शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के महाविकास अघाड़ी नामक गठबंधन के नेता उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री के तौर पर महाराष्ट्र की सत्ता संभाल और विश्वासमत हासिल कर लेने के बावजूद कहना मुश्किल है कि देश के इस सबसे समृद्ध राज्य की सत्ता को लेकर जो महानाटक गत 24 अक्टूबर को उसकी विधानसभा के चुनाव में पड़े मतों की गिनती के बाद से ही मंचित होता आ रहा है, उसका परदा गिर जायेगा या उसमें एक के बाद एक नये दृश्य और अंक जुड़ते चले जायेंगे. पुराने दिनों के गैर- कांग्रेसवाद की तर्ज पर हुई इन तीनों दलों की एकता की उम्र लम्बी नहीं हो सकी और जनादेश की चमक फीकी पड़ते ही उनके अंतर्विरोध गहराने व स्वार्थ टकराने लगे तो ज्यादा संभावना इसी की है कि महानाटक में नये-नये मोड़ आते रहें और वह रोज-ब-रोज नये-नये गुल खिलाता व नये-नये सबक सिखाता रहे.
अघाड़ी की तीनों पार्टियों की बेमेल विचारधाराओं की बात को यह मानकर छोड़ दें कि आज की राजनीति में विचारधारा बची ही कहां है और उसके बगैर भी सत्ता इन्हें जोड़े रखेगी तो अघाड़ी का भविष्य बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि धीरे-से लगे इस जोर के झटके के बाद अंगूरों को खट्टा मानकर भाजपा शांत बैठ जाती है या कर्नाटक की तरह ‘आपरेशन लोटस’ चलाकर ‘कमल खिलाने’ में लग जाती है. ज्यादा संभावना उसके कमल खिलाने में लग जाने की ही है और चूंकि शिवसेना व एनसीपी दोनों के ही अतीत में कांग्रेस से गहरे मतभेद रहे हैं, इसलिए भाजपाई बिल्लियों की यह उम्मीद स्वाभाविक है कि उनके भाग्य से जल्दी ही छींका टूटेगा, इन तीनों दलों में फूट पड़ जायेगी और तब वे उसको लपक लेने में कोई गलती नहीं करेंगी.
लेकिन भविष्य में जो भी हो, इस लम्बे नाटक ने अभी तक जो सबक दिये हैं, उनके बारे में भी यह समझना गलत होगा कि वे सिर्फ भारतीय जनता पार्टी के लिए हैं. यह ठीक है कि इस नाटक में सबसे ज्यादा दाग भाजपा के चेहरे, चाल और चरित्र पर ही लगे हैं, लेकिन जहां तक सबकों की बात है, वे राष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल और सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष के रास्ते देश और खासकर इस प्रदेश के आम लोगों तक भी पहुंचते हैं.
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से ही शुरू करें तो इस नाटक ने उनके सामने यह समझने की घड़ी उपस्थित कर दी है कि इस विशाल देश के प्रथम नागरिक के रूप में वे किसी दल, विचारधारा, प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल के बन्दी नहीं हैं. उनके सामने अभी भी रास्ता खुला हुआ है कि वे उन लोगों को कान देकर अपने को इमर्जेंसी के दौरान राष्ट्रपति रहे फखरुद्दीन अली अहमद की छवि में कैद करा लें, जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाधी द्वारा अपनी कैबिनेट में विचार-विमर्श के बगैर की गई आपातकाल लगाने की सिफारिश स्वीकार कर ली थी या फिर केआर नारायणन और एपीजे अब्दुल कलाम जैसे संवैधानिक मूल्यों के रक्षक राष्ट्रपतियों की सूची में अपना नाम लिखवायें. फिलहाल, हम देख रहे हैं कि उनके मुंह अंधेरे ही महाराष्ट्र से राष्ट्रपति शासन हटाने की अधिसूचना पर हस्ताक्षर कर देने का औचित्य सिद्ध करने के लिए कई महानुभाव इस कुतर्क तक चले जा रहे हैं कि हमें आजादी भी आधी रात को ही हासिल हुई थी.
महाराष्ट्र में राष्ट्रपति के प्रतिनिधि भगत सिंह कोश्यारी के लिए भी सबक कुछ इसी तरह समझने का है कि अतीत में वे भले ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक रहे हों, राज्यपाल रहते हुए वे संविधान के सेवक हैं और उनका काम संविधान की मूल भावनाओं की रक्षा में होशियारी दिखाना है, न कि उसका गला दबाकर किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार बनवाना या गिरवाना.
इस सबक को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमंत्री अमित शाह तक ले जायें तो अमित शाह न सही, मोदी जी से तो अपेक्षा की ही जा सकती है कि वे अपनी सत्ता के छठे साल में अपने सर्वाजनिक आचरण से यह प्रदर्शित न करें कि वे अभी भी सारे देश के बजाय अपनी पार्टी के ही प्रधानमंत्री बने हुए हैं! उन्हें और किसी की नहीं तो कम से कम उस प्रबल जनादेश की लाज तो रखनी ही चाहिए, जो देश की जनता ने उन्हें कुछ ही महीनों पहले दिया है.
