पाकिस्तान में ‘गद्दार’ शब्द इस सप्ताह फिर से चर्चा में रहा. दो बिल्कुल ही अलग संदर्भों में. आपने यदि पेशावर आर्मी पब्लिक स्कूल पर 2014 में हुए भयावह हमले और बेइंसाफी की बात की तो आप गद्दार कहे जा सकते हैं. दूसरी तरफ, इस्लामाबाद की एक विशेष अदालत ने पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ को गद्दार करार दिया और उन्हें सजा-ए-मौत सुनाई.
पाकिस्तान में कोई भी ‘16 दिसंबर’ को घटी उस भयावह घटना की चर्चा नहीं करना चाहता. इस तारीख को उस घटना के बारे में कोई बात नहीं की जाती है. ये वो दिन है जब आप गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ते. पेशावर के स्कूल पर 2014 में हुए हमले के बाद से ही 16 दिसंबर नृशंस्ता से मार डाले गए हमारे बच्चों के ‘बलिदान’ को याद करने का दिन बन गया है– ऐसा बलिदान जिसकी स्कूल में अपना पहला दिन बिता रहे छह वर्षीय बच्चे से अपेक्षा नहीं की जा सकती. चर्चाओं के केंद्र में होती है बच्चों की वीरता न कि वो नीतियां जो कि स्कूल पर हमले की वजह बनीं, निश्चय ही इन चर्चाओं में उन माता-पिता की चिंता शामिल नहीं होती जोकि न्याय की आस लगाए बैठे हैं. आप शोक और संताप व्यक्त कर सकते हैं और जान गंवाने वालों का स्मरण कर सकते हैं, लेकिन पेशावर स्कूल हमले को लेकर सुरक्षा खामियों या न्यायिक जांच के बारे में सवाल नहीं पूछ सकते.
इस बात की ओर इशारा करते हुए कि एक बेहतर भविष्य के लिए राष्ट्र अतीत से सबक लेते हैं, पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश आसिफ सईद खोसा ने इस हफ्ते ढाका में मिली पराजय और पेशावर स्कूल नरसंहार की बात की. उन्होंने कहा कि ‘यदि सरकार अधिक आक्रामकता दिखाना शुरू करती है तो लोग शासन से उन्हें जोड़ने वाले सामाजिक अनुबंध से हटने लगते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘जब सरकार अपने नागरिकों के मौलिक अधिकारों की अनदेखी करना शुरू कर देती है तो यह अनुबंध टूट जाता है. बांग्लादेश के जन्म के समय यही हुआ था.’
लेकिन पाकिस्तान में आज अधिकारों और न्याय के सवाल महज स्कूली किताबों में सिमट कर रह गए हैं. असल मुद्दों की बात करने पर आप अचानक एक पाकिस्तानी से अधिक एक गद्दार हो जाते हैं.
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इसलिए इसे विडंबना ही कहेंगे कि खुले हाथों गद्दारी का सर्टिफिकेट बांटने वालों को तब बड़ा झटका लगा जब उनके बीच के एक व्यक्ति को इस्लामाबाद की अदालत ने ‘गद्दार’ करार दिया. इस तरह 17 दिसंबर यदि चिंतन का दिन नहीं, तो फैसले का दिन जरूर बन गया.
पूर्व सैनिक तानाशाह परवेज़ मुशर्रफ़ को 2007 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के साथ चली लंबी खींचतान के बाद अवैध रूप से आपातकाल लगाने और इस तरह पाकिस्तान के संविधान को कमज़ोर करने के आरोप में सजा-ए-मौत सुनाई गई. मुशर्रफ़ के खिलाफ देशद्रोह का मामला 2013 में नवाज़ शरीफ़ सरकार ने शुरू किया था. पर, मुशर्रफ़ ने मार्च 2016 में इलाज कराने के नाम पर देश छोड़ दिया और उसी साल बाद में उन्हें फरार घोषित कर दिया गया.
पाकिस्तानी सेना की पीड़ा
पाकिस्तानी सशस्त्र सेनाएं मुशर्रफ़ को मृत्युदंड सुनाए जाने पर बहुत व्यथित और दुखी हैं. इस मामले में तीन-सदस्यीय खंडपीठ की अगुआई कर रहे पेशावर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वक़ार अहमद सेठ पहले भी पाकिस्तानी अधिकारियों को झटके देते रहे हैं. अक्टूबर 2019 में उन्होंने खैबर पख्तूनख्वा में हिरासत केंद्रों को उप-जेलों में परिवर्तित करने का आदेश दिया था और उन केंद्रों में रखे गए लोगों की सूची मंगाई थी.
