राजधानी की गलियां सांप्रदायिक हिंसा की आग में कई दिनों से जल रही हैं. पूर्वोत्तर दिल्ली के मुख्य रूप से चांदबाग, भजनपुरा, गोकुलपुरी, मौजपुर, कर्दमपुरी और जाफराबाद के इलाके में हाहाकार मचा रहा, जिसके निशान अब भी बिखरे पड़े हैं. दिल्ली पूरी तरह से शांत नहीं हो पा रही है तो यह तय है कि बिना सत्ता व शासन-प्रशासन की सहभागिता से यह संभन नहीं है. कई तरह की सामाजिक शक्तियां भी इसके पीछे लगी होंगी, वरना हिंसा का इतना विस्तार न होता और न ही हिंसा इतने लंबे समय तक जारी रहती.
ऊपर से देखें तो कुछ कारण, जिनकी विधिक तौर पर पुष्टि होना बाकी है, नजर आते हैं. दिल्ली में दंगा भड़काने के पीछे बीजेपी नेता कपिल मिश्रा के विवादित बयान को जिम्मेदार माना जा रहा है. इस मामले का दिल्ली हाई कोर्ट ने भी संज्ञान लिया है. लेकिन सरकार उनकी गिरफ्तारी को टालने में जुटी है. इसी तरह यूपी के मुजफ्फरनगर दंगे में भी भाजपा के नेता संगीत सोम पर आरोप लगे थे. ऐसे मामलों में जब कानून अपना काम नहीं कर पाता, तो अगले दंगों की जमीन वहीं तैयार हो जाती है. दिल्ली की हिंसक घटनाओं में प्रशासन की संलिप्तता को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. दर्जनों ऐसे वीडियो सामने आए हैं जिनमें पुलिस या तो हिंसा को चुपचाप होती देख रही है या खुद भी उसमें शामिल है.
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सीएए-एनआरसी को लेकर दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में चल रहे आंदोलनों की प्रतिक्रया के रूप में भी इन घटनाओं को देखा जा रहा है.
दंगों का जातीय-सांप्रदायिक चरित्र
भारत के दंगों को सिर्फ सांप्रदायिक नजरिये से देखना सही नहीं है. बल्कि भारतीय सांप्रदायिकता का एक जातिवादी पहलू भी है, जिसे मैं जातिवादी सांप्रदायिकता कहना उचित समझता हूं. वर्ष 2002 के गुजरात दंगे में भी सत्ता व संस्थानों की भरपूर मिलीभगत देखी गई. इस संदर्भ में रहील धत्तीवाला तथा माइकेल बिग्स द्वारा लिखा गया शोध लेख ‘द पॉलिटिकल लॉजिक ऑफ एथनिक वायलेंस: द एंटी मुस्लिम पोग्रोम इन गुजरात’ को देख सकते हैं, जिसे सेज प्रकाशन द्वारा 2012 में प्रकाशित किया गया था.
इस शोध में एथनिक व हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा के पीछे जातीय व मुहल्लों के भूमिका को भी रेखांकित किया गया है. इस शोध के कई निष्कर्षों में एक निष्कर्ष ये भी है कि दलित और आदिवासी बहुल इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं कम हुई और जिन लोगों पर दंगों के दौरान हत्या करने के मुकदमे चले, उनमें से ज्यादातर सवर्ण हैं. जबकि आम तौर पर ये धारणा बना दी गई है कि दलित और आदिवासी ही दंगों में आगे रहते हैं. प्रस्तुत शोध से ये धारणा निराधार साबित हुई है.
इस शोध का दूसरा निष्कर्ष ये है कि शिक्षा सांप्रदायिकता रोकने का कारगर उपाय नहीं है. बल्कि जिन इलाकों में साक्षरता की दर ऊंची है, वे इलाके सांप्रदायिक हिंसा से ज्यादा प्रभावित रहे.
