भारतीय जनता पार्टी को जल्द ही एक ऐसा नेता खोजना पड़ेगा जो अमित शाह की जगह ले सके- जो कि कुशल चुनावी रणनीतिकार हो और पूरे देश में चुनाव के लिए रणनीति का प्रबंधन कर सके. यह स्पष्ट हो रहा है कि जेपी नड्डा वो नाम नहीं है जो ये कर संके. वो सिर्फ अमित शाह की जगह लेने वाले हो सकते हैं. अगर भाजपा की मातृत्व विचारधारा वाला संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और खुद पार्टी अगर चाहे तो असम के हिमंत बिस्वा सरमा ऐसे व्यक्ति हो सकते हैं.
हिमंत बिस्वा सरमा बिल्कुल अमित शाह की तरह ही हैं- राजनीति में जोड़-तोड़ करने वाले, कठोर, चतुर, मेहनती और सत्ता पाने के लिए ललक वाले. सरमा कुछ मोदी की तरह भी हैं- जो अपने क्षेत्र में लोकप्रिय भी हैं.
भाजपा अध्यक्ष के तौर पर अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने भाजपा को चुनाव जीतने की मशीनरी में बदल दिया लेकिन अब उन्हें एक उपयुक्त उत्तराधिकारी की जरूरत पड़ेगी. अगर राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के अन्य बड़े नेताओं की तरफ देखें तो अभी तक कोई भी भरोसा दिला पाने में सफल नहीं हुआ है और ये मोदी सरकार में भी साफ दिखलाई पड़ता है.
सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि असम के भाजपा नेता हिमंत बिस्वा सरमा आरएसएस से जुड़े नहीं है और न हीं उनकी जड़ें संघ से जुड़ी हुई है. जो कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में किसी भी पद के लिए एक अयोग्यता है.
हिमंत बिस्वा सरमा: एक राजनेता
अगर कोई एक चीज़ है जिसके लिए मृदु भाषी और तेजस्वी हिमंत बिस्वा सरमा जाने जाते हैं वो उनकी राजनीतिक स्थिति को सही तरीके से समझने की क्षमता और ये सुनिश्चित करना कि जो वो कर रहे हैं वो उनके संगठन के लिए काम कर रहा है.
कांग्रेस से भाजपा में आए हिमंत बिस्वा सरमा को असम में भाजपा का विश्वस्त बनने में काफी कम समय लगा. या यूं कहे कि पूरे पूर्वोत्तर भारत में ही. साल 2015 में वो कांग्रेस से निकलकर भाजपा में आए थे. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से सार्वजनिक तौर पर मतभेद होने के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ी थी.
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मोदी-शाह की जोड़ी जल्द ही किसी पर विश्वास न करने वाले के तौर पर जानी जाती है लेकिन हिमंत ने ये सुनिश्चित किया है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में वो उनके सबसे विश्वस्त हैं. हिमंत के रहते हुए भाजपा ने असम में 2016 का विधानसभा चुनाव जीता और उसके बाद पूर्वोत्तर के राज्य दर राज्य सत्ता में पकड़ बनाई चाहे वो वैध तौर पर चुनाव जीतकर हो या अन्य किसी दांव-पेंच के जरिए हो.
शाह की तरह ही हिमंत बिस्वा सरमा को इसमें कोई हिचक नहीं है कि वो सत्ता में कैसे आते हैं. शाह की तरह वो मतदाताओं की नब्ज़ को जानते हैं और त्रिपुरा जैसे मुश्किल चुनावी क्षेत्र मे भी भाजपा को बढ़त दिलाते हैं. फिर से शाह की तरह ही वो सांप्रदायिक हो सकते हैं और जब जरूरत पड़े तो खुद को स्टेट्समैन की तरह भी प्रस्तुत कर सकते हैं.
