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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतखराब होते अमेरिका-ईरान के संबंधों के बीच दुनिया विश्वयुद्ध को लेकर चिंतित, पाकिस्तान की चिंता बाजवा का कार्यकाल बढ़ाना

खराब होते अमेरिका-ईरान के संबंधों के बीच दुनिया विश्वयुद्ध को लेकर चिंतित, पाकिस्तान की चिंता बाजवा का कार्यकाल बढ़ाना

जिस गति के साथ पाकिस्तानी राजनेताओं ने जनरल बाजवा के कार्यकाल को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया, वह एक ऐसे देश के लिए चिंताजनक है, जिसका सैन्य तख्तापलट का इतिहास रहा है.

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नये साल के अभी महज नौ दिन बीते हैं और पाकिस्तान का हाल यह है कि यहां एक भी लम्हा ऐसा नहीं बीता है जिसे उबाऊ कहा जा सकता हो. मुल्क की नेशनल असेंबली ने फौज के मुखिया जनरल जावेद बाजवा को इस ओहदे पर तीन साल और बने रहने की मंजूरी देने वाले बिल को पास करने में 30 सेकंड भी नहीं लगाए. उधर, ईरान और अमेरिका के बीच की तनातनी के चलते तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा मंडराने लगा है. जंग छिड़ने का इंतज़ार किया जा सकता है, बाजवा को फौज का मुखिया बनाए रखने के फैसले को एक मिनट भी टाला नहीं जा सकता.

पाकिस्तान के आर्मी ऐक्ट में संशोधन के बिल का सभी बड़ी सियासी पार्टियों ने तुरंत समर्थन किया, चाहे वह पाकिस्तान तहरीक-ए इंसाफ (पीटीआइ) हो या पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज़ (पीएमएल-एन), और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी). मामला जब पाकिस्तान की फौज का हो, तब सब एक सुर में बोलने लगते हैं.

वैसे, कुछ ने उलटा सुर भी लगाया. कभी संघीय व्यवस्था के तहत रहे क़बायली इलाकों के पख्तून नेता मोहसिन डावर और अली वज़ीर, मजहबी पार्टियों जमीअत उलेमा-ए इस्लाम (एफ) और जमात-ए इस्लामी ने, और राष्ट्रवादी पख्तूनख्वा मिल्ली अवामी पार्टी ने अपना विरोध दर्ज़ करने के लिए रस्मी वाकआउट किया. वजीरे आज़म रह चुके शाहिद खाक़ान अब्बासी और पीपीपी के मुखिया बिलावल भुट्टो ज़रदारी तो वोट देने के लिए आए तक नहीं. लेकिन हैरतअंगेज बात यह रही कि असेंबली में शायद ही कभी नज़र आने वाले वजीरे आज़म इमरान खान वहां नमूदार दिखे. शायद वे उस इमारत में रास्ता भूल गए थे. जब आप कहीं नहीं जाया करते हैं तो ऐसा हो जाता है.


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नेशनल असेंबली के कारोबार को टेलिकास्ट करते हुए पाकिस्तान टीवी ने, हर बार जब असेंबली के चेयरमैन ने कहा कि ‘बिल की मुखालफत करने वाले ‘नो’ कहें’ तो उसके जवाब में उठे ‘नो’ को धीमा करके सुनाया. पाकिस्तान में जो भी चीज़ दबा दी जाती है या सेंसर की जाती है, वह कभी घटती नही है. वैसे भी, कानून बनाने वालों के ‘नो’ की कोई परवाह नहीं करता.

गैर-फौजी का दबदबा एक सपना ही रहेगा

उस बिल के मामले में हर किसी की एक ही राय थी. हाल यह था कि पाकिस्तानी फौजों के तीनों प्रमुखों की नियुक्ति, उनकी दोबारा नियुक्ति और उनके कार्यकाल के बारे में कानून, और उस कानून को किसी अदालत में चुनौती न दिए जाने की व्यवस्था से जुड़े जो तीन बिल पेश किए गए उन पर किसी ने चर्चा तक करने की जरूरत नहीं समझी. यह स्थिति उस मुल्क के लिए खतरनाक मानी जाएगी, जहां फौज द्वारा कई तख्तापलट का एक इतिहास रहा है और जहां गैर-फौजी व्यवस्था का वर्चस्व एक सपना ही बनकर रह गया हो.

विपक्षी दलों ने राष्ट्रीय सुरक्षा की संसदीय कमिटी की भूमिका में भी संशोधन करके यह व्यवस्था करने का सुझाव दिया कि ‘वजीरे आज़म असेंबली को बताएं कि किन वजहों से फौजों के प्रमुखों का कार्यकाल आगे बढ़ाया जा रहा है या उन्हें फिर से नियुक्त किया जा रहा है.’ वैसे, रक्षा मंत्री परवेज़ खट्टक ने पीपीपी से अपील की कि वह ‘क्षेत्रीय सुरक्षा के हालात के मद्देनजर’ अपने सुझाव वापस ले ले. अब, केवल खट्टक ही बता सकते हैं कि बिल में एक संशोधन से क्षेत्रीय सुरक्षा के हालात कैसे प्रभावित होंगे.

