बच्चियों से दरिंदगी करने वाले मुजरिमों के लिये पॉक्सो कानून के तहत दया याचिका का प्रावधान खत्म करने संबंधी राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद का विचार बेहद चौकाने वाला है. बच्चियों के साथ दरिंदगी की लगातार बढ़ रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति का आहत होना स्वाभाविक है लेकिन क्या किसी मुजरिम की दया याचिका करने का अधिकार छीन लेना न्यायोचित होगा? क्या इस अधिकार से मुजरिमों को वंचित करने से ऐसे अपराधों पर अंकुश पाया जा सकेगा? शायद नहीं.
यहां सवाल पॉक्सो कानून का ही नहीं बल्कि दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड संहिता के तहत एक तरह के घृणात्मक अपराध के लिये अपराधियों को सजा देने का है तो किसी एक कानून की बजाय व्यापक रूप से इस अपराध से संबंधित मुकदमों की अधिकतम समय सीमा निर्धारित करना बेहद जरूरी है.
किसी भी अपराध के लिये मौत की सजा पाने वाला व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति के पास और अनुच्छेद 161 के तहत राज्य के राज्यपाल के पास दया याचिका दायर कर सकता है. यह हमारे संविधान की व्यवस्था है.
ऐसी स्थिति में पॉक्सो के तहत मौत की सजा पाने वाले व्यक्ति को दया याचिका दायर करने के अधिकार से वंचित करने का सुझाव भी तर्कसंगत नहीं लगता है. पॉक्सो कानून के तहत दया याचिका दायर करने का अधिकार खत्म करने से बेहतर होगा कि ऐसा करने की बजाय राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास आने वाली दया याचिकाओं के निपटारे की एक समयसीमा निर्धारित की जानी चाहिए.
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देश की सर्वोच्च न्यायपालिका का स्पष्ट मत रहा है कि एक अपराधी का अपराध भले ही बहुत जघन्य हो सकता है लेकिन न्यायालय भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 को इन सभी के ऊपर रखता है और उसका यह निष्कर्ष है कि ये कैदी भी मनुष्य हैं और उनकी सजा:मृत्यु दंडः पर अमल में अत्यधिक विलंब उन्हें यंत्रण देता है.
उच्चतम न्यायालय ने हमेशा ही संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने के मौलिक अधिकार को सबसे उपर रखा है. यही वजह है कि न्यायालय हमेशा यह महसूस करता है कि जीने के मौलिक अधिकार और मौत की सजा के अपरिवर्तनीय होने के तथ्य को ध्यान में रखते हुये मौत की सजा वाले सभी मामलों में पुनर्विचार याचिका के स्तर पर मौखिक सुनवाई दी जानी चाहिए और ऐसा करना न्यायोचित होगा.
अक्सर यह देखा गया है कि मौत की सजा के अनेक मामले में दोषियों की दया याचिका काफी लंबे समय तक सरकार के पास विचाराधीन रहती है. खालिस्तानी आतंकी देविन्दरपाल सिंह भुल्लर की दया याचिका पर फैसला लेने में राष्ट्रपति ने आठ साल का समय लिया जबकि मध्य प्रदेश के एक हत्यारे की दया याचिका का निपटारा होने में पांच साल लग गये. नतीजा यह हुआ कि दोनों ही दोषियों की मौत की सजा पर अमल नहीं हुआ और उन्हें जीवन दान मिल गया.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सभी कानूनी विकल्प खत्म हो जाने के बाद भी काल कोठरी में बंद कैदी की दया याचिका लंबित होने के आधार पर मौत की सजा पर अमल नहीं हो सका. दिन रात मौत की सजा के अमल के भय की वजह और दया याचिका के निपटारे में अत्यधिक विलंब के कारण मामला नये सिरे से उच्चतम न्यायालय पहुंच जाता है.
स्थिति यह होती है कि इस तरह का मामला न्यायालय में पहुंचते ही नये सिरे से एक नयी बहस शुरू हो जाती है. इसका नतीजा यह होता है कि शीर्ष अदालत, जो पहले बिरले में भी बिरलतम अपराध के लिये दोषी की मौत की सजा बरकरार रखती है, ऐसे अपराधी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने में गुरेज नहीं करती है.
फांसी की सजा के अमल में विलंब का हालिया मामला मप्र का है जहां पत्नी और पांच बच्चों की हत्या करने के जुर्म में जगदीश को निचली अदालत ने अप्रैल 2006 में मौत की सजा सुनायी थी जिसकी मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने जून 2006 में पुष्टि कर दी थी. यही नहीं, उच्चतम न्यायालय ने भी सितंबर, 2009 में उसकी अपील खारिज कर दी थी. इसके तुरंत बाद ही मुजरिम ने दया याचिका दायर की थी.
