‘माइंड विदाउट फियर’ में रजत गुप्ता ने ये दिखाने की कोशिश की है कि वे दोषी नहीं बल्कि पीड़ित हैं. मैकिंज़ी के पूर्व प्रमुख का कहना है कि न्यूयॉर्क के अभियोजक जब 2008 के वित्तीय घोटालों के किसी बड़े किरदार को नहीं पकड़ पाए तो वह अपनी कामयाबी दिखाने के लिए वित्तीय जगत के उनके जैसे अपेक्षाकृत छोटे किरदारों के पीछे पड़ गए. वास्तव में ये सच है कि बड़े निवेश बैंकों के प्रमुख– टॉम वोल्फ़ के शब्दों में ‘मास्टर्स ऑफ द यूनिवर्स’ – भ्रष्टाचार और घोटालों में शामिल होने के बावजूद बच निकले. पर ये कोई नई बात भी नहीं है. ज़्यादातर मामलों में वित्तीय जगत के बड़े किरदारों का कुछ नहीं बिगड़ता है. ब्याज दरों के निर्धारण के एक प्रमुख कारक लिबर (लंदन इंटरबैंक ऑफर्ड रेट) को लेकर घोटाला दो दशकों से अधिक समय से चल रहा था. पर उस मामले में मात्र यूबीएस के एक कर्मचारी को ही दोषी ठहराया गया. इसी तरह 2008 के वित्तीय संकट के मामले में अवैध गतिविधियों के लिए महज छोटे स्तर के एक व्यक्ति को ही सज़ा मिली है– जैसा कि ‘द बिग शॉर्ट’ के फिल्मी संस्करण के आखिर में हमें बताया गया है.
भारत में वित्तीय घोटालों के मौजूदा दौर में जब सारा फोकस यस बैंक और अविश्सनीय राणा कपूर पर है, बैंक के निदेशक मंडल और वरिष्ठ प्रबंधकों से सवाल नहीं पूछा जा रहा है. ऐसा ही 2018 में आईएलएफएस के पतन के मामले में हुआ. तब भी प्रमुख किरदारों से पूछताछ नहीं की गई थी, किसी को जिम्मेवार ठहराए जाने की बात ही छोड़ दें. दरअसल, यदि कानून के तहत तमाम घोटालेबाज़ों की जवाबदेही तय करने की कोशिश की जाए तो भारत में अभियोजन की संपूर्ण व्यवस्था ही चरमरा जाएगी.
जब एक अकेला व्यक्ति बरसों से जमी-जमायी कंपनी का भट्टा बिठा सकता हो– जोकि सिर्फ वित्तीय जगत में ही संभव है– तो फिर अपने पैसे को लेकर आप किस पर भरोसा करेंगे? याद करें निवेश कंपनी बेयरिंग्स के पतन की जिसके लिए सिंगापुर स्थित एक अकेला भ्रष्ट कर्मचारी जिम्मेदार था. हालांकि इस स्थिति के समानांतर परिदृश्य के बारे में भी कठिन सवाल पूछे जा सकते हैं. जब पूरा संस्थान भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त होता है तो नियामक संस्थाएं कुछ क्यों नहीं करती हैं? इस संबंध में जर्मन व्यवस्था के मज़बूत स्तंभों में शुमार रहे प्रतिष्ठित डॉयच बैंक का उदाहरण दिया जा सकता है. जैसा कि डेविड एनरिच की नई किताब ‘डार्क टावर्स’ में बताया गया है, डॉयच बैंक धनशोधन और बाज़ार व्यवस्था से छेड़छाड़ से लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के उल्लंघन, रूसी नवधनाढ्यों से मिलीभगत, सरकारी अधिकारियों को रिश्वत खिलाने तथा सरकारों और नियामक संस्थाओं को धोखा देने जैसे हर तरह के काले कारनामों में शामिल था.