पाकिस्तानी सेना, जो न्यायपालिका को इस तरह के सख्त कदम उठाते देखने की आदी नहीं है, ने जनरल मुशर्रफ़ को सजा सुनाए जाने पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा है कि करीब चार दशकों तक देश की सेवा करने वाला और दो युद्ध लड़ने वाला व्यक्ति ‘निश्चय ही गद्दार नहीं हो सकता.’ मुशर्रफ़ ने 1999 में पाकिस्तान को भारत के साथ कारगिल युद्ध में धकेला था और दो मौकों पर संविधान का उल्लंघन किया था, पर पाकिस्तानी सेना इन कृत्यों को गंभीर भूलों के रूप में नहीं देखती है.
पर हां, सेना की ये अपेक्षा कि उस व्यक्ति से संविधान के अनुरूप ‘न्याय’ किया जाएगा जिसने कहा था कि ‘संविधान महज कागज़ का एक टुकड़ा है जिसे कचरे में फेंक दिया जाना चाहिए’, पाकिस्तानी जनता के लिए जले पर नमक छिड़कने के समान है.
मुशर्रफ़ के ‘सेनाध्यक्ष और सशस्त्र सेनाओं की संयुक्त समिति का प्रमुख’ रहने का तथ्य उन्हें देशद्रोह के अपराधों से बरी नहीं कर देता. यदि ओहदा इतना ही महत्वपूर्ण है तो फिर पाकिस्तानी सेना ने विश्वासघात के आरोपों में एक ब्रिगेडियर को फांसी के तख्ते पर और एक शीर्ष जनरल को जेल में क्यों भेजा? मुशर्रफ़ वाली दलील ही दें तो क्या इन अधिकारियों के पद उनके अपराधों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण नहीं थे?
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जब नवाज़ शरीफ़ और युसुफ रज़ा गिलानी जैसे सत्तासीन प्रधानमंत्रियों को सजा सुनाई गई तो उनकी ‘पीड़ा’ और ‘व्यथा’ का कोई मतलब नहीं था क्योंकि जब ‘दूध का धुला’ अपना कोई सजा पाता है तभी राष्ट्रीय विमर्श के भ्रम को तोड़ने की ज़रूरत महसूस होती है. जवाबदेही के विचार से ग्रस्त समाज तब सहज क्यों नहीं महसूस करता जब वर्दीवालों को जवाबदेह ठहराया जाता है? या जवाबदेही क्या सिर्फ असैनिकों के लिए ही है?
जवाबदेही के ठेकेदार अब प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के नेतृत्व में मुशर्रफ़ को सजा सुनाए जाने के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं और अदालत के कदम को ‘अनुचित’ बता रहे हैं. हालांकि अतीत में ख़ान सार्वजनिक रूप से मुशर्रफ़ के 3 नवंबर 2007 के कदम को देशद्रोह करार दे चुके हैं और सत्ता में आने पर उनकी जवाबदेही तय करने का वादा भी.
बेचैन करने वाली संभावनाएं
पिछले दो महीनों के दौरान इमरान ख़ान सरकार ने अदालती मामले को बाधित करने का भरसक प्रयास किया था– अभियोजन टीम को बर्खास्त करने से लेकर फैसले की घोषणा को स्थगित कराने की कोशिश करने तक. उनके इस यू-टर्न को भूलना मुश्किल होगा. प्रधानमंत्री ख़ान के गृहमंत्री एजाज़ शाह तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री फवाद चौधरी जैसे मुशर्रफ़ समर्थक मंत्री फैसले को पलटे जाने की इच्छा का खुलकर इजहार कर रहे हैं. इसलिए, इस खिचड़ी सरकार के रहते मुशर्रफ़ को फांसी पर लटकाए जाने की संभावना नहीं के बराबर है.
अदालत का फैसला अभूतपूर्व है क्योंकि पाकिस्तान में किसी ने इसकी उम्मीद नहीं की थी. और इसकी प्रतीकात्मकता महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भविष्य के दुस्साहसी सैनिक अधिकारियों को खुला संदेश देता है कि सैनिक तख्तापलट करने वालों को अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा.
मुशर्रफ़ के खिलाफ अदालत का फैसला उन नेताओं, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए उम्मीद की एक किरण भी है जोकि अन्याय के खिलाफ और असैनिक वर्चस्व के पक्ष में आवाज़ उठाते रहते हैं.
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हालांकि सच्चाई यही है कि पाकिस्तान में फांसी किसी ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को ही हो सकती है, किसी मुशर्रफ़ को नहीं.
(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह @nailainayat हैंडल से ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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