वर्ष 2020 का आरंभ नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के खिलाफ छात्रों की अगुआई में हो रहे विरोध प्रदर्शनों के साथ हुआ है और ये बात भले ही अभी हमारे दिलों में गूंज रही हो पर हमें अब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की हिंदू राष्ट्र परियोजना के अगले चरण– राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के बारे में सोचना चहिए. सीएए के साथ एनआरसी का उद्देश्य भारत के मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने के भाजपा के इरादे को पूरा करना है.
पिछले एक महीने में देश पर आई तमाम मुश्किलों– जब नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने संसद से सीएए को पारित कराया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया में अत्याचार हुए, विरोध प्रदर्शन के अपने लोकतांत्रिक अधिकार के इस्तेमाल के लिए हजारों भारतीय नागरिकों को हिरासत में लिया गया, विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए धारा 144 लगाई गई और इंटरनेट को बंद किया गया और इन सबके बीच दो दर्जन से अधिक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी– के बावजूद मैं समझता हूं भारत ने मजबूत इरादों और उम्मीदों से भरे लोगों के साथ नए साल में कदम रखा है.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत के बहुलतावादी और संवैधानिक परंपराओं की खुली अवमानना को एक सांप्रदायिक कानून के जरिए वैधता प्रदान करने के लिए प्रयासरत सत्तारूढ़ भाजपा को शायद मोदी सरकार के अनुचित कदमों के खिलाफ त्वरित और राष्ट्रव्यापी आंदोलन उठ खड़ा होने का अनुमान नहीं रहा होगा.
लेकिन, पूर्वोत्तर राज्यों से शुरू हुई आग शीघ्र पूरे देश में फैल गई और आज मोदी सरकार को रक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा है और उसे विरोध प्रदर्शनों का कोई ढंग का जवाब नहीं सूझ रहा. राजनीतिक रूप से भी भाजपा अकेली है और उसके लगभग सारे मित्र और सहयोगी– शिरोमणि अकाली दल से लेकर लोक जनशक्ति पार्टी (दोनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल) तक और भाजपा की ओर झुकाव के साथ किनारे बैठने वाले दल जिन्होंने संसद में सरकार का साथ दिया. सीएए को लेकर अपनी चिंताओं का इजहार कर रहे हैं और एनआरसी प्रक्रिया में सहयोग करने से मना कर रहे हैं.
भारतीय मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करना
लेकिन ये लड़ाई खत्म नहीं हुई है. एनआरसी के रूप में इस पूरी मुसीबत का कहीं अधिक खतरनाक चरण अभी सामने आना बाकी है. प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रव्यापी एनआरसी पर विचार नहीं किए जाने के दावे के बावजूद (इस दावे को खुद उनके सहयोगी और गृहमंत्री अमित शाह संसद में अपनी स्वीकारोक्ति से झुठला चुके हैं और इसका जिक्र 2019 लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा के बहुप्रचारित घोषणा-पत्र में भी है) मोदी सरकार की प्राथमिकताओं तथा उसके विधायी और प्रशासनिक फैसलों की दिशा से यही संकेत मिलता है कि वह भारत के सभी राज्यों में एनआरसी कार्यान्वित करने के अपने इरादे को लेकर गंभीर है. याद करें नोटबंदी के बारे में किए गए वायदों को? राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के बारे में घोषणा की भी जा चुकी है जिसके राष्ट्रव्यापी एनआरसी की दिशा में पहला कदम साबित होने की पूरी संभावना है क्योंकि इसमें नागरिकों के माता-पिता के जन्मस्थान को दर्ज करने की व्यवस्था है और इसके प्रावधानों में ‘संदिग्ध नागरिकता’ वाले लोगों की पहचान करने का ज़िक्र है.
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खतरा स्पष्ट है: अपने दायरे से बाहर रख हर मुस्लिम प्रवासी को अवैध करार देने वाले सीएए तथा एनआरसी की मदद से भाजपा सरकार भारत की नागरिकता प्रमाणित कर पाने में असमर्थ हर मुसलमान को मताधिकार से वंचित कर सकती है. बहुत से भारतीयों, खासकर गरीबों के पास अपने जन्मस्थल या जन्मतिथि के बारे में दस्तावेजी सबूत नहीं हैं. वैसे भी जन्म प्रमाण-पत्र का चलन हाल के दशकों में ही व्यापक हो पाया है. जहां सीएए के जरिए गैर-मुस्लिमों को कोई दिक्कत नहीं आएगी, वहीं बिना दस्तावेज वाले मुसलमानों पर अचानक खुद को भारतीय साबित करने की जिम्मेदारी थोप दी जाएगी. ऐसी कवायद न सिर्फ घोर सांप्रदायिक पक्षपात वाली होगी, बल्कि ये भारतीय मुसलमानों को मताधिकार से वंचित करने और लोगों में भय पैदा करने का भी काम करेगी.
