बिहार में विधानसभा चुनाव इसी साल होने हैं और यह चर्चा बिहार के सियासी हल्के में इन दिनों बड़ी तेज है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को टक्कर देने वाला कौन है. स्थानीय मीडिया वेब पोर्टल पर इसको लेकर रिपोर्ट्स छप रही हैं और सोशल मीडिया पर भी इससे जुड़े तमाम पोस्ट देखे जा सकते हैं.
यह चर्चा यू हीं नहीं हो रही, इसके पीछे तमाम कारण हैं. पहला तो ये कि बिहार के विपक्षी गठबंधन में मुख्यमंत्री पद के चेहरे के नाम पर बहुत रार है.
महागठबंधन की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी राजद ने पहले से अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित तो कर दिया है, मगर दूसरी सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी कांग्रेस के नेता और प्रवक्ता तेजस्वी के नाम पर सहमति नहीं दे रहे हैं.
मुख्यमंत्री चेहरा कौन
वे कहते हैं कि यह बात महागठबंधन की को-ऑर्डिनेशन कमिटी की बैठक में तय होगी कि मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा.
कांग्रेस की ही तरह का स्टैंड बिहार की दूसरी छोटी – बड़ी विपक्षी पार्टियों का भी है.
हम पार्टी के जीतनराम मांझी कहते हैं कि ‘को-ऑर्डिनेशन कमिटी की बैठक पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से नहीं हुई है. मैंने यह बात दर्जनों बार राजद के लोगों को बोली, महागठबंधन की दूसरी बैठकों में इस मुद्दे को उठाया, मगर न जाने फिर भी क्यों राजद को-ऑर्डिनेशन कमिटी की बैठक कराने में रुचि क्यों नहीं दिखा रहा है! ऐसे नहीं चल पाएगा.’
उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी भी यही बात कहते हैं.
और जहां तक बात लेफ्ट पार्टियों की है तो कन्हैया कुमार उनके चेहरे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है. पिछले लोकसभा चुनाव में भी लेफ्ट पार्टियां महागठबंधन का हिस्सा नहीं थी.
कथित तौर पर बिहार में विपक्ष का चेहरा लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी हैं. बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी तेजस्वी ही हैं. मगर वो केवल इसलिए हैं क्योंकि वे सबसे बड़ी पार्टी के नेता हैं.
ऐसे में सवाल है कि तेजस्वी यादव को-ऑर्डिनेशन कमिटी की बैठक कराकर ये क्यों नहीं तय करा लेते हैं कि मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा?
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जानकार बताते हैं तेजस्वी यादव शायद कन्हैया कुमार से डर रहे हैं. इस वक्त और भी डर रहे हैं क्योंकि कन्हैया जो यात्रा कर रहे हैं, उसकी सभाओं में भीड़ जुट रही है.
यह पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भी देखा गया था जब लेफ्ट पार्टियों के नेताओं के कई बार कहने के बावजूद भी राजद ने बेगूसराय सीट से अपने उम्मीदवार तनवीर हसन को उतार दिया. उस समय भी ये चर्चा उठी थी कि तेजस्वी यादव ने ये फैसला कन्हैया कुमार से डरकर लिया है!
जहां तक बात चेहरे को लेकर कन्हैया के नाम की है, तो इसपर सहमति दूसरी सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस की भी लगती दिखती है.
इसकी वज़ह है कटिहार के कदवा विधानसभा से विधायक राज्य के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और बिहार कांग्रेस के थिंक टैंक माने जाने वाले शकील अहमद खां की कन्हैया के साथ उनकी यात्रा में मौजूदगी.
कन्हैया की मौजूदा चल रही यात्रा को कवर करते हुए ऐसा लगा मानो यात्रा का चेहरा केवल कन्हैया हैं, बाकी सभी चीजों का प्रबंधन और आयोजन शकील अहमद खां ही कराते हैं. मसलन स्थानीय प्रशासन के साथ समन्वय, यात्रा के ठहरने का प्रबंध, अधिक से अधिक मुसलमानों को जोड़ना वगैरह.
कन्हैया की सभाओं में जो लोग जुटते हैं उनमें लेफ्ट पार्टियों के कोर वोटर्स भी शामिल होते हैं जो हमेशा होते हैं, हर रैली और सभा में पहुंचते हैं.