काम करने वाले को श्रेय दिया ही जाना चाहिए. जनरल पाहवा ने जो हासिल कर लिया वह उनसे पहले के जनरल अयूब खान या मोहम्मद ज़िया-उल हक़ या परवेज़ मुशर्रफ नहीं हासिल कर पाए. अब, आगे हर सेना प्रमुख को न केवल तीन साल का एक्स्टेंसन मिलेगा बल्कि रिटायरमेंट की उम्र 64 साल किए जाने से वह कुछ और साल के लिए भी पद पर बना रहेगा. यह सिलसिला इमरान सरकार की नाकाबिलियत और नाकामी के कारण शुरू हुआ, जिसमें बाजवा के एक्स्टेंसन को लेकर एक के बाद एक नोटिफिकेशन और ब्यौरे जारी किए गए. ये सब सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर आ पहुंचे और पिछले चीफ जस्टिस आसिफ सईद खोसा ने एक्स्टेंसन पर रोक लगाते हुए पाकिस्तान की संसद को इस बारे में कानून बनाने के लिए कहा क्योंकि सेना प्रमुख को एक्स्टेंसन देने या फिर से नियुक्त करने को लेकर कोई कानून नहीं है.

इसने विपक्षी दलों को भी इस मामले से जोड़ दिया, जिन्हें अब उस ‘सेलेक्टर’ को चुनने या न चुनने में अहम भूमिका निभानी होगी जिस पर उन्होंने 2018 में मुल्क का वजीरे आज़म चुनने का आरोप लगाया था. इमरान खान के चुने जाने के बाद 18 महीनों में विपक्षी दलों को, जिन्हें सियासी बदले के तहत जेल और मुकदमों का सामना करना पड़ा, अब सौदेबाजी के लिए एक आधार मिल गया था.

विपक्ष ने डाल दिए हथियार

लेकिन विपक्ष, खासकर नवाज़ शरीफ की पीएमएल-एन ने पूरी तरह हथियार डाल दिए. जो नेता ‘वोट को इज्ज़त दो’ के नारे के साथ सिस्टम को बदलने का परचम लहरा रहा था और नागरिक व्यवस्था के वर्चस्व पर कोई समझौता करने को तैयार न था, उसे अब ‘बूट को इज्ज़त दो’ के नारे में यकीन रखने वालों में शुमार किया जाने लगा है. शरीफ पहले ऐसे बयान दे चुके हैं कि उनमें उन सेना प्रमुखों को बर्दाश्त करने का सब्र नहीं है, जो खुद को ‘सुपर प्राइम मिनिस्टर’ मानते हैं, उनके सिविल मामलों में दखल देते हैं और सियासी नेताओं को अपना काम नहीं करने देते. शरीफ के ये बयान आज उनकी पार्टी को परेशानी में डाल रहे हैं.

पीएमएल-एन बड़ी शान से कहा करती थी कि वह आम तौर पर एक्स्टेंसन के पक्ष में नहीं रही है और उसने रहील शरीफ तक को एक्स्टेंसन नहीं दिया. लेकिन यह सारी कहानी, संघर्ष, जेल, सब कुछ केवल एक झटके में हवा में उड़ गया.

पीपीपी का भी हाल कुछ अलग नहीं है. इसके एक वजीरे आज़म यूसुफ रज़ा गिलानी ने 2010 में सेना प्रमुख अशरफ परवेज़ कयानी को एक्स्टेंसन दिया था और अब आगामी सेना प्रमुखों से संबंधित कानून पर अपनी मुहर लगा दी है. अब ऐसे में बिलावल भुट्टो अपनी अम्मी के इस बयान का, कि ‘जम्हूरियत ही सबसे बड़ा बदला है’, जो हवाल दे रहे हैं वह मौजूदा हालात पर एक विरोधाभासी रुख को ही पेश करता है.

बड़बोले भुट्टो ने पीएम इमरान खान से सवाल किया कि उन्हें ‘अंपायर की उंगली’ पसंद आई कि नहीं, या क्या ‘अंपायर’ को तब्दीली पसंद आ गई? अब हम बिलावल से पूछ सकते हैं कि “क्या आपको अंपायर की उंगली पसंद आई?’

कई लोगों ने 7 जनवरी को पाकिस्तान की तवारीख़ का एक काला दिन कहा, क्योंकि सिविलियनों ने फौज के आगे अपने हथियार डाल दिए. लेकिन यह दौर भी गुजर जाएगा. अगर सरहद के पार, भारत में फैज अहमद फैज को उनकी नज़्म ‘हम देखेंगे’ गाकर याद किया जा रहा है, तो पाकिस्तानी संसद के प्रतिरोध पर ‘हम लेटेंगे’ जैसा जुमला गढ़ा जा सकता है. देशभक्ति की जीत हुई; आखिर देशभक्ति हमारे ‘जीन्स’ के अंदर ही तो है.

(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह @nailainayat हैंडल से ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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