इस मामले में मुजरिम जगदीश की दया याचिका गृह मंत्रालय को भेजने में मध्य प्रदेश सरकार ने चार साल लगा दिये. दोषी ने 13 अक्टूबर, 2009 को जेल अधिकारियों के समक्ष दया याचिका दायर की थी लेकिन इसे 15 अक्टूबर, 2013 को गृह मंत्रालय भेजा गया. ऐसा क्यों हुआ? जेल अधिकारियों और राज्य सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं था. राष्ट्रपति ने 16 जुलाई, 2014 को उसकी दया याचिका खारिज कर दी थी. इसके बाद ही दोषी ने मौत की सजा के फैसले पर अमल में करीब पांच साल का विलंब होने के आधार पर उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की और अंततः वह फांसी के फंदे से बच गया.
इसका नतीजा यह हुआ कि इसी साल फरवरी में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति इन्दिरा बनर्जी की पीठ ने अगस्त 2005 में पत्नी और अपने पांच बच्चों की हत्या करने वाले मुजरिम की मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया था. न्यायालय ने साथ ही टिप्पणी भी की थी कि मौत की सजा पाने वाले व्यक्ति की अंतिम आस दया याचिका पर ही टिकी होती है और मुजरिम लगातार मौत के इंतजार में दिन गुजारता है. ऐसी स्थिति में दया याचिका का निपटारा करने में अत्यधिक विलंब होने पर मुजरिम राहत पाने का हकदार होता है.
इससे पहले, मार्च 2014 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली विशेष पीठ ने आतंकी देविन्दरपाल सिंह भुल्लर की दया याचिका के निपटारे में अत्यधिक विलंब होने के आधार पर उसकी मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील कर दिया था.
भुल्लर को सितंबर 1993 में दिल्ली में युवक कांग्रेस के अध्यक्ष मनिन्दर सिंह बिट्टा को निशाना बनाकर युवक कांग्रेस कार्यालय पर किये गये बम विस्फोट की घटना के सिलसिले में अदालत ने दोषी पाया था और उसे अगस्त 2001 में मौत की सजा सुनायी थी. इस घटना में नौ व्यक्ति मारे गये थे और बिट्टा सहित 25 अन्य जख्मी हुये थे.
उच्चतम न्यायालय ने 26 मार्च, 2002 को मौत की सजा के खिलाफ भुल्लर की अपील खारिज कर दी थी. शीर्ष अदालत ने भुल्लर की पुनर्विचार याचिका 17 दिसंबर, 2002 को और सुधारात्मक याचिका 12 मार्च, 2003 को खारिज कर दी थी.
इसी बीच, भुल्लर ने 14 जनवरी, 2003 को राष्ट्रपति के पास दया याचिका भी दायर की जिसे उन्होंने आठ साल से भी अधिक समय बाद 14 मई, 2011 को अस्वीकार किया था.
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इस व्यवस्था के चंद महीनों बाद ही 2 सितंबर, 2014 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने एक अन्य व्यवस्था में कहा कि मौत की सजा से संबंधित अपील पर तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ही विचार करेगी और ऐसे मामले में पुनर्विचार याचिका दायर होने पर उसकी खुली अदालत में संक्षिप्त सुनवाई होगी.
न्यायालय ने यह भी कहा था कि सीमित सुनवाई की व्यवस्था मौत की सजा से संबंधित उन सभी मामलों में लागू होगी जहां पुनर्विचार याचिका लंबित है या फिर ऐसी याचिका खारिज हो गयी है लेकिन अभी मौत की सजा पर अमल नहीं किया गया है.
इन न्यायिक व्यवस्थाओं और कानूनी प्रावधानों के मद्देनजर बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और हत्या ही नहीं बल्कि दूसरे भी जघन्य अपराधों में मौत की सजा पाने वाले दोषियों की दया याचिकायें कानूनी दांवपेचों के बीच उलझ कर रह जाती हैं.
ऐसी स्थिति में जरूरी है कि मौत की सजा की माफी के लिये राज्यपाल और राष्ट्रपति पास आने वाली दया याचिकाओं के निपटारे के लिये एक समय सीमा निर्धारित की जाये. ऐसा करके ही कानून के शासन के तहत घृणित अपराध के लिये मृत्यु दंड पाने वाले दोषियों की सजा पर एक निश्चित समय के भीतर अमल सुनिश्चित किया जा सकेगा और समाज को भी यह भरोसा दिलाया जा सकेगा कि इस तरह के अपराध करने वाला कोई व्यक्ति सजा से बच नहीं सकता.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)