पिछले कुछ महीनों में अल्जीरिया, चिली, हांगकांग (चीन), कोलंबिया, चेक रिपब्लिक, इक्वाडोर, सूडान, इराक, ईरान, लेबनान, फ्रांस, स्पेन और अब भारत में लाखों की संख्या में जनता सड़कों पर उतरी. कई देशों के शासनाध्यक्षों-प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति को इस्तीफा देना पड़ा. कुछ देशों में नए चुनावों की घोषणा करनी पड़ी, कहीं नए संविधान के निर्माण के लिए जनमत संग्रह कराने का ऐलान करना पड़ा. कुल मिलाकर, सरकारों को पीछे हटना पड़ा और जनता की मांगों को किसी न किसी हद तक स्वीकार करना पड़ा.
ये ऐसे विरोध प्रदर्शन थे, जो कई महीनों तक देशव्यापी स्तर पर चलते रहे और अभी भी चल रहे हैं. कुछ देशों में इन प्रदर्शनों को सरकारों ने कुचलने का प्रयास किया. सैकड़ों प्रदर्शनकारी मारे गए, घायल हुए और जेल गए. लेकिन प्रदर्शन रुके नहीं. सरकारों को प्रदर्शनकारियों से समझौता वार्ता करनी पड़ी. ज्यादातर देशों में प्रर्दशनकारियों की मुख्य मांगें हैं- सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक शासन और लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना.
2019 की शुरुआत अल्जीरिया में तानाशाही शासन के खात्मे की मांग के साथ शुरू हुई. दो दशकों से अल्जीरिया की सत्ता पर कब्जा जमाए अब्देलअजीज बौतेफ्लिका ने पांचवी बार राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की, तो अल्जीरिया के लोगों ने इसका तीखा विरोध किया. करीब 3 लाख लोग सड़कों पर उतर आए. विरोध प्रदर्शन फरवरी से अप्रैल तक चलता रहा. अंत में अब्देलअजीज बौतेफ्लिका को इस्तीफा देना पड़ा. अंतरिम सरकार की स्थापना हुई और नए चुनाव की घोषणा करनी पड़ी.
राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग से शुरु हुए इस आंदोलन की मांगें व्यापक होती गईं. प्रदर्शनकारियों ने कहा कि राष्ट्रपति का इस्तीफा सिर्फ एक छोटी-सी जीत है, बहुत सारी जीत हासिल करना बाकी हैं. प्रदर्शनकारी अल्जीरिया के शासन-तंत्र को पूरी तरह लोकतांत्रिक और जन-पक्षधर बनाने की मांग पर डटे हुए हैं.
एकाधिकारवादी शासन
जहां अल्जीरिया में संघर्ष की शुरुआत एकाधिकारवादी शासन के खिलाफ हुई, वहीं चिली में अक्टूबर महीने में सेंटियागो (चिली की राजधानी) के मेट्रो सब-वे के किराये में वृद्धि के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ. देखते-देखते यह जीवन जीने के बुनियादी सामानों की कीमतों में वृद्धि, असमानता और निजीकरण के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन में तब्दील हो गया. 25 अक्टूबर को लाखों लोग सड़कों पर उतर आए. राष्ट्रपति पिनेरा के इस्तीफे की मांग की जाने लगी. 26 अक्टूबर को सुरक्षा बलों की गोलियों से 19 लोग मारे गए. ढाई हजार लोग घायल हुए. और लगभग इतने ही लोगों को गिरफ्तार किया गया. लोगों के असंतोष और आक्रोश को देखते हुए राष्ट्रपति पिनेरा को अपने कैबिनेट के 8 मंत्रियों को हटाना पड़ा. कांग्रेस (संसद) को नए संविधान के निर्माण के लिए अप्रैल 2020 में जनमत संग्रह कराने की घोषणा करनी पड़ी.
यह भी पढ़ें: डॉ. आंबेडकर की अंतिम यात्रा का आंखों देखा हाल, पूरा देश जैसे थम सा गया था
वेनेजुएला और बोलिविया को भी इस वर्ष बड़े पैमाने पर जनांदोलनों का सामना करना पड़ा. बोलिविया के राष्ट्रपति मोरालेस को इस्तीफा देकर अर्जेंटीना में शरण लेनी पड़ी. 21 नवंबर 2019 को कोलंबिया में राष्ट्रपति इवान ड्यूक मार्क्वेज की सरकार के खिलाफ लाखों लोग सड़कों पर उतर आए. इस प्रदर्शन ने पूरे देश को अपनी आगोश में ले लिया.
