भाषा की तरह गणित की कक्षा में सामान्यत: कविता और कहानियां न होने से कई बार छोटे बच्चों को यह विषय बोझिल लगने लगता है. इसलिए, गणित के शिक्षक के लिए अपनी कक्षा में बच्चों को अच्छी तरह से सिखाना और इस विषय में उनके भीतर रुचि जगाना एक बड़ी चुनौती बन जाती है.
जिला मुख्यालय औरंगाबाद से लगभग 65 किलोमीटर दूर वीटा गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल में भी एक साल पहले तक यही स्थिति थी. इस स्कूल के शिक्षकों बताते हैं कि एक वर्ष पहले यहां गणित की कक्षा में बच्चे न के बराबर हाजिर रहते थे, ज्यादतर बच्चे अंकों के जटिल सवाल न सुलझा पाने और समय पर होमवर्क न कर पाने के कारण शिक्षक से डरते थे. इसलिए, वे गणित की कक्षा में आने से कतराते थे. यही वजह है कि यहां के ज्यादातर बच्चे गणित में फिसड्डी थे.
पर, गणित के एक शिक्षक ने शिक्षण की नई पद्धति से महज एक वर्ष में यहां की दशा और दिशा बदल दी है. यहां के शिक्षकों की मानें तो इस स्कूल के बच्चे अब गणित में सबसे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं. पिछले वर्ष पहली से पांचवीं तक 30 प्रतिशत बच्चे ही गणित में अच्छा और संतोषजनक प्रदर्शन कर पा रहे थे. लेकिन, नई पद्धति पर आधारित गतिविधियां आयोजित करने से सभी बच्चों को बराबरी का मौका मिला.
इस दौरान विशेष तौर पर गणित में कमजोर बच्चों पर ध्यान दिया गया. गणित के शिक्षक ने बच्चों की जोड़ियां व समूह बनाएं और उन्हें खेल-खेल में एक-दूसरे से सीखने का अवसर दिया. इसी का परिणाम है कि अब यहां के शत-प्रतिशत बच्चे गणित में उम्मीद से बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं.
गणित के शिक्षक आरबी देशमुख के अनुसार इसके लिए स्कूल ने कक्षा स्तर पर कुछ विशेष सत्र आयोजित किए. गणित के सवाल न सुलझा पाने के कारण अब किसी बच्चे को कक्षा का कोई दूसरा बच्चा चिढ़ाता नहीं है. इसलिए, बच्चे गलत उत्तर लिखने के बावजूद शिक्षक को दिखाने से घबराते नहीं हैं.
अहम बात यह है कि यहां के बच्चों में गणित के प्रति इस हद तक रुचि जागी है कि यह विषय उनके रोजमर्रा के जीवन में उपयोगी साबित हो रहा है. उदाहरण के लिए, वे स्कूल परिसर में बाजार लगाते हैं. इस बाजार के माध्यम से उन्होंने पैसों का लेन-देन और कई चीजों के वजन की माप का व्यवहारिक ज्ञान समझा है. इसी तरह, इन बच्चों ने स्कूल में अपना एक बैंक भी बनाया है.
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बता दें कि करीब तीन हजार की आबादी के विटा गांव में अधिकतर परिवारों की आजीविका का मुख्य स्त्रोत खेती है. वर्ष 1946 में स्थापित इस मराठी माध्यम के स्कूल में पहली से पांचवीं तक 132 बच्चे पढ़ते हैं. वहीं, यहां प्रधानाध्यापक सहित 6 शिक्षक कार्यरत हैं. इस स्कूल में नबंवर, 2018 से गणित को बढ़ावा देने के लिए नई शिक्षा पद्धति पर आधारित सत्र आयोजित किए जा रहे हैं.
इस तरह बच्चे बने शिक्षक
आरबी देशमुख के मुताबिक एक वर्ष पहले की स्थिति के बारे में बताते हैं कि गणित के प्रति बच्चों में रुचि जगाने के लिए उन्होंने कुछ विशेष प्रयास किए थे. इसके बावजूद बच्चों में अपेक्षित सुधार नहीं आ रहे थे. वे कहते हैं, ‘तब मेरी कक्षा में बच्चे अक्सर गोल रहा करते थे. खास तौर से गणित में कच्चे बच्चे संकोच के कारण या तो कुछ पूछते ही नहीं थे या, फिर दुबककर पीछे बैठते थे. फिर मैंने नई पद्धति से उन्हें सिखाना शुरु किया।. इस दौरान कमजोर और होशियार बच्चों की जोड़ियां और समूह बनाएं. जब होशियार बच्चा अन्य कमजोर बच्चों को गणित के सवाल हल कराने लगा तो उसमें एक जिम्मेदारी का अहसास हुआ. वह कमजोर बच्चों की अधिक से अधिक मदद करने लगा. कह सकते हैं कि एक तरह से वह मेरा ही काम करने लगा। या, मेरी ही मदद करने लगा.’
प्रधानाध्यापक बाबा साहेब भागीनाथ बताते हैं कि पहले उनके मन में शंका थी कि शिक्षण का यह नया तरीका बच्चों को अच्छा लगेगा या नहीं पर, 2-3 महीने के बाद जब जोड़ियां और समूहों में बच्चे एक-दूसरे की मदद करने लगे, सीखने लगे और अच्छा प्रदर्शन करने लगे तो उन्होंने इस बढ़ावा दिया.
