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Wednesday, 6 November, 2024
होमइलानॉमिक्सनिर्मला सीतारमण को बजट में विश्वसनीय आंकड़ों के साथ राजकोषीय अनुशासन पर ज़ोर देना चाहिए

निर्मला सीतारमण को बजट में विश्वसनीय आंकड़ों के साथ राजकोषीय अनुशासन पर ज़ोर देना चाहिए

राजकोषीय विस्तार वैसे तो अर्थव्यवस्था में सुस्ती के दौरान ही किया जाना चाहिए, पर उन आंकड़ों के आधार पर चर्चा बेमतलब है जिन पर कि लोग यकीन नहीं करते हों.

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केंद्रीय बजट सरकार के लिए महज़ लेखाजोखा और धन के आवंटन का कार्य ही नहीं है. यह नीतिगत बदलावों, वित्तीय क्षेत्र के नियमन संबंधी सुधारों, कर नीति संबंधी सुधारों, और पूंजी प्रवाह को लेकर भारत के खुलेपन के इज़हार का भी अवसर है.

बजट 2020 ऐसे माहौल में पेश किया जा रहा है जब राजकोषीय स्थिति के मद्देनज़र वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास बहुत सीमित विकल्प उपलब्ध हैं.

सर्वप्रथम और सबसे अहम, वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था की हालत की चिंता करनी है. मुद्रास्फीति, विकास, निवेश, रोज़गार और भुगतान संतुलन किसी भी अर्थव्यवस्था के प्रमुख पहलू होते हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था को भुगतान संतुलन के संकट का सामना नहीं है, पर बाकी चार मोर्चों पर दबाव की स्थिति है.

सीतारमण को सार्वजनिक ऋण के बोझ को अव्यवहार्य स्तर पर ले जाए बिना मांग बढ़ाने की मुश्किल कवायद करनी है. राजकोषीय घाटा पहले ही बहुत अधिक है, और यदि विकास दर सरकार द्वारा लिए जाने वाले उधार की दर से नीचे चली जाती है, तो सार्वजनिक ऋण की मात्रा अवहनीय हो जाएगी. वर्तमान में, अनुमानित सांकेतिक जीडीपी विकास दर 7.5 प्रतिशत रहने की संभावना है. दस वर्षीय बॉन्ड पर रिटर्न 6.6 प्रतिशत के आसपास है. इसलिए वर्तमान में सार्वजनिक ऋण वहनीय स्तर पर है.

इस बात को लेकर खूब बहस हो रही है कि बजट 2020 को विस्तारवादी होना चाहिए या नहीं. जहां अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि जीडीपी विकास में गिरावट हुई है और मौद्रिक नीति की अपनी सीमाएं हैं, पर उन्हें चिंता है कि अधिक बजट घाटे से सार्वजनिक कर्ज के अवहनीय बनने की आशंका बढ़ सकती है और कर्ज के मुकाबले जीडीपी का अनुपात विस्फोटक स्थिति में पहुंच सकता है. ये चिंता अनुचित नहीं है.

अधिक राजकोषीय घाटे से ब्याज़ दरों के बढ़ने का खतरा रहता है. यदि ब्याज़ दर जीडीपी विकास दर से ऊपर जाती है, तो सार्वजनिक ऋण जीडीपी की मुकाबले अधिक तेजी से बढ़ता है, और सार्वजनिक ऋण की स्थिरता को दर्शाने वाला सार्वजनिक ऋण/जीडीपी अनुपात बढ़ना शुरू हो सकता है. वर्तमान में, ब्याज़ दरों पर दबाव अधिक नहीं है, क्योंकि निजी क्षेत्र में कर्ज़ की मांग कम है. पर अगर मांग बढ़ने लगे तो यह स्थिति बदल सकती है.

मांग बढ़ाने के लिए सीतारमण को ये कदम उठाने चाहिए

मांग बढ़ाने के लिए वित्त मंत्री को क्या कदम उठाने चाहिए? विस्तारवादी राजकोषीय और मौद्रिक नीतियां मांग बढ़ाने के लिए नीति-निर्माताओं के हाथों में सबसे आसान औजार होती हैं. लेकिन इस समय इनमें से कोई भी आदर्श साधन नहीं है.
7.5 प्रतिशत के स्तर पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति के निर्धारित लक्ष्य 4 प्रतिशत से काफी अधिक है. यह लक्ष्य के लिए रखी गई 2 प्रतिशत की अतिरिक्त गुंजाइश की तुलना में भी अधिक है.