1 अक्टूबर 2019 को इराक में तिशरीन रिवोल्यूशन और इराकी इंतिफादा नाम से शुरू हुए आंदोलन के चलते प्रधानमंत्री आदिल अब्दुल माहदी को इस्तीफा देना पड़ा. इस इस्तीफे के बाद प्रदर्शन रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं. प्रदर्शन कितना तीखा था, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस दौरान करीब साढ़े तीन सौ लोग मारे गए और लगभग डेढ़ हजार लोग घायल हुए. 1 अक्टूबर से 26 दिसंबर के बीच कोई ऐसा दिन नहीं गुजरा जब वहां हजारों की तादाद में लोग सड़कों पर न उतरे हों. 26 दिसंबर को इराक के राष्ट्रपति बरहाम सलीह ने किसी भी ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने से इंकार कर दिया, जो प्रदर्शनकारियों को स्वीकार न हो. प्रदर्शनकारी बेराजगारी, बुनियादी सुविधाओं के अभाव और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं.
येलो वेस्ट से लेकर लोकतांत्रिक मौलिक अधिकारों की मांग
लेबनान को एक नए तरह के जनाक्रोश का सामना करना पड़ रहा है. लंबे समय से धार्मिक तथा अन्य आधारों पर जनता के बीच बनी खाई को पाटते हुए हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए. सब के हाथ में लेबनानी झंडा था. इस विरोध प्रदर्शन की शुरुआत इंटरनेट वॉयस कॉल की फीस में वृद्धि के खिलाफ शुरू हुई थी. तेजी से इसमें अन्य मुद्दे जुड़ते चले गए. देखते-देखते यह देशव्यापी आंदोलन बन गया. 29 अक्टूबर को प्रधानमंत्री साद अल हारीरी को इस्तीफा देना पड़ा.
इक्वाडोर में भी ईंधन पर सब्सिडी और अन्य जन-कल्याणकारी योजनाओं में कटौती के खिलाफ प्रदर्शन हुए. सरकार को प्रदर्शनकारियों के सामने झुकना पड़ा, ईंधन की सब्सिडी में कटौती वापस लेनी पड़ी. 2018 में येलो वेस्ट आंदोलन से जूझ रहे फ्रांस को 2019 में प्रदर्शनों तथा बड़ी हड़तालों का सामना करना पड़ा. यह प्रदर्शन 5 दिसंबर से शुरू होकर कई दिनों तक जारी रहा. राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन के पेंशन सुधारों की योजना के खिलाफ मजदूर संगठनों द्वारा शुरु हुई इस हड़ताल ने कई दिनों तक फ्रांस को मानो ठप-सा कर दिया. 2 लाख से अधिक कर्मचारी सड़कों पर उतर आए. अकेले पेरिस में करीब 65 हजार लोगों ने प्रदर्शन किया. सुरक्षा बलों और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव की घटनाएं भी हुईं.
बुनियादी लोकतांत्रिक मौलिक अधिकारों को लेकर हांगकांग में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन थमने का नाम नहीं ले रहा है. 16 जून को हांगकांग के इतिहास का सबसे बड़ा प्रदर्शन हुआ, जब करीब 2 लाख लोग सड़कों पर उतर आए. विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा संस्थान संघर्षों के केंद्र बन गए. सड़कों पर सुरक्षा बलों और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव रोज-ब-रोज की घटना बनती जा रही है.
यह भी पढ़ें: शाहीन बाग, जेएनयू और जामिया प्रदर्शनों ने दिखाया है कि महिलाओं के नेतृत्व की कोई बराबरी नहीं
2019 का वर्ष क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) के खिलाफ व्यापक होते संघर्षों का भी वर्ष रहा है. फ्रांस से लेकर स्पेन तक यूरोप के अधिकांश देशों में वैश्विक तापमान में वृद्धि को रोकने के प्रति सरकारों की अनिच्छा और असफलता के प्रति व्यापक गुस्सा देखा गया. यूरोप में तो पर्यावरणवादी समूह एक राजनीतिक शक्ति बनकर भी उभरे हैं.
वर्ष का अंत आते-आते भारत में भी बड़े पैमाने पर जनता सीएए-एनआरसी के खिलाफ सड़कों पर उतर पड़ी.
लगभग 10 साल पहले हुए अरब स्प्रिंग की तरह, 2019 के विरोध-प्रदर्शनों की मुख्य विशेषता यह रही है कि आमतौर पर इनका नेतृत्व कोई स्थापित राजनीतिक दल या नेता नहीं कर रहे थे बल्कि इनके प्रति एक व्यापक मोहभंग दिखाई दे रहा है. जनता की सामूहिक पहलकदमी इसकी मुख्य शक्ति है. परंपरागत स्थापित विपक्षी राजनीतिक दल या नेता इसके पीछे चलने के लिए बाध्य हैं. इन विरोध प्रदर्शनों में देशव्यापी स्तर पर प्रर्दशनकारियों को जोड़ने और योजना बनाने का सबसे बड़ा उपकरण ऑनलाइन और ऑफलाइन सोशल मीडिया रही.
भारत में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में भी ये प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं.
(लेखक हिंदी साहित्य में पीएचडी हैं और फ़ॉरवर्ड प्रेस हिंदी के संपादक हैं.)