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Friday, 22 November, 2024
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नागरिकता आंदोलन का नेता कन्हैया नहीं, चंद्रशेखर को होना चाहिए

कन्हैया कुमार की आवाज उन लोगों के बीच ही गूंज रही है, जो पहले से मोदी और बीजेपी के विरोधी हैं, जबकि चंद्रशेखर आजाद नागरिकता कानून को दलित-आदिवासी विरोधी बताकर बीजेपी के हिंदू-मुसलमान खेल को तोड़ते हैं.

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नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद में पास हुए लगभग सवा महीने हो चुके हैं. इस कानून यानी सीएए और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के राष्ट्रीय स्तर पर लागू होने की आशंका को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे आंदोलन को भी लगभग इतने ही दिन हो चुके हैं. जनता की व्यापक हिस्सेदारी के मामले में इस आंदोलन की तुलना नब्बे के दशक के शुरुआती दौर के राम मंदिर आंदोलन या मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन से की जा रही है.

राममंदिर या मंडल कमीशन से जुड़ा आंदोलन मुख्य रूप से देश के उत्तरी और पश्चिमी इलाके में ही सीमित था. वहीं सीएए-एनआरसी से जुड़ा आंदोलन राष्ट्रव्यापी है और शायद पहली बार पूर्वोत्तर के राज्य भी किसी राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हैं. मंदिर और मंडल से पहले, 1974 और 1977 के बीच हुए इमरजेंसी विरोधी आंदोलन का इसी तरह का राष्ट्रीय स्वरूप था, लेकिन उस समय इतनी बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर नहीं थे और वह आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक दलों द्वारा संचालित था.

इस आंदोलन का नेता कौन?

कोई भी आंदोलन आम तौर पर ढेर सारे नारे, प्रतीक और कुछ नेता पैदा करता है. हालांकि, सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन के बारे में ऐसा कहा जा रहा है कि इसमें कोई नेता नहीं है और जनता ही नेता है. इसके बावजूद आंदोलन से जुड़े कुछ चेहरे बार-बार मीडिया और सोशल मीडिया में नजर आ रहे हैं. कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कन्हैया कुमार और भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर आजाद ऐसे ही नेताओं में शामिल हैं, जिनकी इस आंदोलन में काफी चर्चा है.


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अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया है कि नागरिकता कानून से जुड़े विरोध प्रदर्शनों के दौरान ‘कन्हैया कुमार मोदी के लिए प्रमुख समस्या और राजनीतिक चुनौती बन कर उभरे हैं.’ इस रिपोर्ट में प्रधानमंत्री के किसी अनाम सहयोगी के हवाले से लिखा गया है कि ‘युवाओं और पहली बार वोट देने वालों के बीच कन्हैया कुमार की लोकप्रियता ने मोदी को चिंतित कर दिया है.’

कन्हैया कुमार से बीजेपी को डर क्यों नहीं लगता?

ये सही है कि कन्हैया कुमार को रैलियों में खूब सुना जा रहा है और उनके चुटीले भाषणों और आजादी वाले नारों पर लोग खूब तालियां बजा रहे हैं. लेकिन क्या ये वही लोग नहीं हैं जो पहले से ही नरेंद्र मोदी और बीजेपी के विरोधी हैं? कन्हैया कुमार के भाषण मोदी विरोधियों, खासकर वामपंथियों और मुसलमानों के बीच ही लोकप्रिय हैं.

कन्हैया कुमार की बातें दरअसल एक ऐसे कमरे में हो रही हैं, जिसमें आवाज गूंजती है. यहां लोगों को अपनी ही आवाज की गूंज सुनाई देती है. ऐसे ‘एको चैंबर’ और उसमें गूंजने वाले मोदी विरोधी और आजादी वाले नारों से नरेंद्र मोदी या बीजेपी को कोई भी समस्या क्यों होगी? मुसलमानों का बड़ी संख्या में कन्हैया को सुनने के लिए आना बीजेपी के लिए किसी भी समस्या का कारण नहीं हो सकता. इससे बीजेपी की सामाजिक समीकरण कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ता, जिसके दम पर बीजेपी 300 से ज्यादा सांसदों के साथ सत्ता में है.

