नई दिल्ली: भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ओडिशा की पुरी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. जबसे वो वहां चुनाव प्रचार करने गए हैं तबसे ही उनकी खाना खाते हुए तस्वीरें वायरल हो रही हैं. कुछ लोग ये बात जानने के लिए उत्सुक हैं कि किसी गरीब-किसान और पिछड़ा वर्ग के घर खाना खाने से वोट कैसे मिलेंगे?
संबित पात्रा ऐसे पहले नेता नहीं हैं जो गरीब के घर खाना खा रहे हैं, उनसे पहले भी राष्ट्रीय पार्टियां ये चुनावी ट्रिक इस्तेमाल करती रही हैं. अक्सर राहुल गांधी के किसी गरीब के घर जाने, वहां खाना खाने और सुख-दुख गपियाने से लेकर रात में सोने तक जा चुके हैं. 2017 में अमित शाह समेत हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर अपनी पार्टी के पिछड़ा वर्ग के एक कार्यकर्ता के घर खाना खा चुके हैं. खबर तो ये भी है कि भाजपा पार्टी ने अपने नेताओं को निर्देश दिए हैं कि वो पिछड़ा वर्ग के लोगों के घर जाकर खाना खाएं.
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ग्रामीण और गरीब लोगों का विश्वास जीतने का तरीका
गांव-देहात में खाना और चाय-पानी आपसी रिश्तों को बढ़ाते हैं. अक्सर ही नेता गांव व कस्बों में जाकर किसी के घर खाना खाते हैं. एक तो इससे उस वर्ग विशेष का सम्मान बढ़ता है. दूसरा उस नेता के ‘जननेता’ होने का संदेश भी जाता है. मतलब जो जनता के बीच रहता है. ध्यान रहे कि गांवों में लड़ाई-झगड़ा होने पर लोगों का हुक्का-पानी भी बंद किया जाता है. मतलब ना तो उनके घर कोई खाने जाएगा, ना ही बुलाएगा. जाति तोड़ने के लिए भी रोटी-बेटी का नारा दिया गया था.
गांव देहात में एक-दूसरे के घर खाना-खाना अनिवार्य है, प्रगाढ़ता बढ़ाने के लिए. आज भी गांवों में शादियों में जब तक कोई कई बार न बुलाये, लोग खाने नहीं जाते. राजनीतिक पार्टियां गांवों की इन्हीं भावनाओं का इस्तेमाल करती हैं.
एक दौर था जब गरीबों और किसानों के घर जाना सुर्खियां नहीं बटोरता था
एक समय वह भी था जब देश की राजनीति में ग्रामीण, किसान और पिछड़ा वर्ग से नेता निकला करते थे. इनमें से कई नेताओं ने गांव-देहात में अचानक पहुंच कर सरप्राइज़ करने की नीति अपनाई. जैसे हरियाणा में चौधरी देवीलाल, राजस्थान में नाथूराम मिग्गा और बिहार में लालू प्रसाद यादव. चौधरी देवीलाल के बारे में कहा जाता है कि वो खेत में फसल काट रहे किसान के पास भी पहुंच जाते थे और वहीं बैठकर बात करने लगते. अगर किसी चौपाल पर कुछ बुजुर्ग हुक्का पीते दिख जाते तो वहीं गाड़ी रोककर हुक्का पीने लगते. ऐसा ही लालू यादव के बारे में कहा जाता है कि वो मजदूर के घर से भी मांग कर दाल भात खा लेते. राजस्थान के नाथूराम मिग्गा के बारे में भी ऐसे ही रोचक किस्से हैं.
लेकिन देवीलाल के समकालीन राव बिरेंद्र, भजनलाल या बंसीलाल ऐसा नहीं करते थे. लालू के समकालीन नेता भी इस तरह गरीबों के घर खाना नहीं खाने जाते थे. सोशियोलॉजिस्ट व प्रोफेसर डॉक्टर रणबीर सिंह का कहना है कि इस तकनीक के ज़रिए ये बात स्थापित की जाती है कि मैं भी आप लोगों में से ही एक हूं.
मुद्दा ये है कि क्या इससे लोग प्रभावित होते हैं
आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो अव्वल तो देश में कोई किसान नेता ही नहीं है. दिल्ली जैसे महानगर से जाकर कोई नेता किसी गरीब किसान के घर खाना खा रहा है तो जनता नेता की चालाकी समझ जाती है. दूसरा सिर्फ चुनाव के दौरान इस तरह की तस्वीरें आना आपकी मंशा पर सवाल खड़ा करता है. कुछ लोगों का मानना है कि अब इस तरह करना वोट बैंक नहीं बढ़ा सकता.
जनता समझदार हो चुकी है. इस तरह किसी पिछड़ा वर्ग या किसी किसान के घर भोजन करना आर्टिफिशियल लगता है. यही वजह है कि आज गरीबों के घर खाना खाते हुए जो तस्वीरें आती हैं, उनसे किसी की सहृदयता या प्रेम का भाव नहीं टपकता, बल्कि इन तस्वीरों का मज़ाक बनाया जाने लगा है. वजह है सिर्फ कृत्रिमता.
क्या कहते हैं राजनीतिक लोग
राजनीतिक विशेषज्ञ योगेंद्र यादव ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम वही दिखाने की कोशिश करते हैं जो हम सामान्यतः नहीं करते हैं. गरीबों के साथ खाना खाते हुए तस्वीरें खिंचवाना ओवर ऑल पैकेज का हिस्सा होता है. दरअसल ये दिखाता है कि एक नेता जनता से कितना दूर है. पुराने नेताओं की बात करें तो उस समय भी ऐसा करने के पीछे एक राजनीतिक मंशा ज़रूर होती थी. लेकिन इसके ज़रिए वो लोगों से जुड़े रहते थे. इस तरह खाना खाने का सांकेतिक महत्व भी होता था.
मगर आज सोशल मीडिया के युग में ऐसा करने की ज़रूरत नहीं है. जिस तरह महिला दिवस साल में एक बार मनाया जाता है वैसे ही पांच साल में किसी गरीब के घर नेता का भोजन करने जाना है. अगर पुराने नेता इस तरह जनता से जुड़ते थे तो खबरें नहीं बनती थीं लेकिन अब किसी नेता का गरीब के घर जाना खबर बन रही है तो सामान्य बात नहीं है. वैसे भी बीस साल पहले समाजवादी पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भी इस तरह करते थे.’