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देश और साथ ही महाराष्ट्र के सत्तापक्ष व विपक्ष के जनप्रतिनिधियों के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि वे इस शर्म को महसूस करें कि उनकी सत्यनिष्ठा इस कदर संदिग्ध हो चली है कि उसकी बोली लगाने वालों से बचाने के लिए उन्हें प्रायः हर ऐसे संकट के वक्त होटलों में ‘कैद’ करना या अपनी शुभचिंतक सरकारों के राज में ले जाना पड़ता है. उन्हें खुद से पूछना चाहिए कि क्यों वे महाराष्ट्र के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक विनोद निकोले जैसे ‘अपवाद’ नहीं सिद्ध होते, जिन्होंने राज्य में विकट सत्ता संघर्ष के दौरान, जब राजनीति के नाम पर खुलेआम प्रपंच रचे जा रहे थे, तिकड़में की जा रही थीं, विचारधारा और मूल्यों की अहमियत को दरकिनार कर की जा रही खरीद-फरोख्त की बोलियां प्रति विधायक सत्तर करोड़ तक पहुंच गई थी और ‘विद्वान’ विश्लेषकों द्वारा उसे ‘चाणक्य नीति’ की संज्ञा से नवाजा जा रहा था, उदात्त राजनीतिक मूल्यों में ऐसी निष्कम्प निष्ठा प्रदर्शित की, जो हमारी समकालीन राजनीति में दुर्लभ हो चली है.
उन्होंने शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व कांग्रेस के विधायकों की तरह किसी आलीशान होटल में ‘कैद’ रहने का आमंत्रण ठुकराकर उन्हीं दिनों अपने निर्वाचन क्षेत्र में रैलियां कीं और प्राकृतिक आपदा के मारे किसानों के लिए मुआवजे की मांग उठाते रहे. बताते हैं कि उनकी इस दृढ़ता के चलते किसी बोली लगाने वाले ने उनसे सम्पर्क साधने की हिमाकत करने की हिम्मत ही नहीं की.
दुःख की बात है कि उनके विपरीत न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि कर्नाटक, गोवा व मणिपुर आदि के सत्तासंघर्षों में प्रदर्शित राजनीतिक गिरावट को अब बेहद सामान्य भाव से लिया जाने लगा है, जो देश के संविधान व लोकतंत्र के भविष्य तो क्या वर्तमान के लिहाज से भी अच्छी बात नहीं है. इस सिलसिले में हमने इतनी ही ‘तरक्की’ की है कि पहले सत्ता के लिए दल बदल हुआ करते थे और अब जनप्रतिनिधियों की मंडियां सजने लगी हैं-बाकायदा. उनमें जो जितनी ऊंची बोली लगा ले, वाह सत्ता के उतना ही करीब पहुंच जा रहा है. ऐसा नहीं होता यानी पूरे कुंएं में भांग नहीं पड़ गई होती तो जनादेश के साथ ही संवैधानिक व कानूनी प्रावधानों तक की मनमानी व्याख्या कर अपने लाभ के लिए उनका इस्तेमाल करने की ‘परम्परा’ इतनी ‘समृद्ध’ नहीं ही हो पाती.
यह ‘परम्परा’ ऐसे ही समृद्ध होती रही तो इस अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले वर्षों में आम मतदाताओं का चुनावी राजनीति से विश्वास ही तिरोहित हो जाये. अभी जब जनप्रतिनिधियों के सत्तालोलुप नेता सदनों के फ्लोर टेस्ट से भागते-भागते ही इतने पस्त हो जा रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भी उसका सामना करने से इस्तीफा देना बेहतर समझ रहे हैं, जनता के बीच फ्लोर टेस्ट की नौबत आने पर उनका क्या हाल होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.
ऐसे में देश या महाराष्ट्र की जनता से इस महानाटक से जो सबक लेने की अपेक्षा की जा सकती है, उसे मध्य प्रदेश के वरिष्ठ कवि ध्रुव शुक्ल की ‘लोकतंत्र’ शीर्षक कविता के शब्द उधार लेकर इस प्रकार कहा जा सकता है: शक्तिहीन लोगों की बस्ती को देखो/लोकतंत्र की शक्ति वहीं से आती है/यह शक्ति जुटाकर मिल जाती जिनको सत्ता/ उनसे भी उनकी शक्ति छीन ली जाती है/कुछ शक्तिवान रचते हैं फिर अपना शासन/मतदान नहीं सत्ता पूंजी से आती है/लोकतंत्र को भरती रहती लालच से/जो झुके नहीं, वह उसको मार गिराती है।/ देखो उनको जो घुसे चोर दरवाजों से/ इनके ही हाथों में सत्ता क्यों आती है?/ उन्हें पुकारो, जो स्वराज्य को तड़प रहे/पहचानो उनको, जिन्हें गुलामी भाती है.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)