पाकिस्तान में सामाजिक पाखंड के ऊपर फिल्म बनाने पर सिर्फ इस वजह से तमाशा खड़ा हो सकता है कि इसका मुख्य किरदार दाढ़ी रखता है, जो कि एक मजहबी पार्टी की नजर में इस्लाम की तौहीन है. ‘ज़िंदगी तमाशा’ के निर्माता को इसकी रिलीज टालने की सलाह देकर इमरान ख़ान सरकार ने एक तरह से अति दक्षिणपंथी संगठन तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान के आगे घुटने टेक दिए हैं. यह फिल्म पिछले साल बुसान फिल्म महोत्सव में प्रतिष्ठित किम जी-सोक अवार्ड पा चुकी है. इस उपलब्धि को हासिल करने वाली ये पहली पाकिस्तानी फिल्म है.
निर्माता निर्देशक सरमद खूसट को यूट्यूब पर फिल्म का प्रोमो रिलीज करने के दिन से ही धमकियां मिल रही हैं. तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) ने प्रोमो जारी होते ही फिल्म और खूसट दोनों ही के खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान छेड़ दिया था. टीएलपी ने फिल्म को इस्लामी रिवाजों और मूल्यों के लिए अपमानजनक करार दिया है.
पाकिस्तान के तीनों सेंसर बोर्डों ने ‘ज़िंदगी तमाशा’ की समीक्षा के बाद सर्वसम्मति से इसे 24 जनवरी को रिलीज करने की मंजूरी दे दी थी, पर मंगलवार को अचानक फैसला पलट दिया गया. ऐसा टीएलपी के राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़ने की धमकी और सरमद के फोन नंबर और राष्ट्रीय पहचान-पत्र को सार्वजनिक किए जाने के मद्देनजर किया गया.
क्या ये पाकिस्तान के लिए नई बात है? नहीं, यह देश मजहबी अतिवाद का सामना होने पर अनेकों बार अपना दोहरा चरित्र दिखा चुका है.
बनावटी आक्रोश
इस पूरे मामले में एक अहम तथ्य ये है कि खूसट और फिल्म के खिलाफ टीएलपी का अभियान बनावटी आक्रोश का एक क्लासिक उदाहरण है. पर सिर्फ फिल्मी हस्तियों और प्रगतिशील जमातों ने ही इसके विरोध में आवाज उठाई है.
पाकिस्तान में आमतौर पर दिखने वाले इस्लामी आक्रोश के विपरीत इस मुद्दे पर अधिकांश पाकिस्तानियों ने अपने गुस्से का इजहार नहीं किया और उदासीन बने रहे जिन्होंने अपनी बात सामने रखी, उन्होंने अपनी आज़ादी मुल्लों के हवाले किए जाने पर हताशा का इजहार किया.
और, इमरान ख़ान सरकार ने निर्माता को सुरक्षा उपलब्ध कराने तथा ‘ज़िंदगी तमाशा’ को निर्धारित तिथि पर रिलीज होने देने के बजाय अतिवादी तत्वों के तुष्टिकरण और संरक्षण का विकल्प चुना, जिनकी कि उन्हें भविष्य में ज़रूरत पड़ सकती है. इस दुखद घटनाक्रम से ये भी जाहिर होता है कि आतंकवाद को कुचलने की क्षमता प्रदर्शित कर चुका पाकिस्तान अभी भी अतिवाद को महत्व देता है और उसका पोषण करता है, जबकि अतिवाद ही आतंकवाद का आधार है.
असल ज़िंदगी का तमाशा
खूसट और निजी स्तर पर प्रदर्शनों के दौरान फिल्म देख चुके लोगों ने मुझे बताया कि ‘ज़िंदगी तमाशा’ में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिससे इस्लाम की तौहीन का संकेत तक मिलता हो. मुख्य किरदार एक मजहबी और ‘मुनासिब रूप से मुस्लिम’ व्यक्ति है जिसे नात (पैगंबर मोहम्मद की शान में गायन) गाने का भी शौक है. पत्नी और बच्चों के साथ रहने वाला यह मेहनती, रहमदिल और शरीफ़ व्यक्ति पेशे से एक प्रॉपर्टी एजेंट है.
खूसट ने हैरानी व्यक्त की कि समाज के एक रूढ़िवादी और मजहबी सदस्य के नरम और कहीं अधिक मानवीय पहलू का चित्रण करने वाली फिल्म पर भी अपमानजनक होने की तोहमत लगाई जा सकती है. उनकी फिल्म समाज के पाखंड के खिलाफ टिप्पणी भी है.