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जैसा कि भारतीय जमाकर्ताओं और निवेशकों को अहसास हो चुका है, वित्तीय जगत एक खतरनाक जगह है. बैंक डूब सकते हैं, बाज़ार प्रणाली से छेड़छाड़ की जा सकती है, निवेश का मोल रातोंरात गिरकर कागज़ के टुकड़े के बराबर हो सकता है, लेखा परीक्षकों की समय पूर्व चेतावनी नहीं आ सकती है, निदेशक मंडल आंखें मूंदे रह सकता है और नियामक संस्थाएं अक्षम साबित हो सकती हैं. लेकिन चिंता की क्या बात जब भारतीयों के पास सरकारी बैंकों के रूप में सुरक्षित ठिकाने मौजूद हों? पर इन सुरक्षित ठिकानों को क़ायम रखने में पैसों की दरकार होती है, वो भी ढ़ेर सारे पैसों की. पांच साल पहले जब सरकारी बैंकों पर संकट के बादल छाए थे तो सरकार को एक बड़े सुधार पैकेज की घोषणा करनी पड़ी थी, जो खुद सरकार के अनुसार 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद का सबसे व्यापक पैकेज था. सरकार को इससे करीब 70,000 करोड़ रुपये की चपत लगी थी. उसके पांच साल बाद सरकार उससे पांच गुनी ज़्यादा रकम लगा चुकी है, और आगे अतिरिक्त सहायता राशि जारी किए जाने की संभावना बनी हुई है. जमाकर्ताओं के लिए ये सुरक्षित ठिकाने भी तभी तक उपलब्ध हैं जब तक करदाता उनको बचाए रखने का खर्च वहन करते रहें.
वैसे देखा जाए तो निजी बैंक भी सुरक्षित ही हैं क्योंकि भारत बैंकों का दिवाला निकलते देखने को तैयार नहीं है. अनेक निजी बैंक, कई बार स्वैच्छिक रूप से पर अधिकांश समय विवशता के मारे, दूसरे बैंकों में विलीन हो चुके हैं: ग्लोबल ट्रस्ट बैंक, सेंचुरियन बैंक, टाइम्स बैंक, आदि. सौभाग्य से ये छोटे बैंक थे जिनका अधिग्रहण संभव था. उस स्थिति मे क्या होगा जब डूबा बैंक बड़ा होगा? सरकार अभी से ही इस मद में धन के राजकोषीय आवंटन को लेकर लाचारी जता रही है.
यह कहा जाता है कि बैंकिंग व्यवस्था को बेहतर प्रबंधकों की जरूरत है, इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को निजी क्षेत्र से प्रतिभाओं को लाना चाहिए. शायद ऐसी ज़रूरत हो, लेकिन राणा कपूर तो बैंक ऑफ अमेरिका में कई साल बिता कर आए थे, यस बैंक में उनकी जगह डॉयच बैंक के एक अधिकारी को लाया गया है और आईएलएफएस को पूर्व में सिटीबैंक में काम कर चुका एक बैंकर संभाल रहा था.
जब अनेक और विविध धोखाधड़ियों के चलते भरोसे का स्तर कम हो चुका हो तो ऐसे में कोई रामबाण समाधान नहीं रह जाता है. इसके बजाय उबाऊ लगने वाली कवायदों को करने की आवश्यकता होती है, जैसे बाजार से संबंधित सूचनाओं की उपलब्धता में सुधार और चेतावनी के आरंभिक संकेतों पर कार्रवाई सुनिश्चित करना, जवाबदेही के स्तर को बढ़ाना और अभियोजन को प्रभावी बनाना, वित्तीय जगत की संरचनाओं और अंतर-निर्भरता को समझना. तभी आत्मविश्वास फिर से निर्मित होगा. इसलिए रिज़र्व बैंक को अनुत्तरित सवालों के जवाब देने के अलावा भी बहुत कुछ विचार करना होगा. फिर भी, जैसाकि ‘वॉल स्ट्रीट’ में प्रयुक्त संवाद में कहा गया है, ‘जब तक पैसे की मुख्य विशेषता ये रहती है कि यह आपसे वो काम करवाता है जिन्हें आप नहीं करना चाहते’, वित्तीय जगत में अगले घोटालों की आशंका लगातार बनी रहेगी.
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