राम जन्मभूमि मंदिर का पुनर्निर्माण होगा, यह भव्य और शानदार होगा, हमारे महान भगवान श्रीराम की महिमा का साक्षी होगा. हम वहां पूजा करेंगे. हम वहां उनकी अराधना करेंगे. हम वहां अपनी संस्कृति का जश्न मनाएंगे. लेकिन क्या हमें इतना भर ही करना चाहिए? क्या इस धरा पर उतरे महानतम पुरुष भगवान राम का हम पर इतना ही ऋण है? आइए हम इस पर थोड़ा विचार करते हैं.
यह बात वास्तव में दिलचस्प है कि हमारे अद्भुत महाकाव्य रामायण के सभी प्रारूपों में उस बात की बहुत कम चर्चा हुई है जिसके लिए कि भगवान राम सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं, अर्थात् रामराज्य या राम के शासन की. कहानियां आमतौर पर भगवान राम के संघर्षों पर केंद्रित हैं, अक्सर उस समय तक का कथानक जब वह रावण को पराजित कर देवी सीता को साथ लेकर वापस लौटते हैं. योग वशिष्ठ जैसे ग्रंथों में ज़रूर भगवान राम के व्यक्तित्व से जुड़े (और इसलिए उनके शासन में परिलक्षित) कुछ दर्शनों की चर्चा की गई है.
लेकिन रामायण के मुख्य पाठ में काफी हद तक उनके वापस लौटकर राजा बनने तक की कहानी है और उत्तरकांड में उसके बाद की घटनाओं का एक सारांश है. रामराज्य पर बहुत विस्तार से चर्चा नहीं की गई है. यहां तक कि रामायण शब्द का शाब्दिक अर्थ है राम की यात्रा. लेकिन आज भी रामराज्य लगभग हर भारतीय के दिलोदिमाग में प्रबल स्मृतियों को उभारता है, हमारी आत्मा के लिए किसी मंत्र की तरह. यह भगवान राम के प्रति हमारे प्रेम और श्रद्धा का आधार है. यदि आप देश में कहीं भी जाकर ये पूछें कि किसी राज्य के प्रशासन का सबसे अच्छा तरीका क्या होगा, तो हर धर्म, जाति और भाषाई पृष्ठभूमि के भारतीय का एक ही जवाब होगा- रामराज्य.
इस बात के पीछे कई कारण गिनाए जा सकते हैं कि भगवान राम के काल के सहस्राब्दियों बाद आज भी अधिकांश भारतीय रामराज्य को दिल की गहराइयों से क्यों याद करते हैं, पर रामायण में इसकी बहुत कम चर्चा है. शायद शासन की चर्चा उबाऊ होती है, लेकिन लड़ाइयां और प्रेम-कहानियां मानो महाकाव्य के लिए ही होती हों! महाभारत के पाठकों में से कम ही ऐसे होंगे जो शांति पर्व का इस महाकाव्य के पसंदीदा खंडों में उल्लेख करते हों या शायद उस युग के भारतीयों को पहले से ही रामराज्य के बारे में पता रहा हो और वे केवल उस महान भगवान की जीवनयात्रा को सुनने में रुचि रखते हों, जिन्होंने कि उस शासन व्यवस्था को स्थापित किया था.
लेकिन एक और संभावित कारण मेरा ध्यान आकर्षित करता है. संभव है प्रत्येक युग का अपना रामराज्य होता हो. भगवान राम के काल में रहने वाले भारतीयों ने रामराज्य की अपनी खुद की अवधारणा का अनुभव किया था और हमारे पूर्वजों ने ये तय किया कि उनके वंशजों को रामराज्य की अपनी खुद की धारणा विकसित करनी चाहिए. इसलिए हमारी परंपरा इस बात के लिए प्रेरित करती है कि मौजूदा दौर में रामराज्य के स्वरूप के बारे में हम सभी को सामूहिक रूप से चिंतन, मनन और विमर्श करना चाहिए.
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इस दृष्टिकोण से देखा जाए, तो रामायण के विभिन्न प्रारूप हमारे लिए एक प्रेरणा हैं कि नेता को कैसा होना या नहीं होना चाहिए, लोगों को कैसा होना या नहीं होना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि एक समाज के रूप में हम सामूहिक रूप से जो कुछ भी हासिल करने की उम्मीद करते हैं, उसका केंद्रीय तत्व क्या होना चाहिए.
