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Friday, 22 November, 2024
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अफ़ग़ानिस्तान फिर से तालिबान को सौंपने की अमेरिका की हड़बड़ी, भारत भी आगे बढ़ाए पीओके प्रोजेक्ट

भारत को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर नियंत्रण के लिए उचित समय पर कार्रवाई शुरू करने के वास्ते शीघ्र एक रणनीति तैयार करनी चाहिए.

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बहुप्रचारित अमेरिका-तालिबान शांति समझौते के अभी चार ही दिन हुए थे कि अमेरिका को हेलमंद में अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के खिलाफ हमलावर तालिबान लड़ाकों के खिलाफ हवाई हमले करने पड़े. तालिबान के अनुसार उसने ‘अपनी ज़मीन’ को विदेशी कब्ज़े से मुक्त कराने के लिए एएनडीएसएफ की चौकी पर हमला किया था. इसे देखते हुए अफ़ग़ानिस्तान में लगभग दो दशकों से जारी युद्ध को खत्म कराने के लिए 29 फरवरी को दोहा में हुए शांति समझौते का हश्र सबको पता है.

अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान से निकलने का द्वार वही है जिससे होकर तालिबान अंदर आएगा और देश को अव्यवस्था के एक लंबे दौर में ले जाएगा.

यह भारत के लिए भी परेशानी का सबब है जो पाकिस्तान समर्थित आतंकी तत्वों को अपनी सीमा से दूर रखने के लिए लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान में कूटनीत के साथ-साथ वित्तीय निवेश भी करता रहा है. भारत के त्वरित कदम उठाने की दरकार है क्योंकि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने हितों की रक्षा करना ही असल रणनीति होती है.

अमेरिका भारत को पाकिस्तानी सीमा संघर्षमुक्त रखने के लिए राज़ी करने में कामयाब रहा, ताकि पाकिस्तान अपनी पश्चिमी सीमा से सैनिकों को हटाने पर मजबूर नहीं हो. अब जबकि पाकिस्तान और उसके असल शासकों– सेना और आईएसआई– पर अमेरिका की निर्भरता बहुत कम रह जाएगी या नहीं रह जाएगी, भारत को तालिबान के सामने अमेरिका के घुटने टेकने के संभावित दुष्परिणामों की चिंता करनी चाहिए.

भारत ने ‘कोल्ड स्टार्ट’ सैन्य नीति के तहत एकीकृत युद्ध समूहों (आईबीजी) के गठन की प्रक्रिया को अभी पूरा नहीं किया है, इसलिए पूर्व सतर्कता बनाए रखने और उचित समय पर पाक अधिकृत कश्मीर पर कब्ज़ा करने के लिए रणनीति तैयार रखी जानी चाहिए ताकि सीमा पार से आतंकवादी और अनौपचारिक लड़ाकू तत्वों की प्रगति को बाधित करना संभव हो सके.


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पाकिस्तान की ज़रूरत नहीं

तालिबान के अपनी स्थिति मजबूत करते ही तहरीक-ए-तालिबान या पाकिस्तानी तालिबान अधिक आक्रामक रास्ते पर चलने और एक बड़े वैश्विक आतंकवादी नेटवर्क का हिस्सा बनने को प्रेरित हो सकता है. ये भारत के लिए गंभीर सुरक्षा चुनौतियों का कारण बन सकता है, विशेष रूप से केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में, जिसे पहले ही भारी राजनीतिक और सामाजिक व्यवधानों का सामना करना पड़ा है.

तालिबान के वर्चस्व और विदेशी सैनिकों की रवानगी के बाद के दौर में अमेरिका को रसद आपूर्ति को लेकर पाकिस्तान के सहयोग की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, जैसा कि बीते 18 वर्षों में, और ओसामा बिन लादेन को खत्म करने के ऑपरेशन जेरोनिमो के दौरान भी स्पष्ट था. सीपीईसी परियोजनाओं के बहाने पाकिस्तान में निवेश की चीन आपाधापी के कारण अमेरिका और पाकिस्तान के बीच समीकरण पहले ही बदल चुका है.

