मोदी सरकार को अभी यह एक सबक सीखना बाकी है कि आर्थिक समस्याओं के समाधान मन की बात के विरुद्ध भी हो सकते हैं. दूसरे शब्दों में, ये समाधान वे नहीं भी हो सकते हैं जो सबसे पहले आपके दिमाग में उभरते हैं. नोटबंदी के मामले में हम यह देख चुके हैं. जरूरी नहीं है कि तमाम जमा नकदी पर हमला करना ही काले धन का समाधान हो. सारे पुराने नोट तो रिजर्व बैंक में वापस आ गए. इसी तरह, करों की दरें बढ़ाने से कर उगाही में कमी की समस्या हल नहीं हो सकती, जिसका सुझाव जीएसटी के संदर्भ में दिया गया था. न ही व्यापार घाटे की समस्या का समाधान आयातों के लिए दरवाजे बंद करके हो सकता है.
1991 के अनुभव ने दिखाया है कि बड़े व्यापार घाटे को अर्थव्यवस्था के उदारीकरण से ही पूरा किया जा सकता है, न कि इसके चारों ओर मजबूत दीवारें खड़ी करके. और निर्यात को बढ़ावा देने का बेहतर तरीका यही है कि निर्यात सब्सिडियां खत्म की जाएं और रुपये के बाहरी मूल्य का समायोजन किया जाए.
हाल के अनुभव तो यही बताते हैं कि ऐसी सीखों से कोई सबक नहीं लिया गया है. इसलिए, दवाओं के दाम बढ़े तो उनकी कीमतों पर सीलिंग लगा दी गई. सितंबर में देश में प्याज के दाम बढ़े तो उनके निर्यात पर रोक लगा दी गई. जैसा कि डोनाल्ड ट्रंप की व्यापार नीतियों के आलोचकों ने बताया, चीन से आने वाले सामान पर अतिरिक्त आयात शुल्क लगाने से घरेलू सप्लाई की लागत बढ़ गई (जेपी मॉर्गन ने हिसाब लगाया है कि इससे औसत परिवार के बजट पर सालाना 1000 डॉलर का बोझ बढ़ा). भारत में भी इस तरह का हिसाब लगाया जाना चाहिए कि स्टील के आयात पर अतिरिक्त शुल्क लगाने से कुल लागत क्या हो जाएगी, भारत को मोबाइल फोन जैसी चीजों का मैनुफैक्चरिंग का केंद्र बनाने के लिए शुल्कों में जो वृद्धि की जाएगी और निर्यात पर जो सब्सिडी दी जाएगी उसका बोझ कितना होगा. ‘अन्य’ वाली श्रेणी की चीजों के आयात पर जो अतिरिक्त शुल्क लगाया जाएगा उसकी लागत क्या होगी. मलेशिया से पाम ऑइल और तुर्की से पेट्रोलियम आयात पर रोक लगाने से उपभोक्ताओं पर कितना बोझ पड़ेगा, आदि-आदि.
इसके अलावा, जेफ बेजोस और अमेज़न के खिलाफ चिड़चिड़ाहट भरे बयान भी गौरतलब हैं. उनके विश्व व्यापार का कितना बड़ा भाग उनकी अपनी कंपनी के अंदर का मामला है और अंतरराष्ट्रीय सप्लाई चेन में शामिल होना कितना अहम है. इन बातों के मद्देनजार बेजोस ने 10 अरब डॉलर मूल्य के अतिरिक्त निर्यात का जो वादा किया है उसका तो सरकार को स्वागत करना चाहिए था या उस पर शांत रहना चाहिए था. लेकिन उसकी प्रतिक्रिया दोस्ताना तो दूर, इस बात से प्रभावित थी कि बेजोस उस अखबार के मालिक हैं जिसने मोदी सरकार की आलोचना की है और वह उन छोटे व्यापारियों के दबाव से भी प्रभावित है जिन्हें डर लग रहा है कि उन्हें बेहद अमीर कंपनी से मुक़ाबला करना पड़ेगा. लेकिन प्रतिस्पर्धा आयोग ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए ही तो बनाया गया था, बेशक वह जरूरत पड़ने पर सक्रिय नहीं होता (मसलन, जियो के मामले को ही लें).
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बड़ा मुद्दा यह है कि छोटे दुकानदार बड़ा सप्लाइ चेन बनाने की क्षमता नहीं रखते, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों को आपूर्ति दे सकें, न ही वे उत्पादन का ऐसा आधार तैयार करने की क्षमता रखते हैं जो बेहतर रोजगार के अवसर पैदा कर सकें. यानी एक बार फिर रणनीतिक चूक हो गई है.
एक विशेष उदाहरण झारखंड ने पेश किया है, जहां सरकार गारमेंट उद्योग में नियोक्ता को हरेक कर्मचारी की भर्ती पर प्रति माह 5,000 की दर से सब्सिडी देती है. बेशक यह देश के गारमेंट उद्योग में प्रतिस्पर्धा के अभाव को दर्शाता है. याद रहे कि मजदूरी की लागत इस अभाव का सबसे अहम कारण नहीं हो सकती, क्योंकि चीन में मजदूरी की लागत ज्यादा है इसके बावजूद वह दुनिया में सबसे बड़ा गारमेंट निर्यातक है. हालांकि सब्सिडी पर इस उद्योग की तरफ से सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल रही है, लेकिन इस बात पर संदेह होना चाहिए कि वास्तव में यह ‘अच्छी खबर’ देने वाली कहानी है या नहीं.
उद्योग तभी निवेश करता है जब उसे काफी बड़ा प्रोत्साहन मिलता है, लेकिन करदाताओं के पैसे का बेहतर इस्तेमाल हो सकता है अगर प्रतिस्पर्धा के अभाव के कारणों का इलाज किया जा. जैसे एक कारण यह है कि भारत की मुद्रा की हवाई ऊंची कीमत ने भारत को दुनिया के बाज़ार से बाहर कर दिया है. तर्क दिया जा सकता है कि कभी-कभी सर्वश्रेष्ठ ही श्रेष्ठ का दुश्मन बन जाता है, खासकर तब जब कि सर्वश्रेष्ठ को हासिल करना कठिन हो जाता है. लेकिन इस तरह के बहुत ज्यादा आलसी समझौते उस तरह की ऊंची लागत वाली अर्थव्यवस्था का निर्माण करते हैं जिसमें हम लंबे समय से जी रहे हैं और जिससे आगे बढ़ना हमने अभी शुरू ही किया था.
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