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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतबजट 2020 मोदी सरकार के लिए भारत को अमेरिका-ईरान संघर्ष के दुष्परिणामों से बचाने का प्रमुख साधन है

बजट 2020 मोदी सरकार के लिए भारत को अमेरिका-ईरान संघर्ष के दुष्परिणामों से बचाने का प्रमुख साधन है

ईरान और अमेरिका दोनों से ही सौहार्दपूर्ण संबंध रखने वाले भारत को अनियंत्रित वैश्विक घटनाक्रमों के मद्देनज़र मुश्किलों में घिरी अपनी अर्थव्यवस्था को बहुत सावधानी से संभालना होगा.

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ईरान के शीर्ष सैनिक कमांडर क़ासिम सुलेमानी की हत्या और उसके बाद ईरान द्वारा इराक़ स्थित अमेरिकी ठिकानों पर मिसाइल दागे जाने के बाद मध्य पूर्व में बने तनाव के कारण खाड़ी के दोनों तरफ के देशों को लंबे समय तक उथल-पुथल का सामना करना पड़ सकता है. तेहरान और व्हाइट हाउस दोनों से ही सौहार्दपूर्ण संबंध रखने वाले भारत को अनियंत्रित वैश्विक घटनाक्रमों के बीच मुश्किलों से गुजर रही अपनी अर्थव्यवस्था को बहुत सावधानी से संभालना होगा.

इस मामले में भारत का शुरुआती कदम बढ़िया रहा है. बढ़ते तनाव पर गहरी चिंता जताते हुए उसने दोनों देशों से संयम बरतने का आग्रह किया है. चीन और रूस ने भी इसी तरह चिंता का इजहार किया है और आशा व्यक्त की है कि ईरान और अमेरिका हालात को और बिगड़ने नहीं देंगे.

लेकिन, एक क्षेत्र जहां नरेंद्र मोदी सरकार को अपने सर्वाधिक होशियार लोगों को लगाना होगा, वो है अर्थव्यवस्था का- विशेष रूप से केंद्रीय बजट, जिसके लिए विचार-विमर्श और मंथन का दौर शुरू भी हो चुका है.

सिर्फ तेल ही नहीं

बीते वर्षों में भारत ने खाड़ी के देशों से अपने संबंधों में विविधता लाते हुए तेल के अतिरिक्त कई अन्य क्षेत्रों में भी आपसी सहयोग बढ़ाया है. इसमें शामिल हैं रक्षा साझेदारी, संयुक्त नौसैनिक अभ्यास, जलदस्यु निरोधक गश्ती, तथा ‘मुक्त और खुले’ नौवहन गलियारों के विचार को आगे बढ़ाना.

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी इन्हीं बातों पर बल देते हुए कहा है कि मौजूदा संकट में तेल एक महत्वपूर्ण पहलू है, पर एकमात्र नहीं. क्षेत्र में भारी संख्या में भारतीय कामगार मौजूद हैं, अबाध यात्रा और परिवहन के लिए हवाई क्षेत्र महत्वपूर्ण है और उससे भी बड़ी बात है क्षेत्रीय स्थिरता में हमारी भूमिका होने का.


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संक्षेप में कहें तो भारत के चिंतित होने की पर्याप्त वजहें हैं. भारत को ईरान और अमेरिका के बीच संतुलन साधने के लिए अत्यधिक कूटनीतिक कुशलता दिखाने की ज़रूरत है. अतीत में भारत खाड़ी में सैनिक अभियानों में शामिल होने के अमेरिका के आमंत्रण को सिद्धांत रूप में ठुकराता रहा है. अमेरिका को ये रवैया भले ही पसंद नहीं आता हो, पर खाड़ी के देश इसकी सराहना करते हैं.

ईरान और अमेरिका का उलझाव

ड्रोन हमले में सुलेमानी की हत्या के प्रतिशोध में की गई ईरान की दंडात्मक जवाबी कार्रवाई के बाद अमेरिका ने उस पर नए प्रतिबंधों की घोषणा की है. खुद अयातुल्ला खुमैनी के आदेश पर ईरानी सेना के अधीन 1979 में गठित इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईआरजीसी) के क़ुद्स फोर्स (पवित्र बल) के शक्तिशाली कमांडर सुलेमानी ने अपने दम पर क्षेत्र में शिया चरमपंथी बल खड़ा किया था, उन्होंने हिज़बुल्ला संगठन का साथ दिया था और व्लादिमीर पुतिन को रूसी सैनिको को सीरिया भेजने के लिए राज़ी किया था. इसलिए आश्चर्य नहीं कि सुलेमानी अमेरिका के मुख्य निशाने पर थे.

