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Friday, 1 November, 2024
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69 वर्षीय कुंवारे मोहन भागवत शादी और तलाक पर सलाह देने से बाज आते तो ही बेहतर होता

शिक्षा और समृद्धि को तलाक का कारण बताने वाले मोहन भागवत का बयान कई वजहों से समस्या पैदा करता है क्योंकि यह तलाक को एक बुराई और पाप की तरह भी प्रस्तुत करता है. 

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करीब 69 साल का कोई कुंवारा आदमी आपको शादी के बारे में सलाह दे तो जाहिर है कि उसे आप थोड़े संदेह के साथ सुनेंगे. आरएसएस के सरसंघचालक, कथित तौर पर ब्रह्मचारी माने जाने वाले मोहन भागवत का मानना है कि शिक्षा और समृद्धि की वजह से तलाक के मामले बढ़ रहे हैं. उनका कहना है कि शिक्षा और समृद्धि की वजह से लोगों में आक्रामकता बढ़ी है, जो वैवाहिक संबंध को नष्ट करती है.

इस निष्कर्ष को सुनकर स्वर्ग में बैठे महागुरु चाणक्य जरूर करवटें बदल रहे होंगे, क्योंकि उनका मानना था कि ‘शिक्षा तो कामधेनु गाय है/जो हर ऋतु में दूध देती है/वह माता के समान है/जो तुम्हारी यात्रा में भी तुम्हें भोजन कराती है/इसलिए शिक्षा एक गुप्त खजाना है’.

दुर्भाग्य की बात यह है कि चाणक्य ने शिक्षा की तुलना जिस तरह एक कामधेनु गाय से की है, उसे जानते हुए भी भागवत का विचार नहीं बदला है. वैसे भी वे संघ के कार्यकर्ताओं को समय-समय पर प्रतिगामी सलाह देते रहते हैं. उनकी सलाह यह है कि शादी तभी सफल होती है, जब दंपति इस ‘सामाजिक करार’ का पालन करते हैं कि पति का काम आजीविका कमाना है और पत्नी का काम घर की देखभाल करना. लेकिन यह सवाल बना रह जाता है कि कोई अविवाहित पुरुष भला यह कैसे बता सकता है कि शादी कैसे सफल होती है?

सरस्वती से यशोदाबेन तक

आरएसएस इस बात पर गर्व करता है कि उसने भारत को नरेंद्र मोदी दिया और मोदी की ‘सफलता’ का मतलब है कि भागवत उन्हें तथा बाकी लोगों को अपने ज्ञान के अनमोल मोती बांटते रहे हैं. लेकिन क्या भागवत ने विवाह के बारे में मोदी को कोई पाठ पढ़ाया? लेकिन जो लोग मनुष्य से ज्यादा गाय को गंभीरता से लेते हों वे अगर शादी के बारे में पाठ पढ़ाएं तो उनके विचार को अहमियत देना मुश्किल ही लगता है. अगर शिक्षा के कारण शादियां टूटती हैं, तो विद्यादाता सरस्वती माता, भगवान ब्रह्मा के साथ मिलकर हम दंपतियों को क्या लक्ष्य हासिल करने की सीख देती हैं? अगर समृद्धि के कारण तलाक होते हैं, तो फिर सम्राट दक्ष की राजकुमारी ने औघड़दानी, फक्कड़ माने जाने वाले भगवान शिव से विवाह क्यों किया? आदिशक्ति ने राजा (हिमावत) के परिवार में पुनर्जन्म लिया, और शिव-पार्वती के विवाह को आज भी बड़े सम्मान से देखा जाता है.

मोदी की मिसाल

भागवत के बयान की अतार्किकता का खुलासा करने के लिए हमें देवी-देवताओं की शरण में भी जाने की जरूरत नहीं है. सबसे अच्छा उदाहरण तो खुद प्रधानमंत्री मोदी हैं, जिनका दावा है कि उन्होंने एक मामूली चायवाले से शुरुआत की, शादी के तीन साल बाद ही अपनी पत्नी यशोदाबेन को त्याग दिया और इस बात को पांच दशकों तक छिपाए रखा, जब तक कि उन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए पर्चा भरते वक़्त इसे मजबूरन कबूल न करना पड़ा. जाहिर है कि, जैसा कि भागवत कहते हैं, घर संभालना या आजीविका कमाना उनके बस का नहीं था.