लेकिन, रामराज्य पर चर्चा तभी संभव है जब हमें ये स्पष्ट हो कि हम कौन हैं और यह निर्णय- सही या गलत- आमतौर पर सत्ताधारी अभिजात वर्ग द्वारा लिया जाता है, वह वर्ग जिसमें शीर्ष राजनेता, नौकरशाह, न्यायपालिका, शिक्षाविद, मीडिया, उद्यमी, कलाकार आदि शामिल हैं. भारत में यह सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग पिछले 150 वर्षों से, कम से कम सांस्कृतिक रूप से, काफी हद तक एकसमान है. उन्हें मैकालेपुत्र कहा जाता है. उन ब्रितानी नीतियों के निर्धारक के सांस्कृतिक वंशज जिनका उद्देश्य एक ऐसे वर्ग की स्थापना था जिनमें खून तो भारतीय हो, पर खानपान, भाषा और संस्कृति की दृष्टि से वे ब्रितानी हों.
इस वर्ग द्वारा प्रयुक्त मुहावरे, सांस्कृतिक धारणाएं, भाषाएं आदि काफी हद तक, ब्रिटिश राज की विरासत हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वे भारत से प्यार नहीं करते हैं. बेशक वे करते हैं. इसका मतलब सिर्फ इतना है कि उस प्यार को व्यक्त करने का उनका तरीका अलग है, वे खुद को एक ऐसे देश के सुधारक के रूप में देखते हैं जो पूर्व-आधुनिक काल में जी रहा है (उनमें से कुछ लोग ‘असभ्य’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं). एक बार इसे समझ लेने पर आप ये भी समझ जाएंगे कि यह वर्ग हर भारतीय चीज को किस दृष्टि से देखता है और इस वर्ग को प्राचीन देवताओं में से सर्वाधिक घृणा भगवान राम से रही है, उनकी आलोचना इनके लिए एक तरह से फैशनेबल रहा है.
लेकिन जैसा कि फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी पुस्तक ‘आइडेंटिटी’ में बताया है, हम अपनी आदिम पहचान से प्रेरित होते हैं और आज, एक अन्य आदिम वर्ग सत्ताधारी अभिजात की भूमिका संभालने के लिए तैयार है. इन्हें धरतीपुत्र कहना सटीक होगा; धरती की संतान. चूंकि ये साफ है कि भविष्य धरतीपुत्रों का ही है, इसलिए इस वर्ग का आंतरिक विमर्श आज भारत के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. मैकालेपुत्रों की तरह यह वर्ग भी भारत से बहुत प्यार करता है. हालांकि वे निश्चित रूप से आधुनिक युग के प्रमुख प्रतिमानों से, यानि पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हैं. लेकिन इन सबके बीच, इस वर्ग द्वारा प्रयुक्त मुहावरे, उनके खानपान, उनकी सांस्कृतिक धारणाएं आदि आमतौर पर प्राचीन भारतीय परंपराओं पर आधारित हैं और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस वर्ग की भगवान राम में आस्था है. हालांकि, आंख मूंदकर विश्वास करने जैसी कोई बात नहीं है, पर भारतीय परंपरा के अनुसार ईशनिंदा की भी अवधारणा नहीं है. इसलिए आवश्यक लगने पर यह वर्ग भगवान राम पर सवाल उठाता है, जैसे देवी सीता के साथ उनके व्यवहार कें संदर्भ में. लेकिन ऐसा करने पर भी भगवान राम के प्रति उनके मन में जो दृढ़ और अगाध श्रद्धा है, वो कम नहीं होती. पर इस कदर श्रद्धा और भक्ति के बावजूद, क्या यह वर्ग भगवान राम से सीख ग्रहण करता है? हम इस पर आगे विचार करेंगे.