मानो इतना ही काफी नहीं था, कि संघीय सूचना मंत्री ने ये भी घोषणा कर दी कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) ने इस फिल्म पर रूढ़िवादी संस्था इस्लामी वैचारिक परिषद (सीआईआई) की राय लेने का फैसला किया है.
ट्रिब्यून अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार फिल्म की समीक्षा के लिए होने वाली स्क्रीनिंग में टीएलपी के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाएगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि उन्हें ऐसा करने या सरकारी संस्थाओं के फैसलों को प्रभावित करने का कोई विधिक अधिकार नहीं है.
सरकार के रवैये पर आम लोगों ने असंतोष और गुस्से का इजहार किया है. कइयों ने अतिवादियों के समक्ष सरकार के घुटने टेकने को भी ‘ज़िंदगी तमाशा’ करार दिया है.
#Breaking: One representative of Tehreek-i-Labbaik Pakistan (TLP) and one representative of information ministry will participate in the second preview #ZindagiTamasha
https://t.co/2AoOF4x471— Rafay Mahmood (@Rafay_Mahmood) January 21, 2020
दोमुंहापन
याद करें कि बस सालभर पहले ही कैसे इमरान ख़ान सरकार ने टीएलपी को आड़े हाथों लिया था जब उसने ईशनिंदा की आरोपी आसिया बीबी को रिहा करने के फैसले को चुनौती दी थी.
उस समय टीएलपी ने प्रधानमंत्री ख़ान के इस्तीफे की मांग की थी, और जजों की हत्या किए जाने तथा जनरल क़मर जावेद बाजवा को उखाड़ फेंकने के लिए सेना में विप्लव का आह्वान किया था. उस आह्वान और हिंसक प्रदर्शनों के आरोप में पिछले सप्ताह टीएलपी नेता खादिम रिज़वी के भाई और भतीजे समेत उसके 86 सदस्यों को कुल 55 वर्ष कैद की सजा सुनाई गई थी.
लेकिन जब अपनी पसंद की फिल्में देखने की लोगों की आज़ादी की बात आती है तो इमरान ख़ान सरकार तुष्टीकरण पर उतर आती है और अतिवादियों को गड़बड़ी फैलाने की छूट देती है.
प्रसिद्ध पाकिस्तानी उपन्यासकार मोहम्मद हनीफ़ इस बारे में कहते हैं, ‘एक तरफ तो हमें कहा जाता है कि हम आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जीत चुके हैं, और हमने इस युद्ध में हज़ारों लोगों की कुर्बानियां दी हैं, जबकि दूसरी तरफ सरकार उलेमा को ये तय करने दे रही है कि हम क्या देख सकते हैं. ऐसे में सेंसर बोर्ड की क्या जरूरत है, सारे फैसले उलेमा पर ही क्यों नहीं छोड़ देते? उन्हीं को दिखाकर इजाज़त ले लिया करेंगे.’
ये स्पष्ट है कि सरकार जब चाहे टीएलपी को नियंत्रित कर सकती है, और ज़रूरत पड़ने पर खुला छोड़ सकती है. वर्ष 2017 के उत्तरार्द्ध में टीएलपी को हिंसक प्रदर्शनों और जुड़वां शहरों रावलपिंडी एवं इस्लामाबाद को जोड़ने वाले मुख्य रास्तों में बाधा खड़ी कर शाहिद खाक़ान अब्बासी सरकार को तीन हफ्ते तक बंधक बनाकर रखने की छूट दी गई थी. और मदद के लिए रेंजर्स की तैनाती के तत्कालीन गृहमंत्री के आग्रह की सेना प्रमुख ने बिल्कुल अनसुनी कर दी थी.
इसके बजाय जनरल बाजवा ने ये सलाह दी थी कि ‘सरकार को जवाबदेही तय करनी चाहिए और ख़त्मे नबूवत शपथ संबंधी कानून से जुड़े लोगों को दंडित करना चाहिए.’ जब टीएलपी और सरकार के बीच विरोध प्रदर्शन ख़त्म करने को लेकर समझौता हुआ तो आईएसआई के एक जनरल को एक वीडियो में टीएलपी कार्यकर्ताओं के बीच कथित रूप से इनाम राशि बांटते और ये कहते पाया गया कि ‘क्या हम आपके साथ नहीं हैं?’
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(लेखिका पाकिस्तानी स्तंभकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)