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Sunday, 22 December, 2024
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हरियाणा ने देख लिए 3 लाल, अब देखना है औरतों का कमाल

2015 के पंचायती चुनावों के बाद देश में एक बड़ी घटना घटी जब सरपंच बनने के बाद महिलाओं ने सबसे पहला काम घूंघट हटाने का किया.

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हरियाणा में लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, जेजेपी, बसपा और इनेलो पार्टियां ताल ठोंक रही हैं. पर इस चुनावी दंगल में हरियाणा की औरतें कहां हैं? क्या कर रही हैं महिला नेता?

हरियाणा के अंबाला ज़िले से आने वाली भाजपा की कद्दावर नेता सुषमा स्वराज 25 साल की उम्र में जनता पार्टी की हरियाणा सरकार में कैबिनेट मंत्री बन गई थीं. इस बार के लोकसभा चुनाव में सुषमा स्वराज ने चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान किया है. लोकसभा चुनाव 2019 के मद्देनज़र इस राज्य की सिरसा ज़िले के डबवाली की विधायक नैना चौटाला महिलाओं को राजनीतिक रूप से जागरुक करने की मुहीम चला रही हैं. इस क्रम में वो ‘हरी चुनरी चौपाल’ नाम से तकरीबन 35 रैलियां आयोजित करवा चुकी हैं.

इन रैलियों की खास बात यह है कि इनमें मंच संचालन से लेकर मंच के नीचे महिलाएं ही महिलाएं बैठी नज़र आती हैं. ये दृश्य पिछले दशक तक चले आ रहे ग्राम-पंचायतों के सीन के बिलकुल विपरीत है. जब महिलाएं गांव में होने वाली पंचायत को घरों की छतों से देखती थीं. कुछ महिलाएं घरों की दहलीज़ पर घूंघट निकाले बैठी रहती थीं. वर्ना ‘पंचायत म्ह तो मोटयार (पुरुष) जाया करैं, औरत के लेणा-देणा इन बातां तै’ कहकर भैंसों का चारा लेने चली जाती थीं.

जैसे-जैसे सामाजिक व राजनीतिक स्तर पर महिलाओं की स्थिति को लेकर चर्चा शुरू हुई वैसे-वैसे चौपालों पर हुक्के की गुड़गुड़ी भरते पुरुष कहने लगे- इब गोबर गेरना पड़ैगा के? ये सवाल अपने आस-पास फैल रही मॉडर्निटी को लेकर कहा जाता है या महिलाओं की सामाजिक व राजनीतिक भागीदारी पर, मालूम नहीं. क्योंकि चौपाल पर बैठे ताऊओं से बात करने पर तो यही पता चलता है कि यहां की औरतें खेत-खलिहानों में काफी व्यस्त और खुश हैं.

महिलाओं के हकों के लिए सालों से लड़ रही हरियाणा की जगमति सांगवान दिप्रिंट को बताती हैं, ‘ पिछले कुछ सालों से सकारात्मक बदलाव तो आए हैं. आदमियों को चौधर का चसका लगा रहता है. बस फिर धोले कुड़ते-पाजामे (सफेद कुर्ते-पायजामे) पहनकर राजनीति करने निकल पड़ते हैं. औरत बस घर संभालें और बड़े-बूढ़ों की सेवा करेंं. एक समय था जब औरतें पंचायत के बगल से पर्दा करके गुज़र जाया करती थीं. इस तरह की रैलियों से भले ही क्रांतिकारी बदलाव ना आएं लेकिन यह एक ज़रूरी कदम तो है.’