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प्रधानमंत्री मोदी तो यह भी दावा करते हैं कि वे ग्रेजुएट हैं, लेकिन उन्होंने कोई सर्टिफिकेट नहीं प्रस्तुत किया है, ताकि उन लोगों के मुंह बंद किए जा सकें, जो 1978 के दिल्ली विश्वविद्यालय के उनके सर्टिफिकेट को फर्जी बताते हैं. यानी, यहां न तो शिक्षा की कोई भूमिका है और न दौलत की. फिर भी अलगाव हो गया. हम कोई व्यक्तिगत आक्षेप नहीं कर रहे, लेकिन, आरएसएस के प्रमुख जब निजी मसलों पर संकेत देने लगते हैं तब मामला व्यक्तिगत हो जाता है.

तलाक तो पाप है

भागवत का बयान एक और वजह से समस्या पैदा करता है. यह तलाक को एक बुराई और पाप की तरह प्रस्तुत करता है. महिलाओं को अक्सर शादी के कामयाब न होने के लिए शर्मिंदा किया जाता है और दोषी ठहराया जाता है. इसलिए वे प्रायः दर्दनाक और अपमानजनक वैवाहिक रिश्ते को मजबूरन ढोती रहती हैं. भागवत का सोच उस सोच से अलग नहीं है, जो बलात्कार के लिए औरत को और उसके तंग कपड़ों को जिम्मेदार मानता है. उनका बयान उसी सामाजिक दबाव को मजबूत बनाता है, जो छोटी लड़कियों और लड़कों को यौन उत्पीड़न के बारे में चुप रहने को मजबूर करता है.

दरअसल, भागवत ने अपने आदिम किस्म के विचार 2013 में भी जाहिर किए थे, जब दिल्ली के कुख्यात सामूहिक बलात्कार कांड के बाद उन्होंने कहा था कि बलात्कार ‘भारत’ (ग्रामीण भारत) में नहीं होते, शहरी ‘इंडिया’ में होते हैं.

लेकिन, जैसा कि पत्रकार रुक्मिणी एस ने तब खबर दी थी, अदालत के आंकड़े भागवत के बयान को ‘सीधे गलत’ साबित करते हैं. दरअसल, ‘पिछले 25 वर्षों में बलात्कार के जिन मामलों में सजा हुई है, उनमें से 75 प्रतिशत मामले गांवों में हुए.’

मनुस्मृति के पूजक

भाजपा की विधायक रहीं सावित्री फुले ने पिछले साल पार्टी छोडने के बाद बयान दिया था कि भाजपा और आरएसएस भारत के संविधान की जगह ‘मनुस्मृति’ को लाना चाहते हैं. महिलाओं, विवाह और समाज आदि पर भागवत के बयान कुलमिलाकर यही स्पष्ट करते हैं कि यह प्राचीन हिंदू ग्रंथ ही आरएसएस की विचारधारा का मूल स्रोत है. इसके दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर इस ग्रंथ का अनुमोदन करते हुए इसके रचयिता को ‘महान आत्मा’ कह चुके हैं.

जरा ‘मनुस्मृति’ की इस सीख पर गौर कीजिए-

‘बाल्ये पितोर्वश्य तिष्ठेथ पाणि गृहस्य यौवनाय

पुत्रनाम भ्रात्रे प्रेतय ना बजायत स्त्री स्वतंत्रतम.’


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इसका अर्थ यह है कि बचपन में लड़की को पिता के नियंत्रण में रहना चाहिए, विवाह के बाद उसे पति के अधीन और विधवा होने के बाद पुत्र की देखभाल में रहना चाहिए. कभी भी उसे अपनी स्वतन्त्रता नहीं जतानी चाहिए.

वैसे, भगवत के बयान की एक वृद्ध के ख्याल मान कर अनदेखी ही की जाएगी, जिसमें कोई रचनात्मक विचार नहीं है. लेकिन वे न केवल भारत सरकार में दबदबा रखते हैं, जो ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे के साथ अभियान चला रही है, बल्कि उन सब के सोच पर भी प्रभाव डालते हैं जो आरएसएस की विचारधारा में निष्ठा रखते हैं.

असली सवाल तो यह है कि मोदी सरकार के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान का क्या होगा, अगर वह उन विचारकों की बात सुनेगी, जो ज़ोर देकर यह कहते हैं कि शिक्षा (जिस पर सरकार ज़ोर दे रही है) और समृद्धि (जिसे लाने का वह वादा कर रही है) के कारण भारतीय परिवार टूट रहे हैं?

(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. तुम लोग हमेशा 6 को 9 देखने का ही प्रयास करते हो।
    तुमको कलम से ऐसी विचारात्मकता प्रकट करने का कोई अधिकार नही है। हम लोग सभी को मानवता की दृष्टि से देखते है लेकिन आपकी सोच मानवता को दो वर्गों में भिभाजित करती है।
    इसलिए आपसे निवेदन है कि मानवता है अहित की बाते न किया करें।

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