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Friday, 22 November, 2024
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कांग्रेस और लेफ्ट की 1971 की ऐतिहासिक भूल और नागरिकता संशोधन विधेयक

बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान भारत आए बंगाली शरणार्थियों को नागरिकता देने के मामले को धर्म से जोड़कर बीजेपी ने मामले को पेचीदा और राजनीतिक बना दिया है.

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बांग्लादेश की पाकिस्तान से आजादी भारत के लिए भी एक गौरवशाली क्षण था. 1971 का वह दृश्य देखकर भारत के लोगों का सीना आज भी चौड़ा हो जाता है, जिसमें लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पाकिस्तान के 90,000 फौजियों से आत्मसमर्पण करवा रहे हैं. बांग्लादेश को हालांकि बांग्ला मुक्ति वाहिनी के योद्धाओं ने आजाद कराया. लेकिन मुक्ति वाहिनी के पीछे ताकत किसकी थी, ये किसी से छिपा नहीं था. मुक्ति वाहिनी को ट्रेनिंग देने से लेकर उन्हें हथियार देने की कहानी अब इतिहास में दर्ज है. भारतीय सेना खुद भी पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर पाकिस्तानी फौज से लड़ रही थी.

हालांकि पाकिस्तान एक संप्रभु राष्ट्र है और आम तौर पर कोई देश किसी और देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता. लेकिन भारत के पास इस युद्ध में शामिल होने का एक तर्क था. पाकिस्तानी सैनिकों के अत्याचार के कारण बड़ी संख्या में बांग्ला भाषी शरणार्थी सीमा पार करके भारत आ रहे थे. इनकी संख्या इतनी ज्यादा थी कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर दबाव पड़ रहा था. ये लोग अलग-अलग शहरों में बिखर गए थे और इससे अराजकता फैल रही थी.

बहरहाल भारत के सीधे हस्तक्षेप के बाद आखिरकार पाकिस्तान टूट गया और दुनिया के नक्शे पर एक नए राष्ट्र – बांग्लादेश का उदय हुआ. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. बांग्लादेश की आजादी और पाकिस्तान की हार का कांग्रेस और इंदिरा गांधी को बड़ा राजनीतिक लाभ हुआ. अगले साल हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को बड़ी जीत मिली. जबकि इससे पहले 1967 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हालत काफी खराब थी. कांग्रेस के अंदर भी इंदिरा गांधी की स्थिति काफी मजबूत हो गई. इस एक युद्ध ने इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया  से दुर्गा और रणचंडी बना दिया. इस समय लोकसभा में जनसंघ के युवा नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा कहा था.

शरणार्थियों को लेकर भारत का अनिर्णय

लेकिन उस गर्व के क्षण में, भारत सरकार ने एक महत्वपूर्ण कार्य को अधूरा छोड़ दिया. वह कार्य था पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला भाषी शरणार्थियों का समाधान. भारत सरकार के पास दो विकल्प थे. या तो वह बांग्लादेश की नई सरकार को इस बात के लिए राजी कर लेती कि वह इन शरणार्थियों को अपने देश में वापस ले लें. दूसरा तरीका ये था कि भारत सरकार उन्हें नागरिकता दे देती. चूंकि अंग्रेजों के समय के अविभाजित भारत के तीन टुकड़े हो चुके हैं, इसलिए इस उप-महाद्वीप के हर आदमी को इनमें से किसी एक देश का नागरिक होना ही चाहिए. लेकिन भारत ने आज तक कभी अपनी रिफ्यूजी पॉलिसी बनाई ही नहीं है.


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भारत सरकार ने उस समय इन दोनों में से किसी भी विकल्प पर काम नहीं किया और मामले को टंगा हुआ छोड़ दिया. इस तरह देश में 1971 में एक करोड़ से ज्यादा ऐसे लोग हो गए, जो किसी भी देश के नागरिक नहीं थे. जाहिर है कि आबादी बढ़ने की सामान्य रफ्तार के हिसाब से, आज ये संख्या काफी बढ़ चुकी होगी.

शरणार्थियों के साथ क्रूरता

भारत ने इन शरणार्थियों के साथ बहुत ही निष्ठुर व्यवहार किया. उन्हें जमीन देकर बसाने की जगह, ट्रांजिट कैंपों में रखा गया, मानो उन्हें कभी न कभी वापस भेजना ही है. उन्हें देश के उन इलाकों में भेज दिया गया, जहां लोग आम तौर पर रहना नहीं चाहते थे. इन शरणार्थियों को सबसे ज्यादा अंडमान के द्वीपों, मध्य भारत के दंडकारण्य और हिमालय के दलदली-मलेरिया प्रकोप से प्रभावित तलहटी में भेज दिया गया. उनको नागरिकों के अधिकारों से नहीं, मानवाधिकारों से भी वंचित रखा गया है. सरकारी नौकरियों से लेकर शिक्षा हासिल करने की सुविधा से भी उन्हें वंचित रखा गया. उन्हें राशन कार्ड नहीं मिलता. उनके जाति प्रमाण पत्र नहीं बनते.