जहां से पीएम मोदी ने की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की शुरुआत

हरियाणा अपने विवादास्पद लिंगानुपात के लिए राष्ट्रीय खबरों में बना रहता है. तो यहां के लिए हर चुनाव में ये देखना अनिवार्य होता है कि कितनी महिलाएं यहां की जनता का प्रतिनिधित्व कर रही हैं. हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा ने महिलाओं की सुरक्षा को मुख्य मुद्दा बनाते हुए राज्य की सत्ता हासिल की. वहीं फिर से इस बार के लोकसभा और तदनंतर होनेवाले विधान सभा चुनाव में भी महिलाओं की सुरक्षा को मुद्दा बनाया जा रहा है. गौरतलब है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक हरियाणा में प्रतिदिन तीन औरतों के बलात्कार होते हैं. यही नहीं, ये राज्य खाप पंचायतों के फरमानों और कथित हॉनर किलिंग की घटनाओं से जूझता रहा है. हाल-फिलहाल में महिला खिलाड़ियों को ज़रूर प्रोत्साहन मिला है. हरियाणा से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुरुआत भी की थी.

2014 में हरियाणा से कोई महिला नेता नहीं पहुंची संसद

लोकतंत्र में जितना महत्व मतदाताओं का है उतना ही महत्व महिला प्रतिनिधियों का भी है. 1966 में हरियाणा बनने के इतने साल बाद तक यहां से 51 महिलाएं ही विधान सभा और लोकसभा तक पहुंच पाई हैं. लोकसभा तक पहुंचने वाली महिलाओं की संख्या केवल 5 है. जिनमें कांग्रेस की चंद्रावती, कुमारी शैलजा और श्रुति चौधरी, भाजपा से सुधा यादव व इनेलो से कैलाशो सैनी शामिल हैं.

गौरतलब है कि 2014 में हरियाणा से कोई महिला संसद नहीं पहुंची. 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने प्रदेश में किसी महिला कैंडिडेट को उतारा भी नहीं.

विधानसभा की बात करें तो 2014 की मनोहर लाल खट्टर की सरकार में 90 में से 13 महिला विधायक चुनी गईं थीं. ये एक रिकॉर्ड है कि हरियाणा विधान सभा में पहली बार महिलाओं विधायकों की संख्या इतनी हुई. 2014 के विधानसभा चुनाव में कुल 116 महिला कैंडिडेट्स ने चुनाव लड़े थे. बीजेपी ने 15, इनलो ने 16 और कांग्रेस ने 10 महिला उम्मदीवारों को टिकट दी गई थी. जीतने वाली महिलाओंं में बीजेपी की 8, कांग्रेस की 3, इनेलो और हजका की 1-1 से थीं.

2014 की महिला विधायकों में दो ने पोस्ट ग्रेजुएशन, सात ने ग्रेजुएशन और दो ने 12वीं तक पढ़ाई की है. 2014 विधानसभा की इकलौती अशिक्षित विधायक विमला चौधरी हैं.

नहीं बन सकी है कोई महिला मुख्यमंत्री

हरियाणा ने अब तक पुरुष मुख्यमंत्री ही दिए हैं. 1950 के दशक में राज्य की विधान सभा में पहुंचने वाली चंद्रावती जैसे बड़े कद की नेता भी कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं. जबकि उनके बाद 1960 के दशक में आए बंसीलाल से लेकर भजनलाल और फिर भूपिंद्र सिंह हुड्डा तक सीएम की कुर्सी तक पहुंचे.

चंद्रावती देवी वही हैं जिन्होंने जनता दल की टिकट पर 1977 में बंसीलाल को एक लाख वोटों ले हराया था. वो भी तब जब राजनीति में महिलाओं की भागीदारी ना के बराबर थी. चंद्रावती पेशे से वकील थीं और अपने इलाके में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला थीं. साथ ही, वो प्रदेश की महिला सांसद भी बनीं. हालांकि, कुछ लोग उस चुनाव में बंसीलाल के हारने का श्रेय एमरजेंसी को देते हैं.

