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Thursday, 18 April, 2024
होममत-विमतबीजेपी को उदित राज, सावित्रीबाई फुले, उपेंद्र कुशवाहा, लक्ष्मीनारायण यादव जैसे नेता क्यों नहीं चाहिए?

बीजेपी को उदित राज, सावित्रीबाई फुले, उपेंद्र कुशवाहा, लक्ष्मीनारायण यादव जैसे नेता क्यों नहीं चाहिए?

बीजेपी का पूरा ध्यान इस समय सवर्ण वोटरों को इकट्ठा करने पर है, उनके लिए सवर्ण आरक्षण लाया गया है. उदित राज और उन जैसे लोग उसके इस प्रोजेक्ट में समस्या पैदा कर रहे थे.

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चुनावी टिकट न दिए जाने की स्थिति में नेता अक्सर अपनी पार्टी पर आरोप लगाते हैं. उन आरोपों को गंभीरता से नहीं लिया जाता. लेकिन उदित राज अपने विदाई पत्र में कुछ ऐसी बातें लिख रहे हैं, जिन पर गौर किए जाने की जरूरत है. उनके पत्र का एक हिस्सा तो इस बारे में है कि उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र के लिए कितना काम किया, कितने जनता दरबार लगाए और किस तरह उन्हें देश की एक बड़ी पत्रिका ने सर्वश्रेष्ठ सांसदों की लिस्ट में काफी ऊपर रखा. उनका ये भी दावा है कि बीजेपी के आंतरिक सर्वे में उन्हें काफी मजबूत स्थिति में दिखाया गया था. लेकिन ये सब सामान्य बातें हैं. उदित राज का टिकट नामांकन भरने की डेडलाइन खत्म होने के एक से डेढ़ घंटा पहले काटा गया. इससे ये अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है कि बीजेपी ने आखिरी समय तक इस सीट पर विचार किया और ये कोई आसान फैसला नहीं रहा होगा.

तो फिर उदित राज का टिकट कटा क्यों. उदित राज इस बारे में चार वजहें बताते हैं

1. उन्होंने एससी-एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम को कमजोर किए जाने का खुलकर विरोध किया था. एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किए जाने के खिलाफ 2 अप्रैल, 2018 के भारत बंद में शामिल लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई थी.

2. जब यूजीसी ने यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में शिक्षकों की नौकरियों में आरक्षण को लगभग खत्म कर देने वाला 13 प्वायंट का रोस्टर लाया, तो उन्होंने इसके खिलाफ मुखर होकर आवाज उठाई.

3. उन्होंने उच्च न्यायपालिका में एससी-एसटी के लिए रिजर्वेशन की मांग को लेकर आंदोलन किया क्योंकि उनकी मान्यता है कि न्यायपालिका में सामाजिक विविधता नहीं है और इसकी वजह से न्यायपालिका के फैसले प्रभावित होते हैं.

4. उन्होंने सबरीमाला मंदिर में युवा महिलाओं के प्रवेश के अधिकार का समर्थन किया, हालांकि बीजेपी की राय इससे अलग है.

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भारतीय राजनीति की मुख्यधारा की तासीर है कि वह विभिन्न समुदायों से उनके नेताओं को उठाती हैं. अपने समुदाय की आवाज उठाने के कारण ही ऐसे नेताओं की अपनी जाति-बिरादरी में पहचान बनती है. ये नेता अपने समुदायों का समर्थन लेकर किसी पार्टी में आते हैं. लेकिन जब वे पार्टी में आ जाते हैं तो उनसे उम्मीद की जाती है कि वे अपनी आवाज धीमी कर लें या चुप हो जाएं क्योंकि पार्टी को उनका समर्थन आधार तो चाहिए, लेकिन उनका बोलना पार्टी को असुविधाजनक लगता है. ऐसे लोग किसी भी पार्टी में तकलीफ पैदा करते हैं, जो बोलना बंद नहीं करते. खासकर तब जब उनका बोलना पार्टी के मूल विचारों के खिलाफ हो.

उदित राज (जिनका पुराना नाम राम राज था) जेएनयू के स्कॉलर रहे हैं और राजनीति में आने से पहले वे इंडियन रेवेन्यू सर्विस के अफसर हुआ करते थे. नौकरी में रहते हुए उन्होंने विभिन्न विभागों के एससी-एसटी कर्मचारियों को संगठित करना शुरू किया और एससी-एसटी कर्मचारी संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ नाम का संगठन बनाया. इसी दौरान उन्होंने एक बड़ी सभा में हजारों लोगों के साथ हिंदू धर्म का त्याग कर बौद्ध धम्म ग्रहण कर लिया. इसी दिन से राम राज का नाम बदलकर उदित राज हो गया.