बांग्लादेशी शरणार्थियों के साथ भेदभाव क्यों?

1947 के विभाजन के समय जो लोग पाकिस्तान के पूर्वी या पश्चिमी हिस्से से भारत आए, उनका यहां गर्मजोशी से स्वागत हुआ. उन्हें उन घरों में बसाया गया, जिन घरों को खाली करके मुसलमान परिवार पाकिस्तान चले गए थे. बाकी लोगों को भी घर बनाने के लिए उनके पसंद के शहर में जमीनें दी गईं. आर्थिक मदद दी गई.

लेकिन यही सुविधा 1971 में आए रिफ्यूजी को क्यों नहीं दी गई?

इसकी वजह भारत-पाकिस्तान के विभाजन के इतिहास में है. 1947 में जब देश के दो टुकड़े हुए तो मोटे तौर पर इसे हिंदू-मुसलमान विभाजन माना गया. लेकिन सब कुछ इतना सीधा-सपाट नहीं था. खासकर पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में दलितों का एक बड़ा हिस्सा बंगाल के विभाजन के खिलाफ था और विभाजन के बाद उनमें से काफी लोग पूर्वी पाकिस्तान में ही रह गए. इनके नेता जोगेंद्र नाथ मंडल अविभाजित पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री बने. भारत ने तीन हिंदू दलित जिलों को पूर्वी पाकिस्तान में जाने दिया.

विभाजन के बाद सीमा के दोनों ओर काफी सांप्रदायिक हिंसा हुई और समाज में कड़वाहट काफी बढ़ गई. इसके बावजूद पूर्वी पाकिस्तान के हिंदू दलित वहीं बने रहे. लेकिन इसके बाद पाकिस्तान की फौज ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर भाषा के आधार पर अत्याचार शुरू कर दिया और उनका मुख्य निशाना बने हिंदू दलित. इसके बाद ही उनका पड़े पैमाने पर पलायन शुरू हुआ.

भारत में ये लोग आ तो गए लेकिन सरकार ने कभी इनका स्वागत नहीं किया. इन्हें विभाजन के समय पाकिस्तान में रह जाने का दोषी माना गया, जबकि उनमें से ज्यादातर लोग ग्रामीण और गरीब थे और 1947 के विभाजन के समय वे ये समझने की हालत में भी नहीं थे कि दरअसल उनके साथ हो क्या रहा है. 1971 के रिफ्यूजी के एक समूह ने जब सुंदरवन डेल्टा के एक द्वीप मरीचझांपी में बसने की कोशिश की, तो इस समय की पश्चिम बंगाल की लेफ्ट फ्रंट सरकार ने जबरन वो द्वीप खाली करा दिया. इस दौरान की गई पुलिस फायरिंग में बड़ी संख्या में शरणार्थी मारे गए.


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जो नागरिकता विहीन लोग भारत में रह रहे हैं, उनको ही अब बीजेपी नागरिकता देने की बात कर रही है. लेकिन बीजेपी के लिए ये किसी ऐतिहासिक गलती को सुधारने का या मानवता भरा कोई कदम नहीं है. इस मुद्दे पर वह सांप्रदायिकता की रोटी सेंकना चाहती है. इसलिए उसने नागरिकता को धर्म से जोड़ दिया है. वरना बीजेपी सीधे तौर पर ये कर सकती थी कि 1971 के अंत तक जो लोग पूर्वी पाकिस्तान या बांग्लादेश से आए हैं, उनमें से हर किसी को भारत की नागरिकता दी जाएगी.

उचित तो ये होता कि कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट 1971 की भूल के लिए माफी मांगते और सभी दल मिलकर एक ऐसा नागरिकता अधिनियम संसद में पारित करते, जिससे 1971 के दौरान आए बांग्लादेशी शरणार्थियों को नागरिकता मिल जाती. वैसे भी अब उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ियां भारत में रह रही हैं और भारत के अलावा उनका कोई देश नहीं है.

(लेखक भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय पत्रकारिता और संचार में सहायक प्रोफेसर हैं. वे इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं. इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर कई किताबें भी लिखी हैं. लेखक के ये विचार निजी हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

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