पंचायती स्तर पर महिलाओं की 42 फीसदी भागीदारी

हरियाणा में 2015 में हुए पंचायती चुनावों में 33 प्रतिशत की बजाय महिलाओं की 42 फीसदी भागीदारी के दावा किया गया है. महिलाओं की पंचायती स्तर पर भागीदारी जानने के लिए दिप्रिंट ने हरियाणा की कई महिला सरपंचों से बातचीत की.

भिवानी ज़िले के गरवा गांव की पहली महिला सरपंच सोनिया राहर ने 12वीं के बाद जेबीटी करने के बाद 2015 में सरपंची का चुनाव लड़ा था. सोनिया कुंवारी हैं. सरपंची में अपने तीन साल के अनुभव को साझा करते हुए कहती हैं, ‘महिलाएं जागरूक तो हुई हैं, भले ही छोटे स्तर पर. वो अब गांव में होने वाली पंचायत का हिस्सा भी बन रही हैं.’ सोनिया का कहना है कि वो अपने गांव की महिलाओं को विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूक करती रहती हैं.

वहीं, अंबाला जिले के तेपला गांव की महिला सरपंच सुमनीत कौर एम कॉम की डिग्री लिए हुए हैं. सुमनीत ने बताया कि वो पिछले आठ साल सरपंच हैं. ये दूसरी बार है जब उन्हें सरपंच चुना गया है. वो लगातार महिला सशक्तिकरण और विकास का मुद्दा उठा रही हैं.

जब महिलाएं घूंघट प्रथा को खत्म के लिए अखबारों में छाई रहीं

हरियाणा के गांव देहात में औरतों की आपसी बातचीत के कई बार एक डायलॉग सुनने को मिलता है- आंखों की शर्म होती है, घूंघट की नहीं. इस कथन को दस बार दोहराने के बावजूद वो सालों तक घूंघट को ढ़ोती रहती हैं. घूंघट को लेकर सोशल मीडिया पर कई तर्क दिये जाते हैं. कुछ का मानना है कि ये थोपा गया रिवाज है. वहीं, अभी भी कुछ लोगों का मानना है कि ये शर्म लिहाज करने का तरीका है.

लेकिन 2015 के पंचायती चुनावों के बाद हरियाणा की बहुत सी महिला पंच-सरपंच घूंघट को बाय-बाय कहकर हेडलाइन्स में छाई रहीं. ये देश की एक बड़ी घटना है जब सरपंच बनने के बाद महिलाओं ने सबसे पहला काम घूंघट हटाने का किया.

इन खबरों पर एक नज़र…

2015 में हरियाणा के कैथल जिले के चौशाला गांव की महिला सरपंच सीमा देवी ने वर्षों से चली आ रही घूंघट प्रथा को खत्म करने का फैसला लिया. फरीदाबाद की महिला सरपंचों ने 2016 में शपथ ली थी कि वो घूंघट प्रथा को खत्म करके ही दम लेंंगी. 2017 में सिरसा ज़िले के कलुना गांव की पहली महिला सरपंच गीता ने घूंघट हटा दिया था. गौरतलब है कि साल 2017 में एक सरकारी विज्ञापन में घूंघट का महिमा मंडन करने पर खट्टर सरकार की आलोचना भी हुई थी.

2017 में ओम प्रकाश चौटाला के पैतृक गांव गए मंत्री विपुल गोयल ने महिला सरपंच का मंच पर घूंघट हटवाया. बता दें कि महिलाओं को राजनीतिक चेतना जगाने की मुहीम चलाने वाली नैना चौटाला जननायक जनता पार्टी को शुरू करने वाली दुष्यंत चौटाला की मांं हैं और चौटाला परिवार से विधानसभा पहुंचने वाली पहली महिला हैं.

33 प्रतिशत आरक्षित सीटों की बजाय गांव पंचायतों में 42 फीसदी महिलाओं को पंच-सरपंच बनाने का दावा करने वाले हरियाणा से महिलाओं को काफी उम्मीदें हैं. देखना होगा कि इस बार हरियाणा से कितनी महिलाएं संसद पहुंचती हैं.

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