पांचवीं के प्रतीक गाले की मानें तो गणित की कक्षा में शिक्षक तरह-तरह के खेल भी कराते हैं. कई बार कक्षा में नाचना और गाना होता है. इससे कई बार उसे लगता है कि देशमुख सर शिक्षक नहीं, बल्कि कक्षा के ही एक बच्चे हैं.
दूसरी के कृष्ण शिंदे की मानें तो इन गतिविधियों में उसे ‘मेरी क्षमता’ गतिविधि बहुत पसंद हैं. उसके शब्दों में, ‘इसमें हम खुद अपने लिए अंक देते हैं, कि हम कौन-सा काम कितनी अच्छी तरह से कर सकते हैं जैसे, यदि हम बिना मां की मदद के नहा नहीं सकते, तो खुद को 0 अंक देते हैं. पर, यदि मां की मदद के साथ खुद साबुन लगा सकते हैं, तो खुद को 1 या 2 अंक देते हैं. पर, यदि बिना किसी की मदद के नहा सकते हैं, तो खुद को 3 अंक भी देते हैं.’
इस बारे में एक अन्य शिक्षक आरके गडाख कहते हैं कि इन गतिविधियों से बच्चों में गणना करने की क्षमता विकसित होती है. साथ ही वे पूरी ईमानदारी से अपने काम और कौशल का आकलन करते हैं.
दूसरी तरफ, गणित पर आधारित कुछ सहयोगी खेलों के कारण भी इस विषय में बच्चों की रुचि बढ़ रही है. इसके कारण परोक्ष रूप से वे पहले से अच्छा परीक्षा परिणाम ला रहे हैं. इसके अलावा गणित की कक्षा में चित्र, वीडियो और अन्य खिलौने या उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है. इससे बच्चे कठिन से कठिन पहेलियां भी बड़ी आसानी से सुलझा रहे हैं.
तीसरी के हरिओम निकम बताता है कि पहली के बच्चों को गिनती, दूसरी के बच्चों को जोड़-घटाना, गुणा-भाग सब आने लगा है. उसके शब्दों में, ‘ऐसा इसलिए, कि सारे बच्चे समूह में पढ़ते, लिखते, खेलते और सीखते हैं.’
नये साल पर लगाया मेला
गणित विषय पर आयोजित सत्र आयोजित होने के दो महीने बाद बच्चों ने जनवरी 2019 में स्कूल परिसर में ही बाजार लगाया. इसमें स्कूल के सभी कर्मचारियों के अलावा बच्चों के परिजन, ग्रामीण और शिक्षा विभाग के अधिकारी आए. आरबी देशमुख के मुताबिक इस बाजार की सबसे अच्छी बात यह थी कि जो बच्चे सबके सामने आने से डरते या शर्माते थे, वे उस दिन अच्छी तरह से लेन-देन कर रहे थे. बच्चे अच्छी तरह से अपनी वस्तुओं को बेच रहे थे और पैसे का हिसाब रख रहे थे.
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पांचवीं की प्रणाली खैरनार बताती है, ‘उस दिन मैं मेरे खेत से एक बड़े बौरे प्याज भरकर लाई. सारी प्याज बेच दी. तीन सौ रुपए कमाए.’
इसलिए तैयार किया बैंक
इसके बाद बच्चों ने एक बैंक व्यवस्था तैयार की. इसे उन्होंने ‘आदर्श विद्यार्थी बैंक’ नाम दिया. बच्चों ने बातचीत में बताया कि इस बैंक में वे घर से मिलने वाले जेब खर्च का पैसा जमा करते हैं. यह बैंक हर कक्षा में चलाया जा रहा है. बच्चे अपने बैंक में अपना पैसा कक्षा-शिक्षक के पास जमा करते हैं. कक्षा-शिक्षक के पास एक पासबुक होती है. इस पासबुक में बच्चे का नाम, पता, कक्षा और अन्य विवरण के साथ उसका एक पासपोर्ट आकार का फोटो होता है. इसी पासबुक में उसके लेने-देन का पूरा हिसाब रखा जाता है. पासबुक में जब बच्चा पैसा जमा करता है या पैसा निकालता है तो बच्चे को उससे संबंधित एक पर्ची दी जाती है.
शिक्षक जीए दुबे के अनुसार, इसके पीछे उद्देश्य है बच्चों को बैंकिंग प्रणाली समझाना. पहले बच्चा आठवीं या दसवीं में पहुंचने के बाद बैंक का मतलब समझता था पर, अब चौथी और पांचवीं के बच्चे इस व्यवस्था को न सिर्फ जान रहे हैं, बल्कि चला भी रहे हैं. फिर उनमें बचत के अभ्यास की आदत भी विकसित हो रही है.
पांचवीं के देवेन्द्र भोजने को अब बैंक का महत्त्व मालूम है. देवेन्द्र के अनुसार, ‘बहुत बार हमारे घर वाले घर से खेत में काम करने के लिए जाते हैं. यदि तभी हमें पेन या कॉपी खरीदनी पड़े, तो हमारे पास पैसे नहीं रहते थे. हम किसी से पैसे मांग भी नहीं सकते थे पर, अब हमारे पास हमारी बचत का पैसा है. हमें पैसा चाहिए तो हमें एक पर्ची भरनी पड़ती है. इसके बाद हम अपने काम की चीज खरीद लेते हैं.’
(शिरीष खरे शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं और लेखक हैं.)