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Sunday, 3 November, 2024
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दिग्विजय सिंह को क्यों दी गई मध्यप्रदेश की सबसे कठिन सीट

कांग्रेस के लिए कठिन मानी जा रही भोपाल सीट से प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मैदान में उतारा है. क्या सिंह भोपाल की नैय्या पार लगा पाएंगे.

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नई दिल्ली: लोकसभा चुनावों की बढ़ती सरगर्मियों के बीच प्रत्याशियों के टिकटों का एलान शुरू हो गया है. कांग्रेस पार्टी ने मध्य प्रदेश में 29 लोकसभा सीट में से 7 सीटों पर उम्मीदवारों के नामों का एलान कर दिया है. 1989  य़ानी 30 साल से भी अधिक समय तक भाजपा के कब्जे में रही भोपाल सीट भी शामिल है. कांग्रेस के लिए कठिन मानी जा रही भोपाल सीट से प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को मैदान में उतारा है. आखिर क्या वजह है कि कांग्रेस ने इस सीट के लिए सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय को चुना.

कठिन सीट, जोरदार चुनौती 

बीते दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था कि दिग्विजय सिंह को कठिन सीट से चुनाव लड़ना चाहिए. मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए भोपाल सीट सबसे कठिन मानी जाती है. आखिरी बार 1984 में कांग्रेस के केएन प्रधान ने भाजपा के लक्ष्मी नारायण शर्मा को 128664 वोटों से हराया था. जिसके बाद से इस सीट पर लगातार भाजपा जीत रही है.

यही नहीं पिछले नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में भोपाल की 8 विधानसभा सीटों में कांग्रेस केवल 3 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई थी.

भाजपा में भी अच्छे संबंध

मध्यप्रदेश में दस साल तक मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह के कांग्रेस में पकड़ होने के साथ ही भाजपा में भी अच्छे संबंध हैं. पिछले महीने कमलनाथ सरकार में मंत्री और दिग्विजय सिंह के बेट जयवर्धन सिंह ने कहा था कि वे भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर को अपना आदर्श मानते हैं. जिसके बाद दिग्विजय सिंह ने ट्वीट करके अपने बेटे की बात पर सहमति जताई थी. यही नहीं उन्होंने अपने बेटे को नसीहत भी दी थी कि वे बाबूलाल से सीखें कि संबंध कैसे बनाए जाते हैं और चुनाव कैसे जीता जाता है.

दिग्विजय की नर्मदा यात्रा में भंडारे के वक्त भाजपा के भी कुछ नेता मौजूद थे. जिसमें पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा भाजपा सांसद प्रह्लाद पटेल और प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार में मंत्री रहे उनके भाई जालम सिंह पटेल शामिल थे. वहीं दिग्विजय सिंह को अपना भाई मानने वाली केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने भले वहां पहुंचने में असमर्थता जताई लेकिन उनसे मिलने का वादा जरूर किया.

इसके अलावा भाजपा विधायक रमेश सक्सेना व पूर्व विधायक जोधाराम गुर्जर भी दिग्विजय सिंह के खास समर्थक माने जाते हैं.

नर्मदा यात्रा का फायदा मिला

72 साल के दिग्विजय सिंह ने पिछले साल करीब 3800 किलोमीटर की लंबी पदयात्रा की थी. इस पदयात्रा में उन्होंने राज्य की 230 विधानसभा सीटों में से 110 सीटों से गुजरते हुए 6 महीने तक शहर-शहर और गांव-गांव छान मारा था. इसका फायदा कांग्रेस को हालिया विधानसभा चुनावों में भी  देखने को मिला, जब राज्य की 114 सीटों पर पार्टी को जीत हासिल हुई थी.

दिग्विजय सिंह की इस नर्मदा यात्रा से गंगा नदी बचाने का भी आह्वान किया गया जोकि देश के 40 करोड़ लोगों को जोड़ता हुआ एक भावनात्मक मुद्दा है. इसके अलावा दिग्विजय ने अपनी इस यात्रा के दौरान ओंकारेश्वर नाथ समेत कई मंदिरों में भी पूजा अर्चना की जिसके तहत कहा जा रहा कि उन्होंने कांग्रेस से नाराज चल रहे हिंदू वोटों को साधने की पूरी कोशिश की है. उनकी नर्मदा यात्रा खत्म होने से एक दिन पहले कल्कि पीठाधीश्वेर के प्रमोद कृष्णन और हिंदू महासभा के चक्रपाणि ने तारीफ की थी.

जरूरत पड़ने पर निभाई है पार्टी में फेविकोल की भूमिका

दिग्गी राजा के नाम से मशहूर दिग्विजय सिंह ने 2003 में मध्य प्रदेश का चुनाव हारने के बाद 10 साल तक चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान किया था. इसके बाद वो अपने बेतुके बयानों के लिए काफी चर्चा में रहे थे लेकिन पार्टी के भीतरखाने में मची घमासान को शांत कराने में हमेशा उनकी मदद ली जाती रही है. 1993 में अविभाजित मध्यप्रदेश की 320 सीटों में 174 सीटे जीतकर पहली बार मुख्यमंत्री बनने वाले दिग्विजय सिंह के यह नेतृत्व का कमाल था कि 1998 में एक बार फिर से उनकी अगुवाई में कांग्रेस 172 सीटें जीतकर सत्ता में आई. ये वो दौर था जब कांग्रेस हिंदी भारतीय राज्य में सिकुड़ रही थी लेकिन दिग्विजय ने अपने कैडर को मजबूत रखा और दिल्ली से लेकर मध्य प्रदेश तक सत्ता में अपने नुमाइंदों को दुरुस्त रखा.

पिछले कुछ वर्षों से पार्टी में मचे घमासान को उन्होंने अपनी ऐतिहासिक नर्मदा यात्रा कर शांत किया, जिसके बाद उन्होंने कहा था कि वे पार्टी में केवल फेविकोल की भूमिका निभाना चाहते हैं.

अब देखने वाली बात है कि क्या कांग्रेस दिग्विजय सिंह के सहारे भोपाल की नैय्या पार लगा पाएगी.

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