मैं ये सोच कर ही कांप जाता हूं कि पूरे राष्ट्र में ऐसी किसी योजना को लागू करने का क्या परिणाम होगा. असम में एनआरसी की कवायद दोषपूर्ण थी, जो प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से दुर्भाग्यपूर्ण साबित हुई. उन खामियों को पूरे देश में दोहराना न सिर्फ नासमझी बल्कि खतरनाक भी साबित होगी. छोटी-सी खामी के भी भयंकर परिणाम होंगे-जैसा कि श्रुति राजगोपालन के रिसर्च से पता चलता है, सिर्फ एक फीसद की त्रुटि मात्र से 1.35 करोड़ भारतीयों को विस्थापित होना पड़ सकता है, जैसा कि देश के बंटवारे के वक्त हुआ था.
भारत की उम्मीदें
अच्छी बात ये है कि एनआरसी की कवायद राज्य सरकारों के सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती है और मैं समझता हूं अधिकांश गैर-भाजपा राज्य सरकारें ऐसे विभाजनकारी कार्य में सहयोग नहीं करेंगी. विपक्षी दलों की अगुआई वाली राज्य सरकारों के असहयोग के अलावा एनआरसी की वैधता और आवश्यकता को लेकर सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप भी इसके राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन में बाधक बन सकता है.
पर शायद इस अनर्थकारी परियोजना पर रोक लगाने की सर्वाधिक उम्मीद भारत के युवाओं के कंधों पर टिकी है. बेशक, नेताओं के लिए युवाओं को भविष्य के भारत का इंजन बताना एक घिसा-पिटा मुहावरा बन गया हो, पर पिछले महीने यदि हमने कुछ भी सीखा तो वो यह कि देश के युवा सचमुच में जिम्मेदारी उठाने और लोकतांत्रिक भारत का इंजन बनने को तैयार हैं. सीएए के कानून बनने के बाद विश्वविद्यालयों में अपने समकक्षों के साथ हुई बर्बरता पर क्रोधित छात्रों का प्रदर्शन ना केवल स्वत:स्फूर्त और सहज था, बल्कि इसमें ये संदेश भी था कि मोदी सरकार की विभाजनकारी राजनीति को युवा यूं ही चुपचाप सहन नहीं करेंगे. इतने व्यापक पैमाने पर युवाओं का प्रदर्शन हाल के वर्षों में पहली बार देखा गया है. देश के युवा राष्ट्रनिर्माताओं द्वारा संविधान में स्थापित उदारवाद, धर्मनिरपेक्षता और समानता की भावना की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरे.
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विरोध में यूनिवर्सिटी की एक छात्र का अपना गोल्ड मेडल लौटाना, अपनी सभा में मौजूद मुस्लिम साथियों की दोपहर की नमाज के लिए लोगों का मानव श्रृंखला बनाना, विरोध प्रदर्शन के पक्ष में छात्रों का पुलिस और मीडिया के समक्ष अपनी बात को बेहतरीन तरीके से रखना और सबसे बढ़कर, शासन द्वारा उन्हें डराने-धमकाने के तमाम प्रयासों के समक्ष उनका निरंतर डटे रहने का संकल्प– ये सब सामान्य विरोध प्रदर्शनों और अल्पकालिक आंदोलनों या नेताओं के सामूहिक अनशनों से कहीं बढ़कर है.
यह अपने देश का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिए युवा भारत का विद्रोह है और यह उम्मीदों भरे नववर्ष की शुरुआत का बेहतरीन पल है.
(डॉ. शशि थरूर तिरुवनंतपुरम से संसद सदस्य हैं और पूर्व में विदेश मामलों एवं मानव संसाधन मंत्रालय के राज्यमंत्री रहे हैं. उन्होंने तीन दशकों तक एक प्रशासक और शांतिदूत के रूप में संयुक्तराष्ट्र के लिए काम किया है. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज से इतिहास और टफ्ट्स यूनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन किया है. थरूर ने कुल 19 किताबें लिखी हैं. आप उन्हें ट्विटर हैंडल @ShashiTharoor पर फॉलो कर सकते हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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