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Saturday, 21 December, 2024
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पहली बार राहुल गांधी के जाल में फंस गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

बीजेपी ने अगर ये चाहा था कि लोकसभा चुनाव राष्ट्रवाद, भारत-पाकिस्तान और मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर हो तो ये नहीं होने जा रहा है.

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भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से काफी चतुराईपूर्वक कांग्रेस को अपने उठाए मुद्दों और अपने बनाए नारों में फंसाती रही है और उसका लाभ भी उठाती रही है. अब हालात बदले हैं और पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा राहुल गांधी के दिए नारे “चौकीदार चोर है” की कोई कारगर काट भी नहीं ढूंढ़ पाई, साथ ही इस नारे के जाल में उलझकर भी रह गई है.

कांग्रेस और विपक्षी दलों के नारे चौकीदार चोर है की गूंज देशभर में सुनाई देने लगी तो भाजपा के रणनीतिकारों को इस पर चुप नहीं रहा गया और उन्होंने इसके बदले “मैं भी चौकीदार” का अभियान शुरू कर दिया. इसके तहत भाजपा समर्थक ‘मैं भी चौकीदार’ का नारा लगा रहे हैं और सोशल मीडिया पर भी इस नारे को लोकप्रिय बनाकर कोशिश कर रहे हैं कि आम जनता भी ज्यादा से ज्यादा इस नारे को अपनाए.

यही वो जाल है जिसमें भाजपा बुरी तरह से फंस गई है. भाजपा के ‘मैं भी चौकीदार’ का जवाबी नारा खोजने से पहले ही ‘चौकीदार चोर है’ का नारा इतना ज्यादा लोकप्रिय हो चुका है कि अब चौकीदार कहते ही आगे चोर बोल दिया जाता है या समझ लिया जाता है.

‘मैं भी चौकीदार’ के नारे को भाजपा विरोधियों ने अंग्रेजी में ‘मीटू चौकीदार’ करके चर्चित ‘मीटू अभियान’ से भी जोड़ दिया जिसमें भाजपा सरकार के विदेश राज्य मंत्री एमजे अकबर को पद से त्यागपत्र देना पड़ गया था.


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इस तरह से राफेल घोटाले का मामला, और पूंजीपतियों के हजारों करोड़ रुपए लेकर देश छोड़ने के मामले आम जनता को याद आने लगे हैं और जिन्हें अब तक समझ नहीं आए थे, उन्हें भी समझ में आने लगे हैं.

चौकीदार शब्द का इस्तेमाल नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रचार के समय किया था और दावा किया था कि वे प्रधानमंत्री नहीं चौकीदार बनकर काम करेंगे और देश की सीमा और संसाधनों की रक्षा करेंगे. नारा लोकप्रिय भी रहा और सफल भी, लेकिन सरकार बनाने के बाद लोगों की अपेक्षाएं भी नरेंद्र मोदी से बढ़ गईं.

हैरानी की बात नहीं कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतने के बाद पूरे पांच सालों तक शायद एक बार भी अपने लिए चौकीदार शब्द का इस्तेमाल नहीं किया जबकि मीडिया और राजनीतिक विमर्श में चौकीदार शब्द लगातार छाया रहा.

इसके पीछे कारण भी था. सरकार बनाने के बाद से नरेंद्र मोदी की ऐसी छवि बनी कि वे केवल अपने पूंजीपति मित्रों की ही रक्षा कर पाए. गायें लाने-ले जाने वालों की हत्याएं होती रहीं, यूपी पुलिस जाति पूछ-पूछकर ठोंकती रही, सड़कों पर साथ-साथ निकले लड़के-लड़कियों को गुंडे ही नहीं, पुलिस भी पीटने लगी, विरोध में आवाज़ उठाने वालों को घर में घुसकर गोली मारी जाने लगीं, बैंकों से हजारों करोड़ रुपयों का कर्ज डकारकर देश छोड़ने का सिलसिला चल निकला, सरकारी नौकरियां खत्म होने लगीं, आरक्षण बेअसर किया जाने लगा और उरी, पठानकोट और पुलवामा में आतंकी हमले होते रहे.


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ऐसी परिस्थतियों में भाजपा और नरेंद्र मोदी चाहते ही थे कि देश भूल जाए कि नरेंद्र मोदी ने कभी चौकीदार होने का दावा भी किया था. अब कांग्रेस बहुत चतुराई से भाजपा को इसी चौकीदार वाले जाल में फंसा चुकी है. यह तय हो चुका है कि 2019 के चुनाव प्रचार में हर भाजपा विरोधी दल की सभा में ‘चौकीदार चोर है’ का नारा लगेगा.

भाजपा वाले जितना भी ‘मैं भी चौकीदार’ का नारा लगाएंगे, उतना ही लोगों को नरेंद्र मोदी की चौकीदार की भूमिका की नाकामयाबी याद आएगी और शायद उनकी मिलीभगत भी सच लगने लगेगी.

इसके पहले, किसानों की कर्जमाफी के मामले में भी कांग्रेस ने भाजपा को बुरी तरह से फंसाया था और सफलता पाई थी. कर्नाटक और बाद में 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों के समय राहुल ने दस दिनों के अंदर कर्जमाफी करा देने का ऐलान कर दिया था. भाजपा केंद्र में ही नहीं, अधिकतर राज्यों में भी सत्ता में थी इसलिए वह इस नारे का कोई जवाब नहीं दे पाई और मात खा बैठी.

भाजपा अगर जवाब में कर्जमाफी करने का ऐलान करती तो उसे तुरंत करके दिखाना पड़ता और वो भी एक नहीं, अपने शासन वाले सभी राज्यों में करना पड़ता. उसे यह भी सवाल किया जाता कि अब तक उसने कर्जमाफी क्यों नहीं की. यही कारण रहा कि भाजपा या तो चुप रही या फिर यही कहती रही कि इस तरह की कर्जमाफी से किसानों को कोई स्थायी मजबूती नहीं मिलेगी.

उधर राहुल गांधी ने किसानों की कर्जमाफी को विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसे भगोड़े पूंजीपतियों के बैंकों से हजारों करोड़ रुपए लूटकर भाग जाने से जोड़ दिया और कहना शुरू कर दिया था कि जब पूंजीपति बैंकों की इतनी बड़ी रकम लेकर भाग सकते हैं तो किसानों को भी कर्जमाफी मिलनी चाहिए. भाजपा फंस चुकी थी और उसे नुकसान उठाना पड़ा.

इसी तरह चौकीदार वाले ट्रैप में भी भाजपा शायद विकल्पहीनता के अभाव में ही फंसी है. उसकी तरफ से अब कोई आक्रामक नीति सामने नहीं आ रही है और वह बचाव में गलतियां करती प्रतीत होने लगी है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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