नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को चुनावी बांड योजना पर अपना फैसला सुना दिया है. अदालन ने कहा है कि राजनीतिक दलों को दान देने वाले हर दानकर्ता का ब्योरा देना चाहिए. सारा ब्योरा चुनाव आयोग को 30 मई तक बंद लिफाफे में पहुंचा देना चाहिए.
अदालत ने इस बाबत केंद्र और याचिकाकर्ताओं का पक्ष सुना. याचिकाकर्ताओं ने इस योजना पर रोक लगाने या फिर राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग के लिए कोई अन्य पारदर्शी वैकल्पिक व्यवस्था के लिए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया था. केंद्र सरकार ने बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि राजनीतिक वित्तपोषण में कालेधन पर लगाम लगाने के लिए चुनावी बांड की सूचना की गोपनीयता जरूरी है.
Supreme Court asks all political parties who have received donations through Electoral Bonds to submit in sealed cover to the Election Commission details of donations received. pic.twitter.com/cQkKsKntVY
— ANI (@ANI) April 12, 2019
हालांकि चुनाव आयोग की राय इसके विपरीत अपनी बात रखी थी. केंद्र सरकार ने इस संबंध में अपनी राय रखते हुए शीर्ष अदालत को बताया कि तंत्र में कालेधन के प्रवाह पर रोक लगाने में दानदाताओं के नाम अज्ञात रखना क्यों एक सकारात्मक कदम है. एटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल ने अपना तर्क देते हुए कहा, ‘चुनावी बांड का मकसद राजनीतिक वित्तपोषण में कालेधन को समाप्त करना है, क्योंकि सरकार की ओर से चुनाव के लिए कोई धन नहीं दिया जाता है और राजनीतिक दलों को समर्थकों, अमीर लोगों आदि से धन मिलता है. धन देने वाले चाहते हैं कि उनका राजनीतिक दल सत्ता में आए. ऐसे में अगर उनकी पार्टी सत्ता में नहीं आती है तो उनको इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है, इसलिए गोपनीयता जरूरी है.”
सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया कि कई कंपनियां विभिन्न कारणों से अपना नाम अज्ञात रखना चाहती हैं. उदाहरण के लिए अगर कोई कंपनी किसी दल को धन देती है और वह सत्ता में नहीं आती है तो कंपनी को उसके शेयरधारक दंडित कर सकते हैं. एटॉर्नी जनरल ने कहा कि चुनावी बांड द्वारा दिया गया दान सही मायने में सफेद धन होता है. उन्होंने कहा कि अगर एजेंसियां धन के स्रोत को सुनिश्चित करना चाहती हैं तो वे बैंकिंग चैनलों के माध्यम से जांच कर सकती हैं.
चुनाव आयोग ने पारदर्शिता चुनाव आयोग के वकील ने कहा कि सरकार हालांकि चुनावी बांड में दानदाताओं के नाम को अज्ञात रखने के पक्ष में है, लेकिन निर्वाचन आयोग की राय इसके विपरीत है. उन्होंने कहा, ‘हम चुनावी बांड के खिलाफ नहीं हैं. हम सिर्फ इससे जुड़ी गोपनीयता का विरोध करते हैं.’ चुनाव आयोग के वकील ने इस बात पर जोर दिया कि आयोग राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता चाहता है. उन्होंने कहा कि फंड देने वाले की और फंड लेने वाले की पहचान का खुलासा लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है. लोगों को अपने प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के बारे में जानने का अधिकार है.
पहले भी कर चुका है चुनाव आयोग इसका विरोध
चुनाव आयोग का इस योजना का विरोध कोई नया नहीं है. 2017 में जब इस योजना का पंजीकरण किया गया था, तब भी तत्कालीन चुनाव आयुक्त नसीम जैदी के तहत चुनाव आयोग ने विधि मंत्रालय को एक हलफनामें कहा था कि योजना ‘पीछे धकेलने वाली थी.’
तो अब भी अदालत में चुनाव आयोग ने अपना पुराना स्टैंड ही दोहराया है. पर ध्यान देने की बात है कि इसे पीछे धकेलने वाला बताने के बाद संकेत आ रहे हैं कि चुनाव आयोग अपना स्टैंड बदल रहा है. जैदी के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त ए के जोती ने कहा था कि जो दान दिया जा रहा है उसका बैंकों में पूरा विवरण होगा. ये एक सही दिशा में पहला अच्छा कदम होगा, मुझे नहीं लगता कि ये सभी समस्याओं का निदान. एक बार बॉन्ड आने दिया जाए.’
पर मौजूदा चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा के तहत चुनाव आयोग ने कमीशन के ओरिजिनल मत को दोहराया है जो कि मोदी सरकार का विरोध है,