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इसी दौरान रेवेन्यू सर्विस का एक और अफसर ‘सूचना का अधिकार’ कानून के लिए और इसके माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन चला रहा था. उनका नाम अरविंद केजरीवाल था. अरविंद केजरीवाल ने जब जन लोकपाल बनाने के लिए आंदोलन छेड़ा तो उदित राज ने प्रस्तावित लोकपाल संस्था में एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण लागू करने और बहुजन लोकपाल बनाने की मांग की. दिल्ली में वे केजरीवाल के सामने एक विकल्प की तरह नजर आए. यही समय था जब बीजेपी ने उनसे संपर्क किया. 2014 लोकसभा चुनाव से पहले वे बीजेपी में शामिल हो गए. बीजेपी ने उन्हें उत्तर पश्चिम दिल्ली से उम्मीदवार बनाया और वे वहां से जीत कर लोकसभा पहुंच गए.

बीजेपी में शामिल होते समय उदित राज ने अपनी पार्टी जस्टिस पार्टी का तो बीजेपी में विलय कर दिया लेकिन वे अपना एससी-एसटी कर्मचारी परिसंघ चलाते रहे और इसके माध्यम से इन समुदायों के लिए बोलते रहे. इस क्रम में वे कई बार बीजेपी की नीतियों के खिलाफ भी खड़े हो गए. दरअसल इस दौरान वे दोतरफा रणनीति पर चलने की कोशिश कर रहे थे. एक तरफ वे बीजेपी के अंदर अपने को टिकाए रखना चाहते थे और संभवत: मंत्री पद की कामना भी कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर वे अपनी पुरानी राजनीति और अपने पुराने सामाजिक आधार को टिकाए भी रखना चाहते थे. अब सिद्ध हो चुका है कि बीजेपी ने उनको एक साथ दो चीजों को साधने की इजाजत नहीं दी.

बीजपी से विदा होने वाले उदित राज अकेले नहीं हैं

यह संयोग नहीं है कि पिछले कुछ महीने में बीजेपी ने ऐसे कई नेताओं को पार्टी या गठबंधन से दूर कर दिया है जो उदित राज की तरह पार्टी या गठबंधन में रहने के बावजूद अपने-अपने सामाजिक आधारों को बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे और मुखर थे.

ऐसे नेताओं में सबसे पहला नाम उपेंद्र कुशवाहा का आता है, जिनकी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी एनडीए की पार्टनर थी और कुशवाहा खुद केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री थे. एनडीए से अलग होते समय उन्होंने जो त्यागपत्र लिखा वह कई मायने में उदित राज के पत्र की नकल जान पड़ती है. इस पत्र में उन्होंने 13 प्वाइंट रोस्टर, जाति जनगणना, कोटा पदों के बैकलॉग, न्यायपालिका में आरक्षण जैसे मुद्दे उठाए. कुशवाहा ने एनडीए से नाता तोड़ने के बाद बिहार में सेकुलर महागठबंधन से संबंध जोड़ लिया.

इसी तरह सामाजिक न्याय के मुद्दों पर मुखर रहीं बहराइच से बीजेपी की सांसद सावित्रीबाई फुले ने रोस्टर समेत कई मुद्दों पर आंदोलनों में हिस्सेदारी की और बीजेपी पर सामाजिक न्याय का विरोधी होने का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गईं.

ऐसे नेताओं में इटावा से बीजेपी के टिकट पर जीतने वाले अशोक कुमार दोहरे भी हैं, जिन्होंने सरकार से इस बात की शिकायत की थी कि 2 अप्रैल के भारत बंद में शामिल होने वाले दलित युवाओं को झूठे मुकदमों में फंसाया जा रहा है. दोहरे अब बीजेपी से बाहर हो चुके हैं और उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया है.


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यूपी के ही रॉबर्ट्सगंज से बीजेपी के टिकट पर जीतने वाले छोटे लाल खरवार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस बात की शिकायत की थी कि यूपी की बीजेपी सरकार, दलित होने के कारण उनके प्रति जातीय भेदभाव कर रही है. टिकट पाने वालों की लिस्ट में खरवार का नाम नहीं है. मध्य प्रदेश के सागर से बीजेपी सांसद लक्ष्मी नारायण यादव ने जाति जनगणना के मुद्दे पर लोकसभा में सवाल पूछा था और वे ओबीसी मुद्दों पर लगातार मुखर रहे हैं. उनका टिकट भी कट चुका है. किसानों और ओबीसी मुद्दे पर लगातार बोलते रहे लातूर के बीजेपी सांसद नाना पटोले भी बीजेपी में असहज हो गए और अब वे कांग्रेस में हैं. महाराष्ट्र के ही भंडारा-गोंदिया रिजर्व सीट से सांसद सुनील गायकवाड, जिन्होंने सांसद की शपथ लेते समय जय भीम बोला था, का भी टिकट कट गया है. खरगोन के ओबीसी सांसद सुभाष पटेल और बालाघाट के ओबीसी समुदाय के ही सांसद बोध सिंह भगत का भी टिकट कट चुका है. न्यूजक्लिक की एक रिपोर्ट में अब तक बांटे गए बीजेपी टिकट के आधार पर ये निष्कर्ष निकाला गया है कि पिछली बार एससी-एसटी रिजर्व सीटों से जीतने वाले लगभग आधे सांसदों के टिकट इस बार कट चुके हैं.

क्या टिकट काटने में कोई खास सोच काम कर रही है?

ऊपर दिए गए उदाहरणों के आधार पर पहली नजर में कहा जा सकता है कि इनमें एक पैटर्न है. हालांकि ये भी कहा जा सकता है कि टिकट सिर्फ एससी-एसटी-ओबीसी सांसदों का नहीं कटा है. लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी भी इस बार चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं. जबकि जोशी तो स्पष्ट रूप से चुनाव लड़ने के इच्छुक थे. हालांकि इनके टिकट कटने की एक व्याख्या ये हो सकती है कि ये काफी बुजुर्ग हो चुके हैं और इनकी जगह मार्गदर्शक मंडल ही है. उदित राज या उपेंद्र कुशवाहा या सावित्रीबाई फुले जैसों से इनकी तुलना नहीं हो सकती.

सवाल उठता है कि अगर बीजेपी के पास मुखर और आवाज उठाने वाले एससी-एसटी-ओबीसी के सांसद नहीं होंगे, तो इन समुदायों की आवाज संसद में कौन उठाएगा. बल्कि इस सवाल को इस तरीके से भी पूछा जा सकता है कि क्या बीजेपी को इन समुदायों से ऐसे नेताओं की जरूरत भी है, जो इन समुदायों की बात कर सकें.

बीजेपी इस बार सवर्णों को साधने में जुटी है

चुनाव से पहले बीजेपी ने बहुत तेजी से सवर्णों की ओर अपना रुख मोड़ लिया है. चंद घंटों के अंदर संविधान संशोधन करके सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 10 परसेंट आरक्षण दे दिया गया. इसके अलावा लैटरल एंट्री यानी सीधी भर्ती के जरिए नौ लोगों को केंद्र सरकार में संयुक्त सचिव नियुक्त कर दिया गया. संयोग से ये सभी सवर्ण समुदायों से हैं. सीधी भर्ती में आरक्षण नहीं दिया जा रहा है. इस बात की बीजेपी ने चिंता नहीं की कि इससे एससी-एसटी-ओबीसी में कोई नाराजगी होगी. बीजेपी का पूरा ध्यान इस समय सवर्ण वोटरों को इकट्ठा करने का है और उदित राज और उन जैसे लोग उसके इस प्रोजेक्ट में समस्या पैदा कर रहे थे.

शायद इसी लिए इनको जाना पड़ा

वैसे एक महत्वपूर्ण बात ये है कि मौजूदा लोकसभा चुनाव में प्रकाश आंबेडकर को छोड़कर राष्ट्रीय पहचान वाला कोई भी दलित नेता चुनावी मैदान में नहीं है. रामविलास पासवान की योजना राज्यसभा में जाने की है. रामदास आठवले की पार्टी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रही है और वे खुद बीजेपी के समर्थन से राज्य सभा में हैं. बीएसपी अध्यक्ष मायावती लोकसभा चुनाव नहीं लड़ रही हैं. और अब उदित राज का भी टिकट कट चुका है. सवाल उठता है कि 17वीं लोकसभा में देश के 20 करोड़ से ज्यादा दलितों की आवाज कौन उठाएगा?

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