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Tuesday, 19 November, 2024
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सांप्रदायिक हिंसा हमेशा स्थानीय नहीं होती, सोशल मीडिया अब उसे राष्ट्रीय बना रहा है

अफवाहों की भरमार और नफरत भरी बातें स्थानीय तौर पर सांप्रदायिक हिंसा को जन्म देती है जो सोशल मीडिया के जरिए तुरंत ही पूरे देश में फैल जाती है.

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पूर्वोत्तर दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम दंगों के बीच 24 फरवरी को दिल्ली पुलिस के कई सारे वीडियो वायरल होने शुरू हो गए. एक वीडियो में दिख रहा है कि पुलिस एक घायल मुस्लिम युवक को प्रताड़ित कर रही है. इस तरह के सबूत इस धारणा को मजबूत करते हैं और इस बात की पुष्टि भी करते हैं कि दिल्ली पुलिस सांप्रदायिक हिंसा को विफल करने में लापरवाह थी.

विगत समय में भारत में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन सोशल मीडिया के दौर में इस तरह की भावना सिर्फ स्थानीय और क्षेत्रीय स्तर तक सीमित नहीं रहती है बल्कि पूरा देश इससे प्रभावित होता है. अफवाहों की भरमार और नफरत भरी बातें स्थानीय तौर पर सांप्रदायिक हिंसा को जन्म देती है जो सोशल मीडिया के जरिए तुरंत ही पूरे देश में फैल जाती है.

इसने स्थानीय सांप्रदायिक संघर्ष और राष्ट्रीय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीच की दूरी को कम कर दिया है. आज के समय में स्थानीय सांप्रदायिक संघर्ष कुछ देरी में ही राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है और स्थानीय घटनाओं के जरिए ही एक बड़ा सांप्रदायिक कथानक तैयार किया जाता है.

फोन वीडियोज़ को लोगों को शिक्षित करने के लिए और सांप्रदायिक कथानक से इतर सबसे लोकतांत्रिक यंत्र माना जाता है लेकिन इसी के जरिए दूसरी तरफ के लोग भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं. जैसे कि एक मुस्लिम युवक को पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया जाने वाला वीडियो हो या कथित मुस्लिम युवक द्वारा पुलिस के सामने बंदूक ताने हुए वीडियो हो. ऐसे वीडियो के जरिए ये दिखाने की कोशिश की गई कि दंगाई मुस्लिम समुदाय के थे.

हम अक्सर फेक न्यूज़ और सांप्रदायिक बातों को फैलाने में सोशल मीडिया की भूमिका का विश्लेषण करते हैं. हम बहुत कम ही विपरीत सवाल करते हैं. स्थानीय सांप्रदायिक घटना के बाद, सोशल मीडिया की क्या भूमिका होती है? सोशल मीडिया के दौर में सांप्रदायिक बातों को किस तरह स्पीड और सूचनाओं के विस्तार ने बढ़ाया है. सांप्रदायिक हिंसा कब और कैसे होती है इसे सोशल मीडिया ने किस तरह से हमारी थ्योरी को बदला है?

सांप्रदायिक हिंसा के बारे में हम क्या जानते हैं

खुद को राजनीतिक तौर पर सही दिखने के लिए विश्लेषक सांप्रदायिक घटनाओं के लिए सबको बराबर जिम्मेदार मानते हैं. लेकिन वास्तव में असलियत ये होती है कि एक समूह ज्यादा हिंसा करता है. पूर्वोत्तर दिल्ली में हुई हिंसा भी इससे अलग नहीं है.

पूर्वोत्तर दिल्ली की हिंसा में मारे गए 46 लोगों में से ज्यादातर नाम मुस्लिमों के ही हैं. सांप्रदायिक हिंसा में मारे गए लोगों का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता और न ही हम कभी भी हिंसा का प्रभाव पता लगा पाएंगे.


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इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा अक्सर पुरानी रंजिशों की परतें लिए होती है. 2002 के गुजरात दंगों में अर्थशास्त्री सौमित्र झा ने देखा कि गुजरात के मध्यकालीन शहर जहां पर हिंदू-मुस्लिम के बीच सामाजिक और आर्थिक सामंजस्य मजबूत था, देखा गया कि सांप्रदायिक दंगों का अनुभव करने के लिए 25 प्रतिशत प्वाइंट कम मुफीद थे. ये राजनीतिक वैज्ञानिक आशुतोष वार्षणेय के कामों से मेल खाता था जिन्होंने बहुत ध्यान से ये दर्ज किया कि कैसे हिंदू-मुस्लिम के बीच शहरी गठजोड़ से ऐसी घटनाओं से बचा जा सकता है. हिंसा प्रभावित पूर्वोत्तर दिल्ली में आगे की कार्रवाई में पता चला कि सांप्रदायिक रंजिश कुछ समय से चल रही थी.

