हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति के जीवन में कुल 16 संस्कार बताए गए हैं. इसमें आखिरी दाह संस्कार है. माना जाता है कि इस संस्कार के बाद मृतक की आत्मा मुक्त हो जाती है. हालांकि, हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की इच्छा पर उसकी मृत्यु के बाद दफन भी किया जाता है. लेकिन हमारे देश में एक इलाका ऐसा भी है, जहां हिंदू होने के बाद भी आबादी के एक हिस्से को दाह संस्कार से वंचित होना पड़ रहा है. और यह उस तबके की कहानी है जिसे श्मशान घाट का राजा माना जाता है.
उत्तर प्रदेश के कानपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर एक ग्राम पंचायत है, बुढ़वां. इसकी आबादी करीब 5,000 के आस-पास की है. बुढ़वां पहुंचने के रास्ते में कई कब्रें दिखती हैं. लेकिन ये मुसलमानों के कब्रिस्तान से अलग लग है. इसके बारे में स्थानीय लोगों से जो जानकारी मिलती है, वह आजाद और गणतांत्रिक भारत की एक अलग ही कहानी कहती हुई दिखती है.
इस गांव के निवासी और नोएडा स्थित माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के छात्र गौरव तिवारी बताते हैं, ‘इस इलाके में डोम समाज (मेहतर) के लोग किसी व्यक्ति के मरने पर उसे जलाते नहीं है बल्कि, उसे दफन करते हैं. ये केवल बुढ़वां तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके आस-पास के इलाकों में यह कुरीति वर्षों से पोषित हो रही है.’
इसी गांव की 50 वर्षीय चुन्नी देवी का कहना है कि, ‘आप यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि हम किसी पुरोहित को हमारे घर पूजा के लिए न्यौता देने जाएंगे और फिर वे आ भी जाएंगे! हमारी हिम्मत नहीं होती है कि उनको पूजा के लिए बुलाएं. जब वे कथा-वाचन के लिए हमारे घर नहीं आते हैं तो जन्म-मरण को तो और भी अछूत होने का मामला माना जाता है, उसमें (पंडित) कैसे आएंगे?’
कल्लूराम (65) बुढ़वां स्थित इंटर कॉलेज में सफाईकर्मी रह चुके हैं. इस कॉलेज में ऐसे नेताओं ने पढ़ाई की जिन्होंने लोकसभा और राज्य विधानसभा में इस क्षेत्र के लोगों का प्रतिनिधित्व किया है. इनमें समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद राकेश सचान, पूर्व बसपा विधायक आदित्य पाण्डेय और राज्य सरकार में मौजूदा जेल मंत्री जय कुमार सिंह जैकी शामिल हैं. लेकिन, कल्लूराम का मानना है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से इसका फायदा इस गांव को नहीं मिला है. इनमें जातिगत भेदभाव भी शामिल हैं.
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ये जातिगत भेदभाव केवल कथित उच्च जातियों के दलितों के घर आने-जाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि, इसका असर किसी मेहतर (डोम) जाति के अंतिम संस्कार पर भी पड़ता हुआ दिखता है. इस जाति के लोग अभी भी किसी के मरने पर उनके शव को जमीन में दफन करते हैं. ये जमीन सार्वजनिक यानी गांव-समाज की होती है, क्योंकि गांव में इसके लिए उनके पास रहने के अलावा अतिरिक्त जमीन नहीं होती.
शव को दफन करने को कल्लूराम जातिगत भेदभाव से अधिक परंपरा मानते हैं. वे हमें बताते हैं, ‘अब ये कब से चल आ रहा है, हमें नहीं मालूम. हमारे पहले से लोग ऐसा ही करते आ रहे हैं तो हम लोगों ने भी इसे आगे बढ़ा दिया.’
लेकिन गांव के अवध नारायण शुक्ल इसके पीछे की वजह बताते हैं. वे अपनी जिंदगी में 70 से अधिक बसंत-पतझड़ देख चुके हैं और जिसमें करीब 25 साल कथा वाचक के रूप में उन्होंने बिताया है. वे बताते हैं, ‘इनकी न तो पंडितों को बुलाने की हिम्मत पड़ती है और न ही बुलाते हैं और…. हमारा सोचना है कि ऊंच-नीच की बात के चलते इनके बुलाने से कोई ब्राह्मण जाएगा भी नहीं, इनके घर. इनके परिवार के सदस्य ही आपस में मिलकर सारे विधान (श्राद्ध कर्म) कर लेते हैं.’
इसके आगे वे मौजूदा परिस्थितियों की बात भी करते हैं. अवध नारायण कहते हैं, ‘गांव-देहात में एक बड़ा तबका (सवर्ण) झुकने को तैयार नहीं है और छोटा तबका (दलित) तो इनके साथ मिलने को तैयार है लेकिन इन्हें कोई समाज अपने में मिलाता नहीं है.’
