scorecardresearch
Monday, 11 November, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावनाव ही है बाराबंकी के इन गांव में जाने का सहारा, लोगों को यहां चुनाव से नहीं मतलब

नाव ही है बाराबंकी के इन गांव में जाने का सहारा, लोगों को यहां चुनाव से नहीं मतलब

लोगों को यहां आज भी सरकारी सुविधाओं का इंतजार है. आज भी बाराबंकी जिले के दरियाबाद विधानसभा में के अतरौली और परसावल गांव पहुंचने का रास्ता नाव ही है.

Text Size:

बाराबंकीः जहां एकतरफ अधिकतर जगह लोग चुनावी खुमार में डूबे हैं तो दूसरी कई ऐसे गांव भी हैं जहां लोगों को वोटिंग में कोई खास दिलचस्पी नहीं. यहां तक कि कई लोगों को तो चुनाव की तारीख भी नहीं पता. बाराबंकी जिले के दरियाबाद विधानसभा में आने वाले अतरौली और परसावल गांव का हाल कुछ ऐसा ही है. इन गांवों तक पहुंचने का रास्ता नाव ही है. लोढ़ेमऊ घाट से नाव के जरिए यहां पहुंचा जा सकता है और जो आ जाता है उसके वापस जाने का सहारा नाव ही है.

नाव ही जाने का एकमात्र सहारा

इन गांव में असल हालातों का जायजा लेने दप्रिंट की टीम बाराबंकी के लोढ़ेमऊ घाट पहुंची. शहर से लगभग 50 किमी दूर इस घाट से अतरौली व परसावल गांव तक जाने के लिए घाघरा नदी को नाव से पार करना होता है. यही एक मात्र साधान है जिससे गांव तक पहुंचा जा सकता है. 5-6 नाव लोढे़मऊ घाट पर रहती हैं जो बारी-बारी से चलती हैं. एक नाव के जाने के बाद दूसरी का इंतजार करना पड़ता है.

लगभग एक घंटे के इंतजार के बाद हम नाव से अतरौली गांव की ओर निकले. नाव में आधा दर्जन लोग, दो बाइक और दो साइकल भी रखी थीं. रास्ते में ग्रामीण पुत्ती लाल ने बताया कि कई साल से यहां पुल बनाए जाने की बात चल रही है लेकिन अभी तक नहीं बना. इसी कारण नाव ही एक मात्र सहारा है घाट से गांव जाने के लिए. इसीलिए साइकिल, मोटरसाइकिल व अन्य सामान लोग नाव पर रखकर ले जाते हैं. वहीं सुनील बताते हैं कि वह 25 साल से लगभग रोजाना नाव चलाकर घाट से गांव जाते हैं. हवा जब तेज होती है या बारिश के मौसम में आना-जाना बहुत मुश्किल होता जाता है.


यह भी पढे़ंः राहुल-स्मृति के मुकाबले की चकाचौंध में दबे अमेठी के असल मुद्दे, ग्रामीण करेंगे चुनाव का बहिष्कार


news on social culture
ग्रामीण जिन्होंने बताई अपनी समस्याएं | सोशल मीडिया

न स्कूल न स्वास्थ्य केंद्र

लगभग आधे घंटे के सफर के बाद हम अतरौली गांव पहुंचे. वहां मौजूद लोग हमें देखकर हैरान रह गए और पूछने लगे कि इस गांव के बारे में आपको कैसे पता चला. कुछ देर बाद उन्होंने अपनी दिक्कतें बतानी शुरू की. गांव में 40 साल से रह रहे पुतान कुमार ने बताया कि न तो आसपास कोई स्कूल है और न ही कोई स्वास्थ्य केंद्र. 400 लोगों की आबादी वाले इस गांव के अधिकतर बच्चे स्कूल नहीं जाते. यहां के रहने वाले दुर्गा प्रसाद ने बताया कि अगर किसी की तबीयत खराब हो जाती है तो नाव से घाट पार करने के बाद कई किलोमीटर दूर एक अस्पताल पड़ता है. दुखी मन से वह बोलते हैं- ‘कई बार इतना समय लग जाता है कि मरीज रास्ते में ही खत्म हो जाता है. गर्भवती महिलाओं के साथ तो यहां बहुत समस्या है.’