लेकिन इस समय की सभाओं में एक बड़ा मुसलमान तबका आता है जो शकील अहमद खां के कारण आता है और सीएए-एनआरसी के कारण भी आता है.
कन्हैया को चेहरा बनाने में सीएए-एनआरसी की अहमियत की बात भी आगे करेंगे, उससे पहले एक वाक्ये का जिक्र करते चलते हैं,
यात्रा के दौरान बांका की सभा से पहले जब यात्रा का दल रात्रि पड़ाव स्थल से निकलने वाला था उसके पहले शकील अहमद खां अपने लोगों से (यात्रा में शामिल) बातचीत में किसी की शिकायत का जवाब देते हुए कहते हैं,
‘अगर सभाओं में लाल झंडा लेकर लोग आ सकते हैं तो कांग्रेस का झंडा लेकर क्यों नहीं आ सकते? जरूर आ सकते हैं. शकील अहमद खां अगर कन्हैया के साथ है तो इसका मतलब कांग्रेस भी साथ है.’
बांका की उस दिन की सभा में कांग्रेस के झंडे लेकर उसके कार्यकर्ता भी खूब आए थे. तस्वीरों में देखा जा सकता है.
कन्हैया को कांग्रेस की तरफ से प्रोजेक्ट करने का जो सबसे अहम कारण है वो है सीएए-एनआरसी-एनपीआर.
सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मुद्दे पर कांग्रेस को एक बार फिर से मुसलमान तबके का भरपूर समर्थन मिलता दिख रहा है. कांग्रेस इससे पहले इस मुद्दे पर राजद के साथ खड़ा होकर देख चुका है.
21 दिसंबर को बुलाया गया इस मुद्दे पर राजद का बिहार बंद अन्य विपक्षी दलों के बंद से अलग दिन था. राजद के बंद में कांग्रेस का कोई बड़ा नेता नहीं दिखा.
जबकि राजद के बंद से पहले जिस दिन लेफ्ट पार्टियों के साथ मिलकर 19 दिसंबर को बिहार बंद किया गया था, उसमें कांग्रेस समेत विपक्ष की तमाम छोटी-बड़ी पार्टियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था.
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि ‘कन्हैया से कांग्रेस को ज्यादा फायदा दिख रहा है. कन्हैया को भी कांग्रेस के साथ आने में कोई दिक्कत नहीं लगती. कन्हैया बार-बार कहते भी हैं कि वे उन सबके साथ जाने को तैयार हैं जो बीजेपी की सरकार को हराने का काम करेंगे.’
गत वर्षों के बिहार का चुनावी विश्लेषण करने पर मालूम चलता है कि इस साल के चुनाव में सीएए-एनआरसी-एनपीआर के मुद्दे पर राजद के एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण को नुकसान हो सकता है. क्योंकि कांग्रेस इसबार कन्हैया की ओर जाती दिख रही है.
मुस्लिम वोटर्स के लिहाज से कांग्रेस का कन्हैया के साथ जाना स्वाभाविक भी है. क्योंकि कन्हैया को सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर मुसलमानों का अभूतपूर्व समर्थन मिलता दिख रहा है.
कन्हैया पर होगा कांग्रेस का दांव
कांग्रेस यह भी देख रही है कि कन्हैया के साथ उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी भी मंच शेयर कर रहे हैं.
आखिर में सवाल यही रह जाता है कि कांग्रेस क्यों राजद जैसी बड़ी पार्टी को छोड़ कर चुनाव में लेफ्ट के साथ जाएगी जिसका मुश्किल से बिहार में कोई वज़ूद बचा है?
जवाब खुद कांग्रेस ही देती है.
प्रदेश अध्यक्ष मदनमोहन झा बातचीत में कहते हैं, ‘कन्हैया में क्या बुराई है? इसके पहले भी कांग्रेस को लेफ्ट का साथ मिला है. और हमारी पहली लड़ाई संघवाद से है, संविधान को बचाने के लिए है.’
एक बात तो जरूर है कि कन्हैया कुमार के छात्र राजनीति से मुख्य धारा की राजनीति में आने के साथ ही लेफ्ट की गतिविधियां बिहार में बढ़ गई हैं.
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राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि, ‘बीते दिनों में लगभग मृतप्राय हो चुकी लेफ्ट को कन्हैया ने नई घुट्टी पिला कर फिर से जिंदा कर दिया है.’