वहीं, जब उनसे सवाल किया कि आप इन चीजों को समझ रहे हैं, क्या आपने अपनी ओर से मेहतरों के लिए कभी कोशिश की. इस पर उन्होंने अपना एक अनुभव बताया. ‘एक बार की बात है, हमें एक मेहतर ने अपने यहां एक कार्यक्रम में बुलाया था. मैं उसमें शामिल हुआ और उनके यहां पानी भी पी. लेकिन इसके बाद ब्राह्मण समाज ने सवाल उठा कि मैं इस तरह के कार्यक्रम में क्यों शामिल होता हूं?’
अवध नारायण शुक्ल की बात को पेशे से किसान और कानून की पढ़ाई कर चुके 54 वर्षीय अंबरीश मिश्रा आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं, ‘मेहतर छुआछूत के शिकार थे और श्मशान घाट पर जाना भी इनका वर्जित था. समस्या ये है कि यदि मैं किसी मेहतर के यहां जाकर कथा वाचन कर दूं तो मेरे समाज के लोग ही मेरा बहिष्कार कर देंगे. ये समाज अभी भी बहुत कठोर है.’
इसके आगे वे एक सामाजिक डर को भी संकेत के जरिए हमें बताने की कोशिश करते हैं. अंबरीश मिश्रा कहते हैं, ‘अब जैसे मैं मेहतर के यहां पूजा-पाठ करवाने जाऊं…..तो मेरी भी बेटी है, जिसकी शादी करनी है. ग्रामीण इलाकों में अब ये जल्दी खत्म होने वाला नहीं है.’ वे इसे एक कुरीति करार देते हुए कहते हैं कि राजा हरीशचंद्र डोम की नौकरी करते थे और डोम श्मशान घाट का राजा था. यदि पुराणों में ऐसी बात होती तो उसे घाट का अधिकार क्यों मिलता!
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वहीं, मेहतर समाज के भीतर भी एक हिस्सा ऐसा है जो शिक्षित है. लेकिन वे भी इसे एक परंपरा का रूप मानकर इसके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं कर रहे हैं. 40 साल के जयमोहन ब्लॉक सफाई कर्मचारी संघ के अध्यक्ष हैं. उन्होंने 12वीं तक की पढ़ाई की है. हमसे बातचीत के दौरान अवध नारायण शुक्ल के परिवार की एक महिला उनका परिचय एक शिक्षित और सभ्य व्यक्ति के रूप में देती हैं.
जयमोहन हमें बताते हैं कि मेहतर समाज में शिक्षा के प्रसार के बावजूद इनमें अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता नहीं आ पाई है. इन्होंने भेदभाव से पैदा हुई एक कुरीति को परंपरा का रूप दे दिया है. वे आगे कहते हैं, ‘कथा वाचन के लिए इस गांव के बाहर से पंडित आते हैं. वे घर में पूजा-पाठ कर देते हैं. लेकिन यहां के पंडित नहीं करते.’
जयमोहन से बात करने के बाद श्राद्ध कर्म करवाने वाले बलराम पंडित जी से संपर्क किया गया तो उन्होंने इस बारे में जानकारी न होने की बात कहकर कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर देते हैं.
वहीं, इस बारे में अवध नारायण शुक्ल का कहना है कि यदि मेहतर गांव के कथा वाचक को न्यौता देते हैं तो कहते हैं कि किसी देवालय में कथा वाचन करवाएंगे. इस तरह कार्यक्रम में केवल दलित समाज के लोग ही मौजूद होते हैं.
बुढ़वा और इसके आस-पास के इलाकों में आजादी के सात दशक बाद भी मेहतर समाज के लोगों को धार्मिक कार्यों के इतर बुनियादी चीजों के लिए भेदभाव सहना पड़ रहा है. ‘गांव में प्राथमिक इलाज करने वाले डॉक्टर्स जब इलाज के वक्त उन्हें छूते हैं तो उसके बाद स्नान करते हैं. कभी-कभी तो रात में दरवाजा खटखटाने पर वे इस डर से दरवाजा नहीं खोलते कि इलाज के बाद उन्हें नहाना पड़ेगा. इस स्थिति में हमें आस-पास के कस्बों में इलाज के लिए जाने को मजबूर होना पड़ता हैं. इसके लिए सवारी गाड़ी न होने से सुबह होने तक इंतजार करना होता है.’ चुन्नी देवी मेहतर समाज की व्यथा-कथा को अपने शब्दों में रखती हैं.
यानी बुढ़वां और इसके आस-पास के इलाकों में रहने वाले मेहतर न केवल जिंदगी के साथ भी जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ता है, बल्कि जिंदगी के बाद भी हिंदू धर्म की रीति से भी वंचित होना पड़ रहा है. इसके साथ वे इस भेदभाव को अभी भी एक परंपरा के रूप में मानते चले आ रहे हैं. वहीं, ब्राह्मण समाज का एक हिस्सा जो इसे एक कुरीति के रूप में देखता तो है, लेकिन वह भी अपने समाज से बहिष्कृत होने की आशंका से चुप बैठा है और इलाके में मेहतरों के बीच यह कुरीति या भेदभाव एक परंपरा के रूप में फल-फूल रही है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)