यहां ये उल्लेखनीय है कि मई 2012 से इस्लामाबाद की जेल में बंद पाकिस्तानी डॉक्टर शकील अफरीदी, जिसके ‘नकली टीकाकरण कार्यक्रम’ से सीआईए को ओसामा बिन लादेन को ढूंढ़ने में मदद मिली थी, ने अब भूख हड़ताल शुरू कर दी है. ट्रंप ने अफ़रीदी को जेल से छुड़ाने का वादा किया था, लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन गृहमंत्री ने ट्रंप को ‘अबोध’ बताते हुए कहा था कि वह किसी ‘पाकिस्तानी क़ैदी की रिहाई का फैसला’ नहीं कर सकते. जबकि इमरान ख़ान ने क़ैदियों की अदला-बदली का सुझाव दिया था– ‘अफ़ग़ानिस्तान में एक अमेरिकी सैनिक पर हमला करने के लिए’ अमेरिका में 89 साल की क़ैद की सज़ा काट रही पाकिस्तानी न्यूरोसाइंटिस्ट डॉ. आफ़िया सिद्दीक़ी के बदले अफरीदी अमेरिका के लिए बढ़िया, पर अफ़ग़ानिस्तान के लिए नहीं.

‘अफ़ग़ानिस्तान में शांति लाने के लिए समझौता’ दरअसल अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की पूर्ण पराजय का दूसरा नाम है. पांच अमेरिकी राष्ट्रपतियों का दौर देखने वाले वियतनाम युद्ध के बाद, अफगान युद्ध शायद दूसरा सबसे लंबा संघर्ष है– कम से कम तीन राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में जारी– जिसने अमेरिकी नेतृत्व, उसकी युद्ध रणनीति और सबसे बढ़कर अजेय महाशक्ति के अमेरिका के दर्जे को को गंभीर झटका दिया है.

इसलिए ये संभवत: राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के लिए अफ़ग़ानिस्तान से बाहर निकलने का आदर्श समय है, पर काबुल के लिए ये शायद सबसे बुरा वक़्त.

व्हाइट हाउस और अपने गुप्त ठिकाने से तालिबान द्वारा शांति समझौते को सराहे जाने से एक सप्ताह पहले अफ़ग़ान संसद शूरा-ए-मिल्ली के सितंबर 2019 में हुए चुनावों के नतीजों की घोषणा की गई. इसमें 71 वर्षीय मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी को विजेता घोषित किया, जिन्होंने चुनाव में पड़े कुल एक करोड़ वोटों में से लगभग 10 लाख वोट हासिल किए हैं. उनके निकट प्रतिद्वंद्वी पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने इसका विरोध करते हुए एक समानांतर सरकार के गठन की घोषणा कर दी. हालांकि उसके बाद से दोनों ने अस्थायी संघर्ष विराम की घोषणा की है, जिसके लंबे समय तक चलने की संभावना नहीं है– संघर्षग्रस्त अफ़ग़ानिस्तान में निर्वाचित सरकार, युवा लोकतंत्र तथा अमन और शांति की तरह ही.


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शांति के विरुद्ध संघर्ष

अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामी अमीरात की बहाली के अलावा वहां से सभी विदेशी सैनिकों की पूर्ण और बिना शर्त निकासी तालिबान की इच्छा सूची में शामिल रही है. ट्रंप प्रशासन ने दोहा में आयोजित जिन वार्ताओं के बाद तालिबान की शर्तों पर समझौता किया है, वो तालिबान समेत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी गुटों के मेज़बान पाकिस्तान की सहायता से आयोजित की गई थीं.

काबुल की डगमग सरकार को जल्द ही बंदूकधारी तालिबान उखाड़ फेंकेंगे, और ये अमेरिका की अदूरदर्शिता की वजह से होगा. शांति और कानून का शासन सुनिश्चित करने वाली और अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए प्रतिबद्ध एक विधिवत निर्वाचित सरकार की जगह तालिबान आ जाएगा जो एक सदियों पुरानी, पुरातनपंथी, महिला विरोधी और आधुनिक लोकतंत्र से पूर्णतया असंगत इस्लामी व्यवस्था का हामी है.

अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी गणतंत्र की निर्वाचित सरकार 18 साल के युद्ध को समाप्त करने के लिए 18 महीनों तक चली वार्ताओं का हिस्सा नहीं थी, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात या तालिबान वार्ताओं के केंद्र में था.

अफ़ग़ानिस्तान को अमेरिका ने नहीं बनाया है; बल्कि अमेरिका के आबाद होने से बहुत पहले से इसका अस्तित्व रहा है. अमेरिका ने दरअसल तालिबान नामक भस्मासुर को बनाया था. अब हड़बड़ी में अफ़ग़ानिस्तान छोड़ते अमेरिका द्वारा उसकी बागडोर खुद के बनाए एक राक्षस को वापस सौंपने से पूरा वृतांत स्पष्ट हो जाता है. तालिबान और अमेरिका के लिए इस बार ये शांति से युद्ध है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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