ऐसे स्तर की हिंसा के पीछे अक्सर राजनीतिक ताकत को देखा जाता है. राजनीतक वैज्ञानिक पॉल ब्रास और स्टीवन विलकिंसन ने लगातार इस बात पर लिखा कि कैसे राजनीति से जुड़े लोग चुनावी फायदे या अन्य राजनीतिक फायदों के लिए सांप्रदायिकता को बढ़ावा देते हैं. चांद बाग और जाफराबाद नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन का स्थान था. भयानक हिंसा भड़कने के कुछ दिन पहले ही पूर्व विधायक कपिल मिश्रा जो कि अब भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं, उन्होंने ये धमकी दी कि अगर दिल्ली पुलिस प्रदर्शन को नहीं हटाती है तो वो सारा कुछ अपने हाथ में ले लेंगे. उसके बाद भी उनपर कोई कार्रवाई नहीं की गई. मिश्रा लगातार मामले को सांप्रदायिक बनाते गए और दंगों में हिंदू पीड़ितों के लिए फंड जुटाते रहे.

आखिरकार, राज्य द्वारा हिंसा रोकने की अनदेखी के कई सबूत मिलते हैं. चाहे वो 2002 के गुजरात दंगों का सामूहिक नरसंहार हो या हाल ही में दक्षिणपंथ समूहों द्वारा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में की गई हिंसा हो- पुलिस का एक समान रवैया देखा गया कि वो भीड़ की तरफ खड़ी दिखी जो हिंसा कर रही है. यह इस बात पर सोचने को मजबूर करता है कि जिस मंत्रालय के तहत आने वाले सुरक्षाबलों ने कश्मीर को छह महीनों तक बंद कर के रखा वो देश की राजधानी में हुई हिंसा को नहीं रोक पाया.

सांप्रदायिक हिंसा के नए मॉडल

पूर्वोत्तर दिल्ली में जो हुआ वो सांप्रदायिक हिंसा की पुरानी व्याख्याओं के समान ही है लेकिन ये कुछ नए ट्रेंड लेकर भी आया है.

विगत दिनों में चाहे वो 2013 में हुआ मुजफ्फरनगर (नाबालिग के साथ प्रताड़ना हो) या गोधरा (ट्रेन के डब्बों का जलना), हम हिंदू और मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक घटना को ही मुद्दा बनाते हैं. सीएए को लेकर चल रहा प्रदर्शन ठीक पहले जैसी घटना नहीं है. आज, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मौजूदा तनाव सीधे-सीधे सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ा सकते हैं.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में हाल ही में भाजपा की हार हुई है. इसलिए दिल्ली हिंसा से स्थानीय चुनावी फायदा मिलने की बात तो नज़र नहीं आती.

मेरा मानना ​​है कि सोशल मीडिया ने सांप्रदायिक हिंसा के हमारे ‘पारंपरिक मॉडल’ को बदल दिया है. सूचना की गति और प्रसार के कारण, दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा एक पार्टी को असम और पश्चिम बंगाल में चुनाव जीतने में मदद कर सकती है.

अगर देश के एक हिस्से में फैली हिंसा दूसरे हिस्से में फायदा पहुंचा रही है तब सांप्रदायिक हिंसा के लिए स्थानीय चुनावी प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं होती है.


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राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब स्थानीय सांप्रदायिक घटनाओं को एक साथ पैदा करने के लिए प्रेरित करता है, ताकि स्थानीय कारकों की भूमिका कम हो सके. अब जब दिल्ली के चुनाव समाप्त हो गए हैं, तो माना जा रहा है कि जहरीले चुनावी अभियान के बाद हम सामान्य स्थिति में लौट आएंगे. लेकिन, जैसा कि दिल्ली दशकों में अपनी सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा से जूझ रही है, और चुनाव के बाद भी, हम भारत में पुराने सांप्रदायिक तनावों की नई वास्तविकताओं का सामना करने के लिए मजबूर हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक अशोका युनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के एसिस्टेंट प्रोफेसर और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर विजिटिंग फैलो हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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