यूपी और बिहार को मिलाकर लोकसभा की कुल 120 सीटें हैं. 2014 में इन दो राज्यों से भाजपा और उसके साथी संगठनों ने मिलकर लगभग 106 सीटें निकाली थीं. गौरतलब है कि इन दोनों ही राज्यों में चाहे मुद्दा कुछ भी हो, टिकट तो जाति के आधार पर बांटे जाते हैं. तब कहा गया था कि भाजपा के सबका साथ, सबका विकास के नारे पर जाति से ऊपर उठकर वोट सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर दिया गया था.
पर 2019 में मामला पलटता दिख रहा है. 2014 जैसे करिश्मे की उम्मीद नहीं है. सत्ताधारी भाजपा राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मुद्दे पर जा रही है. अमित शाह, नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ समेत तमाम नेता इन दो मुद्दों को ही उछाल रहे हैं. वहीं विपक्ष भी भाजपा पर हमला करने के लिए इन दो मुद्दों का ही सहारा ले रहा है. प्रियंका गांधी लगातार लोगों को राष्ट्रवाद का मतलब समझा रही हैं. वहीं तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, अरविंद केजरीवाल और राहुल गांधी भाजपा पर सांप्रदायिकता का आरोप लगा रहे हैं.
पर अगर भाजपा, कांग्रेस समेत सभी पार्टियों के कैंडिडेट्स की लिस्ट देखें तो इसमें ज्यादातर जगह किसी मुद्दे के आधार पर टिकट नहीं दिया गया है. टिकट देने का आधार सिर्फ एक है– जाति.
कयास लगाये जा रहे हैं कि यूपी और बिहार दोनों ही राज्यों में इस बार भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. यूपी में अखिलेश यादव और मायावती ने गठबंधन कर लिया है. वहीं बिहार में तेजस्वी यादव और कांग्रेस ने गठबंधन कर कड़ी चुनौती पेश की है.
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तो क्या भाजपा का हिंदुत्व का मुद्दा यूपी और बिहार के लोगों को रास नहीं आ रहा? जबकि अयोध्या आंदोलन यूपी में ही हुआ, बाबरी मस्जिद गिराई गई. हाल–फिलहाल में भी काफी सांप्रदायिकता बढ़ी है. पर ये सांप्रदायिकता इस बार समर्थन में तब्दील क्यों नहीं हो पा रही?
भाजपा के एक कार्यकर्ता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं– सिर्फ यादव वोट ही यूपी और बिहार दोनों जगहों पंगा कर रहे हैं. इनके ही न जुड़ने से हिंदुत्व का मुद्दा कमजोर पड़ रहा है.
गौरतलब है कि बिहार में यादव वोट लालू प्रसाद यादव के नाम पर जाता थ और अब तेजस्वी ने कमान संभाल ली है. वहीं यूपी में यादव वोट मुलायम सिंह यादव के नाम पर जाता था और अब उनकी लॉयल्टी अखिलेश यादव के साथ हो गई है. बिहार और यूपी दोनों में ही यादव वोट की संख्या अच्छी–खासी है. बिहार में तो लालू प्रसाद यादव ने मुस्लिम–यादव समीकरण बनाकर ही 15 साल शासन कर लिया था. वहीं मुलायम सिंह यादव ने भी लगभग मुस्लिम–यादव समीकरण पर ही काम किया है.
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इस परिप्रेक्ष्य में ‘यादव’ वोट रोचक हो जाते हैं. अगर राज्य के चुनावों के हिसाब से देखें तो यादव वोट वहां पर जातिगत आधार पर पोलराइज करता है. पर अगर केंद्रीय चुनाव के हिसाब से देखें तो यही यादव वोट सांप्रदायिकता के खिलाफ दो पार्टियों का हथियार बनकर उभरता है.
गौरतलब है कि 1990 में जब लालकृष्ण आडवाणी ने रथ–यात्रा निकाली तो लालू प्रसाद यादव ने ही समस्तीपुर में उन्हें गिरफ्तार कराया था. प्रसाद आज तक उस बात को बहुत गर्व से बताते हैं. उसी दौरान अयोध्या में बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर कारसेवकों पर गोली चलवा कर मुलायम सिंह यादव ने ‘मुल्ला मुलायम’ का भी विशेषण हासिल कर लिया.
पर अगर बिहार और यूपी दोनों राज्यों में ‘यादव सरकारों’ को देखें तो लालू और मुलायम दोनों पर ही अपने शासन में ‘यादवों’ को प्रमुखता देने के आरोप लगे थे. हालांकि यही आरोप योगी आदित्यनाथ पर भी लग रहे हैं कि वो ठाकुरों को प्रमुखता दे रहे हैं. ऐसा लगता है कि राज्यों में जातिगत राजनीति ‘वोट पोलराइज’ करने के काम आती है.
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2002 में द हिंदू में लिखे एक आर्टिकल में कांचा इलैया लिखते हैं कि हिंदुत्व की ताकतें सांप्रदायिकता फैलाने के लिए ओबीसी जातियों का सहारा लेती हैं. जेलों में भी ओबीसी ही गये हैं, सवर्ण नहीं. कहने का मतलब कि हिंदुत्व की सफलता के लिए ओबीसी का समर्थन आवश्यक है.
ध्यान देने की बात है कि 1990 में ही मंडल और कमंडल का मुद्दा उठा था. मंडल कमीशन से ओबीसी का ही फायदा हुआ था. और कमंडल से हिंदुत्ववादी ताकतों का. उस वक्त से ही ओबीसी को हिंदुत्व के रंग में रंगने की कोशिश जारी है.
पर यूपी और बिहार में जातिगत हिसाब से यादव वोट सबसे ज्यादा हैं और इनके नेता भी बाकी नेताओं की तुलना में बड़े निकले. एक तरीके से कहा जा सकता है कि दोनों राज्यों में यादव नेताओं ने ओबीसी समाज का नेतृत्व किया. हालांकि ओबीसी नरेंद्र मोदी काफी हद तक अन्य ओबीसी वोट तोड़ने में सफल रहे. पर ये कहा जा सकता है कि फिर भी यादव और सपा–राजद के लॉयल वोट्स ने अभी भी सांप्रदायिकता और हिंदुत्व को फैलने से रोक रखा है.