कन्हैया के साथ आने से कांग्रेस के साथ न केवल लेफ्ट आएगा बल्कि हम, रालोसपा और वीआईपी जैसी छोटी पार्टियों का भी साथ मिलेगा. क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद से जिस तरह राजद का गठबंधन बनाने को लेकर रवैया है, उससे वे निराश दिखते हैं.
राजद के नेता मानते हैं कि ऐसी परिस्थिति में वो जरूरत पड़ने पर अकेले भी चुनाव लड़ने को तैयार हैं, लेकिन कन्हैया कुमार का समर्थन नहीं करेंगे.
कुछ दिनों पहले जब धारा 370, ट्रिपल तलाक और एनआरसी का मुद्दा पहली बार उठा था तब बिहार के राजनीतिक गलियारे में चर्चा चल रही थी नीतीश कुमार इन मुद्दों पर बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस के साथ न चले जाएं!
कांग्रेस के स्थानीय नेता पहले ही उन्हें अपने बयानों में आने का न्यौता तक दे चुके थे.
पटना में जलजमाव के तुरंत बाद दशहरे में रावण दहन के दिन सरकारी कार्यक्रम में मंच पर बीजेपी के एक भी नेता के नहीं होने और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष के होने से यह चर्चा और तेज हो गई थी. जाहिर है कांग्रेस को नीतीश कुमार के साथ आने में भी कोई गुरेज़ नहीं है.
लेकिन नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जदयू भाजपा के साथ बने रहने पर दृढ़ दिखती है. ऐसे में कांग्रेस के पास कोई और विकल्प नहीं बचता कि वो कोई नया मजबूत चेहरा तलाश करे.
कांग्रेस ये भी हमेशा से चाहती रही है कि वह अधिक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़े. राजद के साथ हर बार इसी बात पर रार भी होती है. इस बार तो राजद ने और भी अड़ियल रवैया अख्तियार कर लिया है.
कांग्रेस को लगता है कि कन्हैया कुमार के साथ आने में कोई नुकसान इसलिए भी नहीं है क्योंकि जो गठबंधन बनेगा उसमें वह सबसे बड़ी पार्टी होगी. कन्हैया कुमार केवल चेहरा होंगे. ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने की कांग्रेस की कामना भी इससे पूरी हो सकती है.
कांग्रेस को कन्हैया के साथ आने में सबसे बड़ा फायदा यह है कि उसका जातिगत समीकरण भी नहीं बिगड़ेगा. केवल यादव वोट अलग होने का खतरा रहेगा. जो कुल वोटों का करीब 14 फीसदी है. लेकिन इसके बदले उसे लेफ्ट के कोर वोटर्स मिलेंगे. जाति के आधार पर बनी दूसरी छोटी पार्टियों का सहयोग मिलता रहेगा.
लालू यादव वाला राजद
कांग्रेस को पता है कि राजद अब लालू यादव के समय वाला राजद नहीं रहा जो सभी विपक्षियों को जोड़ने के लिए धूरी का काम करते थे. और जहां तक बात राजद के कोर यादव वोटर्स का है तो वह अब पहले की तरह एकमुश्त नहीं रहा. यादवों के कई नेता हो चुके हैं जो मौजूदा राजद नेतृत्व को टक्कर भी देते हुए लगते हैं.
हालांकि कांग्रेस को इससे मतलब नहीं कि राजद में क्या चल रहा है और यादवों के नेता कौन हैं, बल्कि उसका मकसद उस चेहरे को खड़ा करना है जो भाजपा-जदयू सरकार को टक्कर दे सके. तेजस्वी में उसकी तलाश पूरी होती नहीं दिख रही है इसलिए कन्हैया कुमार को वह नेता बना रही है. सीएए-एनआरसी ने कन्हैया के साथ मिलकर कांग्रेस को एक नई उम्मीद दिखाई है.
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वैसे कन्हैया ने अभी तक कभी यह नहीं कहा है कि वे बिहार का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे. हमने पिछली बातचीत में उनसे बार-बार यह जानने की कोशिश की. पर सीधा जवाब नहीं दिया.
लाज़िम है, वे फिलहाल कहेंगे भी नहीं. क्योंकि उन्हें पता है कि अभी माहौल तैयार हो रहा है. महौल बनने में वक्त लगता है. चुनाव में आठ महीने समय है. 27 को पटना में उनकी रैली है जो राजनीतिक मायनों में कन्हैया का शक्ति प्रदर्शन होने वाला है.
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह लेख उनके निजी विचार हैं.)