हालांकि अधिक संभावना यही है कि मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों और उसमें भी सब्जियों की महंगाई के कारण बनी यह मुद्रास्फीति अल्पकालिक है, लेकिन यह भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति को ढिलाई बरतने देने से रोके रख सकती है. साथ ही, और अधिक विस्तारवाद पर विचार करने से पहले हमें मौद्रिक नीति का प्रभावी संचरण सुनिश्चित करने के उपाय करने होंगे.

बैंकिंग और बॉन्ड मार्केट के सुधारों समेत वित्तीय सेक्टर के सुधारों पर लंबे समय से विचार किया जा रहा है. इस मुद्दे पर आगे कदम बढ़ाने के लिए वित्त मंत्री को कानूनों में ज़रूरी बदलावों की पहल करनी होगी.

जीडीपी वृद्धि में सुस्ती, कर संग्रह में कमी, विनिवेश संबंधी कठिनाइयों और जीएसटी की समस्याओं के कारण राजकोषीय पहलकदमियों के विकल्प सीमित हैं. सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में, सार्वजनिक निवेश पर सरकारी खर्च बढ़ाना उचित रहेगा. लेकिन सीतारमण को ऐसा करने के नए तरीके खोजने होंगे, ताकि राजकोषीय घाटा बहुत ज्यादा न बढ़ जाए. साथ ही फिर से बाजार का भरोसा हासिल करने के लिए उन्हें सरकारी घाटे और कर्ज को लेकर पारदर्शिता बरतने की भी जरूरत है. तभी वह वहनीय दरों पर ऋण जुटा सकती हैं.

नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के अनुसार बीते वर्षों में ऋण का स्तर राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम के तहत निर्धारित लक्ष्य से अधिक था, शायद जीडीपी के 2 प्रतिशत अंक तक अधिक. वैसे तो राजकोषीय विस्तार अर्थव्यवस्था में सुस्ती के दौरान ही किया जाना चाहिए, पर उन आंकड़ों के आधार पर चर्चा बेमतलब है जिन पर कि लोग यकीन नहीं करते हों.

इसलिए, वित्त मंत्री की पहली चुनौती विश्वसनीय आंकड़े पेश करने की है, और फिर लोगों को यह समझाने की कि वह राजकोषीय अनुशासन अपनाने के लिए प्रतिबद्ध है, भले ही वह इसके विपरीत अधिक ऋण जुटाती हों.

कर व्यवस्था का सरलीकरण

क्या वित्त मंत्री राजकोषीय घाटे में खासा विस्तार किए बिना मांग बढ़ाने के लिए कदम उठा सकती है? यह आगे सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य साबित हो सकता है, लेकिन कर और नियामक प्रक्रियाओं को आसान बनाकर शुरुआत की जा सकती है, जिसने कि निजी निवेश को हतोत्साहित किया है. निवेशकों के उत्साह को कम करने वाली कर अधिकारियों की बढ़ी हुई शक्तियों में से कुछ पर पुनर्विचार किया जा सकता है.

ये महत्वपूर्ण है कि कर दरों में किसी तरह की और वृद्धि का प्रस्ताव नहीं किया जाए, क्योंकि इससे अनिश्चितता बढ़ती है, टैक्स आधार कम होता है, विकास दर नीचे आती है. कर दरों को बढ़ाकर और कर अधिकारियों को अधिक ताकत देकर कर राजस्व बढ़ाने की रणनीति कामयाब नहीं रही है. इसके विपरीत इस रणनीति ने निवेशकों के आत्मविश्वास को और जीडीपी को कम करने का काम किया है.

वास्तव में ये कम कर दरों और कर अधिकारियों के छापे मारने के अधिकारों में कटौती की वैकल्पिक रणनीति अपनाने का वक्त है, जिसमें कम हस्तक्षेप और अधिक तार्किक कर नीति के लिए डेटा विश्लेषण पर ज़ोर हो.

(लेखिका एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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