मजदूरी ही है सहारा

गांव के नौजवान गुड्डु बताते हैं कि मजदूरी ही कमाई का एकलौता सहारा है. अधिकतर लोगों के पास यहां खेत नहीं हैं. कुछ ठाकुर परिवारों के यहां खेत हैं. ये परिवार दूसरे गांव में रहते हैं. हम लोग उनके खेतों की देखभाल करते हैं. या तो शहर जाकर मजदूरी करें या फिर दूसरे के खेत की देखभाल, यही थोड़ी सी कमाई का जरिया यहां है. गुड्डू कहते हैं कि उन्होंने कभी पढ़ाई की ही नहीं. कैसे करते, जब कोई स्कूल आसपास है ही नहीं. घर वाले नदी पार भेजना नहीं चाहते थे.

news on politics
ग्रामीणो ने सरकार की योजनाओं के बारे में की बात | प्रशांत श्रीवास्तव

सरकारी योजनाएं ठीक से नहीं पहुंचीं

अतरौली और परसवाल गांव दूसरे गांव से कटे हुए हैं. जब हमने यहां जिक्र उज्ज्वला समेत दूसरी सरकारी योजनाओं का किया तो अधिकतर ग्रामीणों को जानकारी नहीं थी. हालांकि कुछ ग्रामीणों ने बताया कि कुछ शौचालय अतरौली गांव में दूसरी तरफ बनाए गए थे. बिजली कुछ घंटे आती है लेकिन बाकि कोई सरकारी योजनाओं का लाभ किसी को नहीं मिला. इस सवाल के जवाब में अपने आंसू पोछते हुए कृष्णा देवी कहती हैं- ‘भइया कौनो काम न भवा, हम पंचे पचीसन साल से यहां रह रहे हैं. (कोई काम यहां नहीं हुआ, 25 साल से ज्यादा समय से हम लोग यहां रह रहे हैं.)

आसपास के गांव का भी यही हाल

अतरौली से नाव के जरिए ही परसावल गांव का रास्ता है. परसावल के ग्रामीण बताते हैंं कि 2009 में एल्गिन चरसड़ी तटबंध कट गया. इसकी वजह से परसावल के दो हजार से ज्यादा लोग प्रभाव‍ित हुए. सरकार ने तब इन लोगों को स्‍कूल में सड़क किनारे तंबू में ठहराया. बाढ़ चली गई तो लोग वापस आकार गांव में नई झोपड़ी बनाकर रहने लगे. इसके बाद 2010 में नया बंधा बना दिया गया लेकिन इसकी वजह से परसावल गांव का क्षेत्र घाघरा नदी में चला गया. ऐसे में परसावल की कोई जमीन सुरक्ष‍ित बची ही नहीं. तब से लेकर आज तक जब-जब बाढ़ आती है तो लोग बंधे पर जाते हैं और बाढ़ खत्‍म होने पर अपने गांव को लौट आते हैं. कई परिवार यहां से पलायन भी कर चुके हैं. जो बचे हैं वह काफी मायूस हैं.


यह भी पढे़ंः राजनाथ सिंह के गोद लिए गांव का हाल, काम तो हुआ लेकिन ‘आदर्श’ नहीं बन सका


news on politics
गांव का एक किसान नदी के किनारे गेहूं काटने में व्यस्त | प्रशांत श्रीवास्तव

न वोटिंग में किसी की दिलचस्पी

गांव में चुनाव को लेकर भी कोई जोश नहीं. चुनाव कब है कई लोगों को तारीख भी नहीं पता. यहां के रहने वाले मुन्नु कहते हैं गांव पूरी तरह से बाहरी दुनिया से कटा हुआ है. यहां न अखबार आता है, बिजली नहीं है तो टीवी भी नहीं है. ऐसे में हमें कुछ पता ही नहीं चलता बाहर हो क्‍या रहा है. न किसी को हमारी जानकारी, न हमें उनकी. कोई नेता यहां झांकने तक नहीं आता तो हम उनके बारे में क्यों सोचें. कोई जीते कोई हारे हमें क्या फर्क पड़ता. हमारी कौन सुनेगा.

share & View comments