रामविलास पासवान अपने पांच दशक के राजनीतिक जीवन के सबसे निचले बिंदु पर हैं. कहना मुश्किल है कि ये फिसलन भरी अंतहीन ढलान है या फिर कहीं कोई वापसी का भी रास्ता है. पासवान को हाल ही में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने अमेठी पहुंचने और वहां की बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी के लिए प्रचार करने के कहा. स्मृति ईरानी इस सीट पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मुकाबले खड़ी हैं.
वैसे तो रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए का हिस्सा है और बीजेपी अगर अपने किसी सहयोगी दल के नेता को अपने उम्मीदवार के प्रचार के लिए कहती है, तो इसमें कोई दिक्कत होनी नहीं चाहिए. बहरहाल रामविलास पासवान अमेठी चले गए और स्मृति ईरानी के साथ मंच पर बैठे और बीजेपी के लिए वोट भी मांगा. उन्होंने सोशल मीडिया पर तस्वीरें भी शेयर कीं.
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लेकिन रामविलास पासवान और शायद अमित शाह को भी इस चुनावी रैली के राजनीतिक मायनों का अंदाज़ा रहा होगा. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव प्रचार करने का फैसला लेना रामविलास पासवान के लिए आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि विरोधी खेमे में रहने के बावजूद कांग्रेस की नेता और राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी के साथ उनकी लंबी राजनीतिक मित्रता रही है. पासवान यूपीए में मंत्री थे और उनके घर पर होने वाले अमूमन हर आयोजन में सोनिया गांधी अतिथि हुआ करती थीं.
इसलिए वह अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार नहीं करना चाहते थे. उन्होंने बीजेपी को ये भी बताया कि बिहार में वे बहुत व्यस्त हैं क्योंकि उनकी पार्टी वहां छह सीटों पर चुनाव लड़ रही है. लेकिन उनकी ये दलील काम न आई. दरअसल बीजेपी के हाथ में वो राज्य सभा सीट हैं, जहां से पासवान राज्य सभा में जाना चाहते हैं. इसके अलावा उनकी पार्टी के कैंडिडेट, जिनमें उनके दो भाई पशुपति पारस और रामचंद्र पासवान शामिल हैं, की जीत भी बीजेपी के समर्थन पर निर्भर है. ऐसे में पासवान के पास अमित शाह की बात मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं था.
यह स्पष्ट नहीं है कि अमित शाह ने अमेठी में प्रचार करने के लिए रामविलास पासवान को क्यों कहा. पासवान का मध्य यूपी में कोई असर नहीं है और न ही उस इलाके में उनकी दुसाध जाति के वोटर हैं. ऐसा लगता है कि जिस वजह से रामविलास पासवान अमेठी में प्रचार नहीं करना चाहते थे, उसी वजह से अमित शाह उनसे अमेठी में प्रचार कराना चाहते थे.
अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ वोट मांगने से उनके कांग्रेस के साथ उन रिश्तों के बिगड़ जाने का खतरा है, जिसे उन्होंने वर्षों से सहेज कर रखा है और जिसका वे समय समय पर इस्तेमाल कर लेते हैं. सीधी राजनीतिक भाषा में इसका मतलब है कि अमेठी में प्रचार के बाद रामविलास पासवान के लिए चुनाव बाद की किसी राजनीतिक परिस्थिति में कांग्रेस के खेमे में जाना आसान नहीं होगा. हालांकि ये असंभव तो कभी नहीं होता.
पासवान ने तमाम पार्टियों के नेताओं के साथ बने ऐसे संबंधों का अपनी राजनीतिक यात्रा में बार बार इस्तेमाल किया है. उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन समाजवादी आंदोलन में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की सरपरस्ती में शुरू किया और 1969 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर पहली बार विधायक बने. फिर उन्होंने संसोपा छोड़ दी और एक और समाजवादी नेता राजनारायण के साथ हो लिए. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई तो वे आंदोलनकारियों में शामिल होने के कारण गिरफ्तार कर लिए गए और लगभग दो साल जेल में बिताए. इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के लोकसभा चुनाव में वे हाजीपुर सीट से जनता पार्टी के टिकट पर रिकॉर्ड वोट से विजयी हुए. वे गर्व से याद करते हैं कि सबसे ज़्यादा अंतर से जीतने की वजह से उनका नाम गिनेस बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में शामिल किया गया था.