ईरान ने जवाबी कार्रवाई करने की धमकी को अंजाम देते हुए बैलिस्टिक मिसाइल हमले किए. उसने इसे अपने पास मौजूद ‘सबसे हल्का’ विकल्प बताते हुए संकेत दिया है कि क्षेत्र में और उसके बाहर अमेरिकी ठिकानों पर आगे और हमले किए जा सकते हैं. हिंद महासागर के पश्चिमी सिरे से लेकर हिंद-प्रशांत के पूर्वी छोर तक बड़ी संख्या में अमेरिका के सैनिक ठिकाने और साजो-सामान मौजूद हैं. इनमें तैनाती के लिए तैयार 293 युद्धपोत भी शामिल हैं. ईरान इनमें से किसी को भी निशाना बना सकता है, जो मौजूदा संघर्ष को पूर्ण युद्ध में तब्दील कर देगा.

वैसे ये दिलचस्प है कि इराक़ स्थित अमेरिकी ठिकानों पर मिसाइल हमलों के तुरंत बाद ईरान के विदेश मंत्री जावद ज़रीफ़ ने ट्वीट किया था कि ईरान तनाव में वृद्धि या युद्ध नहीं चाहता है. लेकिन, वह अमेरिका के किसी भी आक्रमण के विरुद्ध खुद की रक्षा करेगा. रुख में इस अंतर की व्याख्या तनाव को कम करने के प्रयास या अमेरिका को भ्रामक संदेश देने की कोशिश, दोनों ही रूप में की जा सकती है.

1979 की इस्लामी क्रांति की सफलता और ईरान के शाह की सत्ता को उखाड़ फेंके जाने के बाद से ही फारस की खाड़ी पर ईरानी नियंत्रण इस्लामी धार्मिक तंत्र के हाथों में है, जो क्षेत्र में अपना स्वतंत्र सुरक्षा ढांचा खड़ा करने को ईरान का धार्मिक दायित्व मानता है.

भारत की भूमिका पर दुनिया की नज़र

भारत के मध्यस्थता प्रयासों का स्वागत करने के ईरानी पक्ष के बयान से तेहरान की मनोदशा का संकेत मिल जाना चाहिए. बीते वर्षों में भारत लगातार ईरान के साथ भागीदारी बढ़ाता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई 2016 में तेहरान की यात्रा की थी. तब उन्होंने चबाहार बंदरगाह के विकास के लिए भारत, ईरान एवं अफ़गानिस्तान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किया था और और 50 करोड़ डॉलर के निवेश पर सहमति व्यक्त की थी.


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चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजना के तहत बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर विकसित अपने अड्डे के समानांतर भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को गंभीरता से लिया है. ईरान उन देशों के लिए एक आधार बन कर उभरा है जो इस क्षेत्र और इसके समृद्ध तेल संसाधनों से अमेरिका को दूर रखने के लिए एक निषेधात्मक रणनीति पर काम करना चाहते हैं. एक ओर अमेरिका जहां अपने मित्रों और सहयोगी देशों से ईरान के साथ सारे आर्थिक संबंधों को तोड़ने का आग्रह कर रहा था. वहीं नवंबर में चीन, रूस और ईरान ने ओमान की खाड़ी के पास हिंद महासागर में एक संयुक्त नौसैनिक अभ्यास में भाग लिया, जो होर्मुज़ जलसिंध से लगा एक संवेदनशील क्षेत्र है. उल्लेखनीय है कि दुनिया के तेल निर्यात का करीब 20 प्रतिशत इसी जलसंधि से होकर गुजरता है.

पूरी संभावना है कि मध्य पूर्व में जारी कलह के कारण वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण अपने बजट प्रस्तावों पर नए सिरे से विचार करने के लिए बाध्य होंगी. आम जनता को दी जाने वाली राहत को कम करने के सुझाव और प्रयास बढ़ सकते हैं. मोदी सरकार के लिए ये अहम है कि वह सुझाव, सहायता और सहयोग के प्रत्येक स्रोत तक पहुंचे और इस मुश्किल घड़ी में एक पक्षपात रहित और सर्वसम्मति वाला रुख अपनाए.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य और ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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