शोध का तीसरा प्रमुख निष्कर्ष ये है कि जिन विधानसभा सीटों में 1998 के चुनावों में बीजेपी ने जीत हासिल की थी, उन इलाकों में हिंसा की घटनाएं कम हुईं. जिन इलाकों में बीजेपी बेहद कमजोर है, वहां भी हिंसा कम हुई. ज्यादा हिंसा उन जगहों पर हुई, जहां बीजेपी मुकाबले में थी और जीतना उसके लिए मुमकिन था. 2002 के चुनाव नतीजों से ये भी सामने आया कि जिन इलाकों में हिंसा हुई, वहां बीजेपी को चुनावी फायदा हुआ.
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दिल्ली में हुई हिंसा का जब विश्लेषण किया जाए तो इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए. ऐसा करते हुए इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दंगे अपने आप नहीं होते. ऐसा भी नहीं है कि लोगों को गुस्सा आ गया और वे दूसरों को मारने के लिए निकल पड़े. दंगा हमेशा एक सुचिंतित कार्रवाई है, जिसे बहुत सोच-समझ कर किया जाता है. हर दंगाई ये भी चाहता है कि उसे अपना कोई नुकसान न हो और वह सुरक्षित लौट आए. इसकी बाकायदा योजना बनाई जाती है. ये भावनात्मक मामला तो कतई नहीं है.
ये धारणा भी गलत है कि दंगा हमेशा बाहर से आए लोग करते हैं. बेशक ये बात खासकर पीड़ित पक्ष बोलता है कि बलवा करने वाले बाहर से आए थे. इसके पीछे कारण ये होता है कि उन्हें आगे भी उन्हीं लोगों के साथ रहना होता है, जिन्होंने उनके खिलाफ हिंसा की है.
दिल्ली की हिंसा को मुख्य रूप से दो नजरिए से देखा जाना चाहिए.
1. इन दंगों से किसे राजनीतिक लाभ हुआ या किस तरह का राजनीतिक लाभ संभावित था? इससे जुड़ा सवाल है कि कुछ ही हफ्ते पहले हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी हारी और आम आदमी पार्टी को जीत हासिल हुई, उस सूबे में दंगा कैसे हुआ. इसके अलावा क्या इन दंगों के पीछे कोई आर्थिक कारण था? क्या इन दंगों से किसी को आर्थिक लाभ हुआ? इन दो कारणों की पड़ताल से दंगों के पीछे के षड्यंत्र का पता चल सकता है.
2. ये भी देखा जाना चाहिए कि पूर्वोत्तर दिल्ली में ऐसा क्या है कि दंगे इसी इलाके में हुए? क्या इसके पीछे इलाके की सामुदायिक बनावट का हाथ है या फिर कोई और वजह है? पूर्वोत्तर दिल्ली के वे कौन से इलाके हैं, जहां दंगे नहीं हुए और ऐसा क्यों हुआ?
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जब दिल्ली में दंगे शुरू हुए तो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तथा उसके सारे गणमान्य नेता अपनी असहायता जाहिर करते हुए चुप्पी साधे रहे. अभी हाल ही में संपन्न हुए चुनाव में उन्हे व्यापक समर्थन के साथ चुनावी जीत मिली. जिसका मतलब साफ था कि दिल्ली की जनता ने भाजपा को नकारते हुए केजरीवाल पर अपना भरोसा जताया. फिर लहू-लूहान और दर्द से कराहती दिल्ली की जनता के बीच जाकर उनका दुःख दर्द बांटने के बजाय इस केजरीवाल की उदासीनता का क्या राज है.
बहरहाल एक बात जो मुझे बार-बार कुरेद रही है कि केजरीवाल की इस उदासीन भूमिका को लेकर देश के लेफ्ट-लिबरल तथा शहरी अभिजात्य व सवर्ण मध्यवर्ग में जो संतुष्टि का भाव है उसके पीछे का समाजशास्त्रीय दर्शन क्या है. आखिर केजरीवाल की जगह कोई किसान या बहुजन पृष्ठभूमि का कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री होता तो क्या उसे लेकर भी ऐसी ही आत्मतुष्टि का भाव होता?
दिल्ली की हिंसा बहुत सारे सवाल पैदा कर रही है.
(लेखक भारतीय भाषा केंद्र जेएनयू से पीएचडी हैं.यह लेख उनका निजी विचार है)
कारण बताइऐ
JNU से PhD. करने वाले तो केवल बीजेपी को ही दोष देंगे।