इसके बाद के कब किसी पार्टी में रहे, कौन सी पार्टी छोड़ी, कहां शामिल हुए और कौन सी पार्टी बनाई और ऐसा क्यों किया और इससे उन्हें क्या हासिल हुआ, ये सब एक लंबी कहानी है और इसका पूरा ब्यौरा जुटाना किसी रिसर्चर का ही काम हो सकता है. मोटे तौर पर इसे यूं समझें कि वे पिछले तीन दशक में केंद्र की सत्ता में आए हर राजनीतिक गंठबंधन में शामिल रहे और मंत्री बने. इनमें नेशनल फ्रंट, यूनाइटेड फ्रंट, एनडीए, यूपीए सब शामिल हैं. यूनाइटेड फ्रंट सरकार के कार्यकाल में चूंकि दोनों प्रधानमंत्री- एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल राज्यसभा के सदस्य थे, इसलिए उस दौरान पासवान लोकसभा में सत्ता पक्ष के नेता रहे. देवेगौड़ा के हटने के बाद नई सरकार के गठन के समय वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार भी थे. हालांकि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने अपना दांव गुजराल पर खेल दिया और आखिरकार वही प्रधानमंत्री बने.
यूनाइटेड फ्रंट सरकार के बाद केंद्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो रामविलास पासवान एनडीए में शामिल थे और केंद्र में मंत्री बन गए. लेकिन गुजरात हिंसा के बाद बदलते राजनीतिक वातावरण को पहचानकर वे एनडीए से इस्तीफा दे कर अलग हो गए. और फिर अगली सरकार यूपीए की बनी तो वे वहां भी मंत्री बन गए. यूपीए सरकार के बाद वे फिर से एनडीए में आ गए और वे यहां अब भी मंत्री हैं.
देश के राजनीतिक माहौल की बेहतरीन समझ रखने के कारण उन्हें राजनीति का मौसम विज्ञानी कहा जाता है.
लेकिन इस वजह से रामविलास पासवान को अवसरवादी या मौकापरस्त नहीं कहा जा सकता. आखिर एनडीए और यूपीए ने भी तो मौका देखकर उन्हें बार बार अपने खेमे में लिया. और भारतीय राजनीति में चंद अपवाद को छोड़ दें तो मौकापरस्त कौन नहीं है. दलबदल निरोधक कानून लागू होने से पहले तक नेता एक पार्टी से दूसरी पार्टी में आते जाते रहते थे और आया राम-गया राम की संस्कृति हावी रहती थी. अब व्यक्ति नहीं, दल यहां से वहां आते-जाते रहते हैं.
मैं तो रामविलास पासवान की आलोचना उनके मौकापरस्त होने के कारण इसलिए भी नहीं करूंगा कि वे एक बेहद साधारण परिवार से हैं, राजनीति की उनकी कोई विरासत नहीं है, न उनका कोई गॉडफादर है न ही ऊंची जाति के होने की ताकत. उनाक राजनीति में टिक जाना ही भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार है कि इतनी मामूली पृष्ठभूमि का एक नेता इतने दिनों तक शिखर के आसपास लगातार मौजूद है. रामविलास पासवान ने विचारधारा से समझौता किया है. लेकिन जब समझौतापरस्ती ही देश की प्रभावी विचारधारा हो तो इसके लिए सिर्फ रामविलास पासवान कैसे दोषी हो सकते हैं?
और अंत में. क्या राजनीति के मौसम विज्ञानी नाम से मशहूर रामविलास पासवान ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए कोई भविष्यवाणी की है? अब तक तो नहीं. लेकिन अगर उनके राजनीतिक व्यवहार को देखें तो ऐसा लगता है कि दशकों बाद वे इस बार खुद भी उलझन में हैं. उनकी पार्टी एलजेपी ने बिहार में बीजेपी और जेडीयू से तालमेल किया है और छह सीटों पर उसके कैंडिडेट हैं. लेकिन उन कैंडिडेट में रामविलास पासवान नहीं हैं. बीजेपी ने आश्वासन दिया है कि वो उन्हें असम से खाली होने वाली सीट से राज्य सभा में भेजेगी.
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क्या रामविलास पासवान लोकसभा चुनाव में जीत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं? हो सकता है ऐसा हो. क्या वे राज्य सभा का सुरक्षित दांव इसी लिए खेल रहे हैं? मुमकिन है.
और अब एक बंगले की कहानी. संयोग से पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी का चुनाव चिह्न भी बंगला है. लगभग दो दशक पहले दिल्ली में 12 जनपथ का विशाल बंगला उन्हें अलॉट हुआ था. इसकी बाउंड्री ही 10 जनपथ की बाउंड्री है, जहां सोनिया गांधी रहती हैं. राजनीति के तमाम आंधी-तूफान के बीच कई महारथी उखड़ गए. लेकिन रामविलास पासवान इस बंगले से कभी बेदखल नहीं हुए. यह उनका साम्राज्य है. उनके मौसम विभाग का दफ्तर है. इसे वे हर हाल में बचाना चाहेंगे. इस बार उन्होंने राज्यसभा का सुरक्षित रास्ता चुना है. वे कामयाब हो जाएंगे. शर्त सिर्फ ये है कि बीजेपी अपना वादा पूरा करे. अमेठी में चुनाव प्रचार करके पासवान इस बंगले की कीमत बीजेपी को दे चुके हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )