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Saturday, 21 December, 2024
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उमर खालिद का सवाल, आतिशी क्या आप भी मुसलमानों को मात्र एक डरा हुआ वोटबैंक मानती हैं

पिछले छह वर्षों के दौरान आम आदमी पार्टी के उभार ने दिल्ली के लोगों के दिलों में काफी उम्मीदें और आकांक्षाएं जगाई थी.

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प्रिय आतिशी

आपके पूर्वी दिल्ली सीट से लोकसभा चुनाव लड़ने की खबर ताज़ा हवा के झोंके की तरह है. जैसी आशंका थी, कांग्रेस और भाजपा दोनों की यथास्थितिवादी ताकतों ने आप पर क्रूर व्यक्तिगत हमले शुरू किए हैं. पर, मैं आपके चुनाव क्षेत्र के एक नागरिक के रूप में अपनी कुछ चिंताएं आपके समक्ष लाना चाहूंगा, इस उम्मीद में कि उन पर संवाद हो सके. जिससे कि आपके प्रतिद्वंद्वी गौतम गंभीर दूर भाग खड़े हुए.

फरवरी 2019 में, ओखला में, जहां कि मैं रहता हूं, आम आदमी पार्टी (आप) के हज़ारों पोस्टर चिपकाए गए जिसमें लोगों से अपील की गई थी कि यदि वे भाजपा को हराना चाहते हैं तो आम आदमी पार्टी को वोट दें. बस इतना ही. पोस्टर में और कुछ नहीं था. ये मुसलमानों की बहुलता वाले इलाकों के लिए खास तौर पर तैयार कराए गए पोस्टर थे. जबकि दूसरे इलाकों में आपकी पार्टी स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों की चर्चा कर रही थीं. अलग-अलग इलाकों में प्रचार की अलग-अलग रणनीति के आपकी पार्टी के इस दोहरे मानदंड का मतलब क्या है? क्या आप के पास दिखाने के लिए हमारे इलाके में विकास परियोजनाओं से जुड़ी कोई ठोस उपलब्धि नहीं है?


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बहुचर्चित मोहल्ला क्लिनिकों और स्कूलों की भी चर्चा नहीं? या आप खुद जानती हैं कि बड़ी संख्या में हमारे इलाके के मोहल्ला क्लिनिक किस कदर खस्ताहाल हैं और बमुश्किल संचालित हो रहे हैं. या फिर आपको ये पता है कि इस मुस्लिम-बहुल इलाके के एकमात्र स्कूल को बाहर (न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में) स्थानांतरित कर दिया गया जिससे मुस्लिम समुदाय के बच्चों के पढ़ाई छोड़ने की दर बढ़ गई है. ओखला के कई इलाकों में अब भी नल से पानी आपूर्ति की सुविधा नहीं है. कभी कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे पर हावी रहने वाली बिल्डरों, ठेकेदारों और दलालों की चाटुकार मंडली आज आप में जमघट लगा चुकी है. खुले नालों, खुले कचरा डंपों और जर्जर सड़कों के साथा पूरा इलाका बदहाल है.

पिछले छह वर्षों के दौरान आम आदमी पार्टी के उभार ने दिल्ली के लोगों के दिलों में काफी उम्मीदें और आकांक्षाएं जगाई थी. खास कर मुसलमानों के लिए, इसने भाजपा और कांग्रेस के जांचे-परखे नाकाम विकल्पों से आगे एक तीसरा विकल्प उपलब्ध कराया था. 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान और विशेषकर 2015 के विधानसभा चुनाव में, मुसलमान इस नए विकल्प से जुड़ गए और उत्साहपूर्वक उन्होंने आपकी पार्टी को वोट दिया.

पत्रकार ज्योति पनवानी के 2014 में व्यक्त शब्दों का इस्तेमाल करूं तो ये एक ऐसी पार्टी थी जिसने डर की पुरानी धर्मनिरपेक्ष शब्दावली का अक्सर इस्तेमाल किए बिना मुसलमानों को ‘एक नए तरह की राजनीति का हिस्सा बनकर गौरवान्वित होने का अवसर दिया, जिसमें कि उन्हें जुदा नहीं समझा जाता था.’ इस नई राजनीति में मुस्लिम समुदाय के भीतर से एक नया नेतृत्व खड़ा करने की और मुसलमानों को उनकी पृथक दुनिया वाली स्थिति से बाहर लाने की प्रक्रियाएं शामिल थीं. पर आज 2019 में, हम आप को मुसलमान-बहुल इलाकों में उसी पुरानी कांग्रेसी तरीके की राजनीति करते पाते हैं, जिससे कि उसने अलग होने का दावा किया था. और क्या है ये राजनीति? मुसलमानों को भाव नहीं देना, पूरे चुनाव क्षेत्र के मुसलमानों को साथ देने के लिए विवश मानना, उनके वोट पर अपना हक मानना और वास्तविक मुद्दों को दरकिनार करना.


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मैं इस क्षेत्र के एक भीड़ भरे रिहाइशी इलाके में अब भी कायम कचरे को जलाकर बिजली बनाने वाले जिंदल समूह के अत्यंत विषैले संयंत्र का उदाहरण देना चाहूंगा, जिसका स्थानीय लोग एक दशक से विरोध कर रहे हैं. संयंत्र की स्थापना कांग्रेस राज में हुई थी, और इसका घोषित उद्देश्य था कचरे की रिसाइक्लिंग करना. पर एक पुरानी तकनीक के इस्तेमाल के कारण इस संयंत्र ने ओखला की हवा में ज़हर घोलने का ही काम किया है. इसके कारण ओखला में प्रदूषण का स्तर शेष दिल्ली से बदतर स्थिति में हैं. यह संयंत्र पर्यावरण मंत्रालय के अनेक प्रावधानों को मुंह चिढ़ाता है, और इसे इलाके में दमा, अस्थमा और कैंसर जैसी कई बीमारियों का कारण माना जाता है. पिछले साल एक संयुक्त जांच के बाद केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को सूचित किया कि यह संयंत्र उत्सर्जन मानकों पर खरा नहीं उतरता और इस इलाके में वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि की वजह है.

अरविंद केजरीवाल ने इस क्षेत्र के लोगों को 2015 में आश्वासन दिया था कि बिजली संयंत्र को शीघ्र ही बंद कर दिया जाएगा. पर बंद करना तो दूर, असल में अब संयंत्र के मालिकों ने इसकी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए आवेदन किया है.

क्षेत्र के निवासियों ने इस बारे में जब भी आपकी पार्टी के लोगों से संपर्क किया, तो वे यही कहते हैं कि यह मामला दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है. तो फिर 2015 में मुख्यमंत्री बनने पर केजरीवाल ने लोगों को ये भरोसा क्यों दिलाया था कि वह संयंत्र को बंद कराना सुनिश्चित करेंगे? या, यदि मामला आपके हाथ में नहीं है, तो दिल्ली सरकार ने संयंत्र के खिलाफ निरंतर विरोध कर रहे, और कई जनसुनवाइयों का आयोजन कर चुके स्थानीय लोगों का साथ क्यों नहीं दिया. क्या इस मामले में आप लोग भी स्थानीय लोगों की अपीलों की अनुसनी करने वाली कांग्रेस के पुराने अहंकारी रवैये को नहीं अपना रहे?

नरेंद्र मोदी शासन के पिछले पांच वर्षों के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंसा बढ़ी है, और इस कारण मुस्लिम समुदाय में भय और हताशा का भाव घर कर गया है. ऐसी स्थिति में, वोट देने जाते समय उनके मन में सिर्फ उस हिंसा से सुरक्षा की ही बात हावी रहती है, न कि रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और रोज़गार के अपने अधिकार की बात. क्या इसी स्थिति को, एक ‘हिंदू राष्ट्र’ में आरएसएस द्वारा मुसलमानों के लिए अपेक्षित, दूसरे दर्ज़े की नागरिकता नहीं कहते हैं? कि अल्पसंख्यक बेहतर ज़िंदगी की आकांक्षा को भूल जाएं और सदैव भय के माहौल में जीयें.

इस संदर्भ में, यह भाजपा/आरएसएस का विकल्प होने का दावा करने वाली ‘धर्मनिरपेक्ष’ ताकतों की जिम्मेदारी बनती है कि वे घृणा के इस एजेंडे को चुनौती दें. पर, इसकी जगह हमें क्या देखने को मिल रहा है? भारतीय राजनीति में 2014 के बाद बहुमतवादियों के पक्ष में आए इस बड़े बदलाव के खिलाफ आवाज़ उठाना तो दूर, मुसलमानों की रोजमर्रा की ज़िंदगी में बाधक नागरिक सुविधाओं और अर्थव्यवस्था से जुड़ी आम समस्याओं तक को दूर करने वाला कोई नहीं है.

बीतों वर्षों में मुसलमानों की असुरक्षा की स्थिति से न सिर्फ भाजपा जैसी पार्टियों के एजेंडे को बल मिला, बल्कि इससे कांग्रेस जैसे दल भी लाभान्वित हुए. आपसे बेहतर किसे मालूम कि ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस, मुस्लिम समुदाय की बेहतरी और सशक्तीकरण के लिए काम करने के बजाय, भाजपा का डर दिखाकर मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने में लगी रही है. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के निष्कर्ष इस कड़वे सच की गवाही देते हैं. आम आदमी पार्टी को भी उसी राह पर जाते देखना वास्तव में बेहद दुखद है.


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और आखिर में, जब चुनाव में भाजपा को हराने की बात आती हो, तो आम आदमी पार्टी को मुसलमानों से रणनीति के तहत वोट करने के लिए कहने की ज़रूरत नहीं है. रणनीतिक मतदान दशकों से मुसलमानों की विवशता रहा है क्योंकि उन्हें धर्मनिरपेक्षता का अपने हिस्से से अधिक भार उठाना पड़ता है. उन्होंने पहले भी ऐसा किया है, और एक बार फिर करेंगे. क्योंकि उन्हें पता है कि भाजपा यदि 2019 में फिर से सत्ता में आती है तो इसका सर्वाधिक खामियाजा उन्हें ही भुगतना होगा. पर फिर भी, ये सवाल आपके समक्ष मौजूद रहेगा. क्या मेरे इलाके के लोगों को हमेशा एक रजामंद वोटबैंक के तौर पर देखा जाएगा? या उन्हें बराबर का नागरिक माना जाएगा? मैं चाहूंगा कि आप इस पर विचार करें, और आपके लिए शुभकामनाएं.
सादर
उमर खालिद

लेखक एक सामाजिक कार्यकर्ता और जेएनयू के पूर्व छात्र हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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