सबसे महत्वपूर्ण ये है कि हिमंत बिस्वा सरमा में सत्ता की भूख है और राज करना क्यों जरूरी है इसकी अपनी समझ है. शायद यही कारण है कि मात खाई, दिशाहीन और विपक्ष में बैठी कांग्रेस में वो नहीं रह पाए. फिर से मोदी-शाह के सबसे शुरुआती काबिलियत की याद ताजा होती है- जो उन्हें सत्ता की चाह है.
सर्बानंद सोनोवाल भले ही असम के मुख्यमंत्री हो लेकिन जोड़-तोड़ वाले सरमा की भाजपा के उभरते हुए चेहरे हैं. नागरिकता संशोधन कानून के बाद किस तरह असम में स्थिति खराब हुई लेकिन सरमा ने दिखाया कि ये सोनोवाल की नाकामी है और फिर पूरी स्थिति को नियंत्रण करने के लिए उतर पड़े.
हिमंत- जन नेता
हिमंत बिस्वा सरमा के खिलाफ एक तर्क ये दिया जाता है कि वो भले ही असम जैसे राज्य को संभाले लेकिन पूरे देश की भूमिका निभाना उससे अलग बात है. लेकिन तथ्य ये है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में अपनी मजबूत जगह बनाने के बाद सरमा ने यह दिखाया है कि वो बड़ी तेज़ी से अपने पंखों को फैलाना जानते हैं.
वो भले ही पूरे देश में भाजपा के जाने पहचाने चेहरे न हो लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने भी एक राज्य से अपना सफर शुरू किया था और उसके बाद उन्होंने पूरे देश के लिए कल्पना की. यह सब एक तेज़ राजनीतिक दिमाग था, सत्ता की दिशा में एकात्म यात्रा और मतदाताओं को राजनीति और वादों के अपने ब्रांड में खरीदने के लिए जोड़तोड़ करना था.
असम में सरमा के अच्छे खासे चाहने वाले हैं. जब ये लेखक 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान इस राज्य में घूम रही थीं, मतदाताओं के बीच एक आम धारणा यह थी कि कांग्रेस के पास सरमा के पार्टी में बने रहने के लिए चीजें बहुत अलग थीं. वो अपने क्षेत्र को जानते हैं और पार्टी बदलने के बाद भी उसे दोबारा जीतना जानते हैं.
सबसे बड़ी दिक्कत
हालांकि जो बात हिमंत बिस्वा सरमा के खिलाफ जा रही है वो है उनका आरएसएस की पृष्ठभूमि से संबंध न रखना. जो कि राष्ट्रीय स्तर में भाजपा में कोई स्थान पाने के लिए बहुत जरूरी है. बहुतों के लिए सरमा एक अवसरवादी हैं जिनकी एक संगठन के लिए कोई प्रतिबद्धता नहीं है.
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हिमंत बिस्वा सरमा और अमित शाह में जो साफ अंतर है वो है शाह का एक विचारधारा के प्रति स्पष्ट झुकाव, हिंदुत्व के लिए प्रतिबद्धता जो भाजपा में जरूरी है. वहीं पहले वाले की सिर्फ एक विचारधारा है- वो है सत्ता. एनआरसी-सीएए सरमा के लिए एक ऐसे रूप में काम आया है जिससे वो भाजपा के लिए अपनी प्रतिबद्धता जता पाए. लेकिन क्या वे वास्तव में स्थानीयता को पीछे छोड़ते हुए सीएए-एनआरसी के सांप्रदायिक प्रोजेक्ट पर विश्वास करते हैं.
ये कोई छुपी हुई बात नहीं है कि सरमा असम से बाहर निकलकर 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका निभाना चाहते थे. हालांकि मोदी और शाह को महसूस हुआ कि ये सही समय नहीं है और उन्होंने सरमा को पूर्वोत्तर की भूमिका निभाते रहने के लिए ही सही माना.
क्या हिमंत बिस्वा सरमा भाजपा और आरएसएस को भरोसा दिला पाएंगे? उनकी कुशलता और चतुराई की यह सबसे बड़ी परीक्षा होगी और मुश्किल परिस्थितियों में अपनी राह बनाने की क्षमता को भी दिखाएगी.
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