अभी अभिजात तंत्र पर धरतीपुत्रों का पूरी तरह से नियंत्रण नहीं हो पाया है. उन्होंने शुरुआत भर की है. और वैचारिक रूप से भी अभी वे स्थापित नहीं हो पाए हैं. और इस दिशा में प्रगति किसी सुविचारित नीति के तहत नहीं हो रही है. उनमें से कुछेक आज भी मैकालेपुत्रों के प्रति गहरी नापसंदगी का भाव रखते हैं और उन्हें ‘असल दुश्मन’ के रूप में देखते हैं. वे उनसे लड़ने में बहुत अधिक ऊर्जा खर्च करते हैं. ये व्यर्थ की कवायद है. उन्हें इस बात से सीखना चाहिए कि भगवान राम दूसरों – अपने दुश्मनों समेत – के साथ कैसा व्यवहार करते थे. और सबसे अधिक उन्हें भगवान राम से सीखना चाहिए कि विमर्श का महत्वपूर्ण विषय ये नहीं है कि अपने दुश्मनों के साथ आपका क्या व्यवहार है, बल्कि ये है कि आप अपने लोगों के लिए क्या करते हैं.
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इस वर्ग को अपने लोगों, यानि आम भारतीयों के लिए क्या करना चाहिए? हम किस तरह का समाज चाहते हैं? हमें किन ग्रंथों का हवाला देना चाहिए? भारतीय आकांक्षा क्या है? विज्ञान के प्रति हमारा दृष्टिकोण क्या है? महिला अधिकारों के बारे में हमारा रवैया क्या है? लैंगिक और धार्मिक अल्पसंख्यों के बारे में हमारा नज़रिया क्या है? क्या हम वर्ग विशेष के अधिकारों पर आधारित अलग-अलग कानूनों में यकीन करते हैं या हमारा भरोसा वैयक्तिक अधिकारों और समानता की बुनियाद पर आधारित एक सार्वभौम कानून में है? आर्थिक विकास और पर्यावरणवाद के बीच संतुलन क्या है? शांतिवाद और हमारा भला नहीं चाहने वाले देशों के प्रतिरोध के बीच क्या संतुलन है? अनुशासित व्यवस्था और आज़ादी के बीच क्या संतुलन है? क्या हम अतीत के अपराधों के लिए अपराध-बोध में यकीन करते हैं? क्या हम सामुदायिक अपराध-बोध की धारणा में विश्वास करते हैं? शिक्षा को लेकर हमारा क्या दृष्टिकोण है? इतिहास के बारे में, कला के बारे में, साहित्य के बारे में हम क्या सोचते हैं?
इतने सारे विचारणीय मुद्दे है. बहस के इतने विषय हैं. और ये सब सार्वजनिक तौर पर होने चाहिए. मैंने रामायण की अपनी व्याख्या – रामचंद्र श्रृंखला की 5 किताबें – में इनमें से कुछ सवालों पर विचार करने की कोशिश की है. मैं इस बारे में और विचार-विमर्श होते देखना चाहूंगा. कदाचित ये बहस भविष्य में निर्मित राम जन्मभूमि मंदिर में हो – छानबीन, परस्पर सम्मान और परिपक्वता के भाव के साथ. पर इससे भी अहम बात ये कि ये बहस मात्र वार्तालाप नहीं हो. वे कर्म में परिवर्तित हों. हम उन विचारों को अमल में लाएं; धरतीपुत्र, संभवत: मैकालेपुत्रों के साथ, आम आदमी की भलाई के लिए मिलकर काम कर सकें. कभी-कभार असहमति के साथ, लेकिन संभव हो सके तो बगैर असहमत हुए. क्योंकि भगवान राम हमसे यही अपेक्षा करेंगे. और उनके सम्मान का सबसे अच्छा तरीका यही है.
रामराज्यवासी त्वम्,प्रोच्छ्रयस्व ते शिरम्
न्यायार्थम युद्धस्व,सर्वेषु समं चर
परिपालय दुर्बलम्,विद्धि धर्मं वरम्
प्रोच्छ्रयस्व ते शिरम्,
रामराज्यवासी त्वम्.
तुम रामराज्य वासी,अपना मस्तक ऊंचा रखो.
न्याय के लिए लड़ो. सबको समान मानो.
निर्बलों की रक्षा करो. जान लो कि धर्म सबसे बढ़कर है.
अपना मस्तक ऊंचा रखो,
तुम रामराज्य के वासी हो.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(अमीश त्रिपाठी एक राजनयिक और लेखक हैं. वर्तमान में वह लंदन स्थित नेहरू केंद्र के निदेशक हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं. यह आलेख पहले ओआरएफ की वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुका है.)