जुलाई-सितंबर वाली तिमाही के लिए जीडीपी वृद्धि दर पिछली 26 तिमाहियों में सबसे नीची रही. यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. हाल तक, कई विश्लेषणकर्ताओं ने यह बुरी खबर पहले ही दे दी थी. बहरहाल, अब साफ हो चुका है कि बजट से पहले के दो महीनों में सरकार अगर अपना घर दुरुस्त नहीं करती तो मौजूदा गर्त से जल्दी बाहर निकलना मुश्किल होगा. अर्थव्यवस्था उस मोड़ पर पहुंच चुकी है जब वह किसी भी तरफ झुक सकती है. यह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इम्तिहान का दौर है.
आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार की बढ़ती मुश्किलों से कई विश्लेषणकर्ताओं को जो परपीड़ासुख मिलता है उससे आगे बढ़कर हम देखें तो मानना पड़ेगा कि आलोचकों तक को इस सवाल का जवाब देना पड़ेगा. सरकार को क्या करना चाहिए? शुरुआत करने के लिए कहा जा सकता है कि वह अंधेरे में तीर चलाना बंद करे. विश्व भर में जो मंदी है वह भारत की समस्याओं की प्रारम्भिक वजह नहीं है, न ही यह चीन की वृद्धि दर (जुलाई-सितंबर वाली तिमाही के लिए 6 प्रतिशत) से अंतर के इतना बढ़ने की वजह है. जब वृद्धि दर चार तिमाहियों में 7.0 प्रतिशत से गिरकर 4.5 प्रतिशत पर पहुंच जाए, तो यह मानना ही पड़ेगा कि यह और कुछ नहीं बल्कि मंदी ही है.
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कई विश्लेषणकर्ता हाल तक यह जो कहते रहे हैं कि अर्थव्यवस्था जल्दी ही पटरी पर लौट आएगी उसकी उम्मीद मत रखिए. निरंतर जो आंकड़े आ रहे हैं उनके मुताबिक तो चालू तिमाही के आंकड़े पिछली तिमाही के आंकड़ों से कतई बेहतर नहीं हैं, और पूरे साल के आंकड़े यही दर्शाएंगे कि दहाई अंकों वाली वृद्धि दर हासिल करने और अच्छे दिन लाने के वादे पर नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से यह सबसे सुस्त वृद्धि दर वाला साल रहा. अब तक तो सरकार सबसे तेज अर्थव्यवस्था का हिस्सा रही है, लेकिन पूरे साल के लिए वित्तीय घाटे के लक्ष्य को सात महीने में ही पार कर लिया गया है. यह नहीं चल सकता. औद्योगिक उत्पादन सूचकांक निरंतर निराशाजनक गिरावट दर्शा रहा है, तो ‘कोर सेक्टर’ के आउटपुट के आंकड़े का भी यही हाल है. बिजली की खपत में गिरावट आई है, डीजल के उपभोग का भी हाल बुरा है, व्यापार के आंकड़े भी सिकुड़न को दर्शा रहे हैं और मैनुफैक्चरिंग में ठहराव है या प्रमुख सेक्टरों में इसमें गिरावट दर्ज़ की जा रही है. उपभोग हो या उद्योग, किसी भी क्षेत्र से कोई अच्छी खबर नहीं आ रही है.
हर मंदी का एक चक्र होता है और ऑटोमोबाइल क्षेत्र में जो गिरावट आई थी उसके उलटने के कुछ प्रमाण मिल रहे हैं, लेकिन, हकीकत यह है कि बैंक क्रेडिट में वृद्धि उद्योग की ओर नहीं जा रही है, जबकि कर्ज को बट्टे खाते में डालने की गति तेज हुई है. अपनी क्रेडिट निकासी में गिरावट देख चुकीं गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां सुस्ती को तोड़ने में असमर्थ हैं. कंपनियां अपनी बैलेंस शीट को अभी भी ऐसा बना रही हैं जिससे वे और अधिक कर्ज़ ले सकें. यह प्रक्रिया जब तक पूरी नहीं होती, नये निवेश की उम्मीद मत कीजिए.
हम जबकि इंतज़ार करेंगे कि ऐसे कुछ चक्रीय कारक अगली तीन-चार तिमाहियों तक के सिकुड़ते क्षितिज पर अपना काम करके दिखाएं, तब तक गहरे ढांचागत मसलों को दुरुस्त किए जाने का भी इंतज़ार रहेगा. कृषि को कमजोर उत्पादकता और घरेलू मांग में कमजोरी (जिसकी कुछ वजह ग्रामीण मजदूरी में ठहराव है) जैसे बुनियादी मसले को दुरुस्त करना होगा. सरकारी कर राजस्व आधार को छिद्रों के रास्ते कमजोर किया जा रहा है और किसी को मालूम नहीं है कि करों की साधारण समस्याओं को कैसे दूर किया जाए. सेवाओं के निर्यात की ताकत ने रुपये को उस स्तर पर बनाए रखा है जिस स्तर पर मैनुफैक्चरिंग के निर्यातकों को निर्यात बाज़ार में टिक पाना मुश्किल लग रहा है. सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार एक ऐसा कोट है जिसे एक बार फिर उस खूंटे पर टांग दिया गया है जिसे असमर्थ फ़र्मों के कर्मचारियों का भविष्य नाम दिया जाता है. अंत में, जबकि व्यापार जगत के अंबानी से लेकर रूइया तक, और थापड़ से लेकर सुभाष चंद्र सरीखे अगुआ एक-एक करके हथियार डाल रहे हैं, तब वृद्धि दर को तेजी प्रदान करने की भारत के मशहूर उद्यमियों की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह बड़ा ही होता जा रहा है.
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सबसे बढ़िया सलाह यही हो सकती है कि भारत इस संकट से उभरे अवसर को न गंवाए. मोदी सरकार अब तक तो ऐसे काम करती रही है मानो वह आर्थिक मोर्चे पर बुरी खबर की अनदेखी करते हुए अपने राजनीतिक और सामाजिक एजेंडा को आगे बढ़ा सकती है. अगर वह इसी लीक पर चलती रही तो बहुत बुरा होगा. संकट में सरकार लोगों से यह उम्मीद कर सकती है कि वे बड़े मकसद के लिए कुछ त्याग करें. निष्क्रियता का खतरा यह है कि 6 या इससे कम प्रतिशत की वृद्धि दर को सामान्य मान कर स्वीकार कर लिया जाएगा, उसे अमान्य नहीं माना जाएगा.
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मंदी तब कहते हैं जब जीडीपी ग्रोथ negative हो जाए. The Print को इतने जल्दी उछलने और खुश होने की जरूरत nahin है. थोड़ा सब्र करो।