववर्ती सरकार से भी एक कदम आगे निकल गयी और उसने देश के प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम को अप्रैल, 2014 में सेवानिवृत्ति के बाद सितंबर, 2014 में केरल का राज्यपाल बना दिया. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी पूर्व प्रधान न्यायाधीश को किसी राज्य का राज्यपाल बनाया गया हो.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्यायपालिका के सदस्य भी इसी समाज का हिस्सा हैं और उनकी गतिविधियां भी मौजूदा सामाजिक मूल्यों और परंपराओं के बारे में ही संकेत देती हैं.