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Friday, 22 November, 2024
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52 स्वतंत्रता सेनानियों की फांसी का गवाह रहा ‘बावनी इमली’, कर रहा है राष्ट्रीय स्तर की पहचान का इंतजार

उत्तर प्रदेश के फतेहपुर में स्थित बावनी इमली घटना की तुलना स्थानीय लोग जालियांवाला बाग नरसंहार के साथ करते हैं.

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एक प्रौढ़ गणतंत्र के लिहाज से भारत के सामने कई चुनौतियां भी पैदा हुई हैं. इनमें फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती देश के नागरिकों की पहचान से जुड़ी हुई है. वहीं, आजाद भारत में विरोध प्रदर्शनों में ‘आजादी’ शब्द के इस्तेमाल को लेकर भी सरकार की भौहें तनी हुई दिख रही हैं.

आज भी एक आजाद राष्ट्र के रूप में हमारी पहचान भी जुड़ी हुई है. इस पहचान को हासिल करने में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को करीब 200 साल ब्रिटिश शासकों से दो-दो हाथ करने पड़े थे. इस लंबे संघर्ष में हमारे देश की मिट्टी ने कई नायक पैदा किए. इनमें से कई के नाम तो लोगों के जुबान पर हैं. वहीं, उस वक्त कई ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हुए जिन्होंने देश के लिए अपनी जिंदगी को न्योछावर तो कर दी. लेकिन, देश की जनता अभी भी करीब-करीब उनके नाम और कारनामों से अनजान ही है. इनमें एक बड़ा नाम अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह ‘अटैया’ और उनके 51 साथियों के हैं.

28 अप्रैल, 1858 को कर्नल क्रस्टाइज की घुड़सवार सेना द्वारा जोधा सिंह को उनके 51 क्रांतिकारी साथियों सहित बंदी बना लिया गया था. इसके साथ ही, उसी दिन इन सभी को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर स्थित खजुहा में एक इमली के पेड़ पर फांसी से लटका दिया था. इस पेड़ को अब ‘बावनी इमली’ के नाम से जाना जाता है. स्थानीय लोगों की मानें तो जब इन सभी को फांसी दी गई थी, उस वक्त से ही इस पेड़ का विकास थम सा गया है.

बताया जाता है कि अंग्रेजों ने लोगों को आतंकित करने के लिए सभी शवों को पेड़ से उतारने से मना कर रखा था. साथ ही, चेतावनी दी थी कि यदि ऐसा करने की कोई हिमाकत करेगा तो उसका भी यही अंजाम होगा. इसके चलते इन सभी क्रांतिकारियों के शव एक महीने से अधिक वक्त तक पेड़ में ही लटके रहे. इस दौरान इनके केवल कंकाल बचे हुए थे.

बावनी इमली के पास दर्ज ऐतिहासिक दस्तावेज की मानें तो अमर शहीद जोधा सिंह के साथी ठाकुर महाराज सिंह ने अपने 900 क्रांतिकारियों के साथ तीन-चार जून, 1858 की रात को इनके कंकाल को पेड़ से उतारकर गंगा नदी किनारे स्थित शिवराजपुर घाट पर अंतिम संस्कार किया.

ठाकुर जोधा सिंह राजपूत जाति से थे. वे उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के अटैया रसूलपुर गांव के निवासी थे. इस गांव की दूरी कानपुर से करीब 80 किलोमीटर है. बताया जाता है कि जोधा सिंह झांसी की रानी लक्ष्मी बाई से काफी प्रभावित थे. साथ ही, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की क्रांति में बढ़कर हिस्सा भी लिया था. इसमें फिरंगियों को मात देने के लिए उन्होंने गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिया था.


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इस दौरान उनकी सेना ने अंग्रेज अधिकारी कर्नल पावेल की हत्या की. वहीं, सात दिसंबर को रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला किया. इसके दो दिन बाद यानी नौ दिसंबर, 1857 को जहानाबाद (तत्कालीन तहसील) के तहसीलदार को बंदी बनाकर सरकारी खजाना लूट लिया. इन सारी घटनाओं से परेशान अंग्रेजों ने जोधा सिंह अटैया को डकैत घोषित कर दिया. बताया जाता है कि इस दौरान उन्हें अपनी गिरफ्त में लेने की लगातार कोशिश करते रहे. इस दौरान वे कई बार अंग्रेजों को चकमा देने में सफल रहे थे. हालांकि, जैसा कि कई स्वतंत्रता सेनानियों के साथ हुआ था, वैसा ही जोधा सिंह के साथ भी हुआ. वे 28 अप्रैल, 1858 को अपने 51 साथियों के साथ खजुहा लौट रहे थे. उसी वक्त एक मुखबिर की सूचना पर अंग्रेज अधिकारी कर्नल क्रिस्टाइल ने सभी को एक साथ बंदी बना लिया और उसी दिन सभी को एक साथ फांसी पर लटका दिया था.

बावनी इमली के बारे में एक राष्ट्रीय दैनिक के लिए काम कर चुके पत्रकार विनोद दुबे हमें बताते हैं, ‘बहुत सारे लोगों ने तो उस पेड़ (बावनी इमली) की डालें वगैरह काट ली थीं. आज से 30-35 साल पहले जब मैं पत्रकारिता करता था. इस विरासत को मैंने लोगों के बीच ले जाने की कोशिश की. उस वक्त केंद्रीय मंत्री हरि कृष्ण शास्त्री ने भी इसे राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने की काफी कोशिश की थी.’ हरि कृष्ण शास्त्री पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बेटे थे और फतेहपुर से सांसद रह चुके थे. इसके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का संसदीय क्षेत्र भी फतेहपुर ही रहा है. लोकसभा में वे दो बार (1989-91 और 1991-96) इस क्षेत्र के प्रतिनिधि थे.

हालांकि, वे इसकी पहचान को आगे बढ़ाने पर स्थानीय जनप्रतिनिधियों की नीयत को लेकर निराशा जाहिर करते हैं. विनोद दुबे कहते हैं, ‘स्थानीय नेता यहां (बावनी इमली) आते रहते हैं…..और चुनावों से पहले लोगों से इसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का वादा भी करते हैं. लेकिन होता कुछ नहीं हैं.’


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उनकी बातों की पुष्टि शहीद स्मारक स्थल के पास जाने से भी होती है. यहां अलग-अलग शिलान्यासों और उद्घाटनों के लिए कई शिलापट्ट लगे हुए हैं. लेकिन बावनी इमली स्मारक के आस-पास अव्यवस्था और साफ-सफाई नहीं है. कुछ साल पहले पर्यटकों के बैठने के लिए बने हुए चबूतरे भी टूटे हुए दिखते हैं. फिलहाल यह शहीद स्थल वन विभाग के प्रबंधन में है. वन विभाग के एक अधिकारी नाम न बताने की शर्त पर हमें बताते हैं कि इसकी देख-रेख के लिए अलग से कोई फंड नहीं दिया जाता है. साथ ही, इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उन पर ही है.

वहीं, स्थानीय लोग बावनी इमली को अपनी एक समृद्ध ऐतिहासिक विरासत बताते हैं. इनका कहना है कि एक साथ 52 सेनानियों को फांसी दी गई. इतना बड़ा नरसंहार तो जालियांवाला बाग (1919) में ही हुआ था. लेकिन, देश की अधिकांश आबादी इससे अभी भी अंजान है और ठाकुर जोधा सिंह अटैया से भी, जिन्हें आजाद भारत में अभी भी व्यापक स्तर पर पहचान का इंतजार है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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