कन्हैया कुमार जिस सामाजिक समूह यानी सवर्ण हिंदू समूह से हैं, उसका व्यापक समर्थन नरेंद्र मोदी और बीजेपी को हासिल है. सीएसडीएस के सर्वे में ये बात साबित भी हुई है कि बीजेपी को सबसे ज्यादा समर्थन सवर्ण हिंदुओं से मिलता है. कन्हैया कुमार क्या सवर्ण हिंदुओं के बीच जाकर उनको नरेंद्र मोदी खेमे से बाहर खींच लाने की कोशिश कर रहे हैं? ऐसा लगता तो नहीं है. वे मुख्य रूप से मुसलमानों के बीच जा रहे हैं.

बीजेपी को दिक्कत तब होगी जब सवर्ण हिंदू या एससी-एसटी और हिंदू ओबीसी उससे छिटके. यही बीजेपी का सामाजिक आधार हैं. ये काम कन्हैया कुमार नहीं कर सकते. इसलिए बीजेपी सरकार को कन्हैया कुमार के देश भर में घूमकर भाषण देने से कोई समस्या नहीं है. उसने कन्हैया कुमार पर कोई मुकदमा नहीं किया है न उनके आने-जाने पर कोई रोक लगाई है.

बीजेपी की समस्या चंद्रशेखर आजाद हैं

कन्हैया कुमार के विपरीत, बीजेपी सरकार चंद्रशेखर आजाद को लेकर काफी सख्त है. बीजेपी के लिए कन्हैया के सैकड़ों भाषण पर चंद्रशेखर आजाद की वह तस्वीर भारी है, जिसमें वो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े होकर संविधान की प्रस्तावना पढ़ रहे हैं और कह रहे हैं कि सीएए-एनआरसी से सबसे ज्यादा समस्या आदिवासियों और दलितों को होगी, क्योंकि उनके पास कागज नहीं होते. इसके कुछ घंटों के अंदर ही आजाद को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्होंने तीन हफ्ते से ज्यादा समय जेल में बिताया है. इस दौरान उनके एम्स में इलाज कराने की मांग का भी विरोध किया गया और कोर्ट के आदेश के बाद ही उनका इलाज हो पाया. जेल से उनकी आजादी भी सशर्त रही कि वे दिल्ली नहीं आएंगे. हालांकि, बाद में जमानत की शर्तों में सुधार किया गया, फिर भी उन पर कई शर्तें लगी हुई हैं.


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चंद्रशेखर आजाद को लेकर सरकार की सख्ती बताती है कि सरकार आजाद को इस आंदोलन से दूर रखना चाहती है. इस बीच दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में एक दीवार पर आजाद की एक बड़ी पेंटिंग बना दी गई है, जहां लोग सेल्फी ले रहे हैं.

चंद्रशेखर आजाद को लेकर इतनी सख्ती क्यों?

इसकी चार वजहें हैं –:

1. चंद्रशेखर आजाद के आंदोलन के केंद्र में रहने से बीजेपी की ये कोशिश कमजोर पड़ती है, जिसमें वो ये बता रही है कि नागरिकता को लेकर चल रहा आंदोलन मुसलमानों का मामला है. हिंदू बनाम मुसलमान द्वैत या बाइनरी बीजेपी की राजनीति का मूल तत्व है और चंद्रशेखर आजाद जब कहते हैं कि ये कानून दलितों और आदिवासियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा, तो बीजेपी को इससे दिक्कत होती है.

2. चंद्रशेखर आजाद की मुख्य अपील दलित युवाओं में है. इनका एक हिस्सा बीजेपी के साथ है. अगर आजाद बीजेपी के इस आधार में सेंध लगाने की कोशिश करते दिखते हैं तो बीजेपी को इससे दिक्कत होती है. गौरतलब है कि नाराज दलितों को अपने पाले में लाने के लिए बीजेपी इन दिनों आंबेडकर नवोदय विद्यालय खोलने जैसे कदमों पर विचार कर रही है.

3. आजाद राजनीति में नए हैं. उनकी लोकप्रियता और असर की परीक्षा अभी होनी है. कन्हैया एक बार खुद को लोकसभा चुनाव में आजमा चुके हैं और हार चुके हैं. हो सकता है कि आजाद भी फेल हो जाएं, लेकिन अभी वे संभावनाओं वाले व्यक्तित्व हैं.

4. कन्हैया को अपने सामाजिक समूह का समर्थन नहीं है. आजाद के बारे में अभी ये नहीं कहा जा सकता. वे दलितों के उभरते हुए नेता हैं.

इन आधारों पर मैं ये कहने का जोखिम लेना चाहता हूं कि सीएए-एनआरसी आंदोलन के बेहतर प्रतीक कन्हैया नहीं, आजाद हैं. कम से कम मोदी सरकार इस बात को बहुत अच्छे से समझती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)

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