यकीनन यह नरेन्द्र मोदी का करिश्मा ही है कि जो विश्लेषक अभी हाल तक यह कहने को लेकर उनका मजाक उड़ा रहे थे कि इस लोकसभा चुनाव में उनकी सरकार के पक्ष में अंडरकरेंट अथवा प्रो-इन्कम्बैंसी है, अब उनके निष्कर्षों का मजाक उड़ रहा है. इतना ही नहीं, जिनका दिल एग्ज़िट पोल्स के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत देने वाले नतीजों को मानने को राजी नहीं हो रहा था और समझता था कि मतगणना में वे औंधे मुंह गिर जाएंगे, वे उन नतीजों के बजाय मोदी विरोधी सूरमाओं को औंधे मुंह गिरते और अपनी हार के बहाने तलाशते देख रहे हैं. करें भी क्या, एग्ज़िट पोल्स को नकारा जा सकता था, लेकिन अब तो वास्तविक नतीजों से सामना है और देश में लू चल रही है.
यह सवाल फिर भी पूछना ही होगा कि यह महज मोदी का करिश्मा है या इसमें उन शक्तियों की अक्षमताओं की भी कोई भूमिका है, जो खुद को उनके विपक्ष के तौर पर व्याख्यायित करती रही हैं? सच्चाई यह है कि मोदी का नीतिगत विपक्ष न सिर्फ इस चुनाव में बल्कि उनके पूरे सत्ताकाल में पूरी तरह अनुपस्थित रहा है. जो आभासी विपक्ष उपस्थित भी था, वह 2014 की पराजय के बाद लम्बे अरसे तक किंर्तव्यविमूढ़-सा इस कदर ठिठका रहा था कि लोगों में यह विश्वास ही नहीं जाग पाया कि वह अजेय नरेन्द्र मोदी को हरा भी सकता है.
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मोदी और उनकी सरकार के अनेक कदमों व कार्रवाइयों को जनविरोधी बताकर भी वह न उन्हें लेकर जनता के बीच गया, न ही कोई जन संघर्ष शुरू करने का जोखिम उठाया. उसमें थोड़ा-सा उत्साह तब जागा, जब गत वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने जैसे-तैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने में कामयाबी पा ली. लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और उसके बाद उसकी ओर से जो प्रयत्न हुए, वे मोदी की बेदखली के लिए पर्याप्त नहीं सिद्ध हुए.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा सरकारों की बेदखली के पीछे उनके खिलाफ जनाक्रोश की बड़ी भूमिका थी और उनकी बिना पर विपक्ष ने मान लिया था कि उन्हीं की तर्ज पर मोदी सरकार के खिलाफ फैला असंतोष भी उसके काम आ जायेगा. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह असंतोष था भी, लेकिन मतदाताओं ने उसके कारण मोदी को बेदखल कर फिर से उन्हें ही लाना ठीक नहीं समझा, जिनसे त्रस्त होकर वे 2014 में मोदी को ले आए थे. दूसरे शब्दों में कहें तो दो निराशाओं के बीच हुए इस चुनाव में उन्हें पुरानी के बजाय नई निराशा में थोड़ी उम्मीद दिखी और उन्होंने पुरानी निराशा को नए विकल्प में बदलने से मना कर दिया.
बहरहाल, नरेन्द्र मोदी की इस जीत से, जो भाजपा की महज इसलिए है कि मोदी उसके नायक हैं, कई पुराने मिथक टूट गये हैं. अब तक कहा जाता था कि जहां भाजपा कांग्रेस से सीधे मुकाबले में होती है, वहां उसे आसानी से हरा देती है, लेकिन जहां तीसरी शक्तियां होती हें, वे उसका विजय रथ रोक देती हैं. लेकिन इस बार भाजपा ने पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और उड़ीसा में बीजू जनता दल को हराकर और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा व रालोद गठबंधन के हाथों संभव अपना बड़ा नुकसान टालकर इस मिथ को बुरी तरह तोड़ डाला है. इसी के साथ इस मिथ को भी कि उसके विरोधी गठबंधन बनाकर उसे हरा सकते हैं. आप कह सकते हैं कि गठबंधन की राजनीति में भी उसने चतुराईपूर्वक अपने विरोधियों, खासकर कांग्रेस को पछाड़ दिया. वह उनके गठबंधन को लगातार महामिलावट बताती और अपने गठबंधन का रास्ता हमवार करती रही.
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इसके उलट कांग्रेस उत्तर प्रदेश और दिल्ली समेत कई राज्यों में भाजपा विरोधी गठबंधन बना ही नहीं पाई और कोई गठबंधन बना भी तो खुद उसके बाहर रह गई. लेकिन इस बात का क्या किया जाये कि बिहार और कर्नाटक में राष्ट्रीय जनता जनता दल और जनता दल यूनाइटेड से हुए गठबंधनों से भी उसे कुछ हासिल नहीं हो पाया.
अगर राजनीति, जैसे भी संभव हो, सत्ता पर कब्जा करने की कला है, जो वह है ही, तो कहना होगा कि मोदी ने इसमें अपनी महारत और इच्छाशक्ति दोनों सिद्ध कर दी है. उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद में, जब भी जिसकी और जैसी भी जरूरत समझी, उसे बरता, जबकि विपक्ष के अनेक महानुभावों के लिए अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं से पार जाना भी संभव नहीं हुआ. तिस पर वे सब के सब जमीनी हकीकत के ऐसे गलत आंकलन के शिकार रहे कि उत्तर प्रदेश में नतीजे आने के कुछ घंटे पहले तक बसपा सुप्रीमो मायावती की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रही थी. क्या जनता से गहरे कटाव के बगैर ऐसा गलत आंकलन संभव है? अब वे चाहें तो खुश हो लें कि जहां पिछले लोकसभा चुनाव में उनका खाता ही नहीं खुला था, इस बार उन्होंने दहाई में अपने सांसद चुनवा लिए हैं, लेकिन क्या यह बड़ा देश उनकी ऐसी छोटी छोटी खुशियों से प्रचालित हो सकता है?
अगर कोई नेता विपक्ष में रहते हुए भी जनता से इस कदर कटा हुआ हो कि उसका मूड ही न भांप पाये तो उससे सत्ता दल के साम, दाम, दंड या भेद से पूरी क्षमता के साथ निपटने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? खासकर जब सत्ता दल ने जातीय समीकरणों के उसके पारम्परिक हथियार को भोथरा कर डाला हो और राष्ट्र, धर्म, परम्परा, संस्कृति और सेना सबके दुरुपयोग पर आमादा हो. गौरतलब है कि इस दुरुपयोग के खिलाफ विपक्ष ने भाजपा को या तो उसके हथियार से ही हराने की कोशिश की या फिर इनकी बाबत चुप्पी साध कर. इसके विपरीत वह वैचारिक दृढ़ता के साथ सामने आता तो आज उसकी हार में भी एक नैतिक चमक होती. वह कह पाता कि वह किन्हीं पवित्र लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़कर हारा है और मोर्चा ही हारा है, युद्ध नहीं. लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा नहीं है. वह टू लिटिल भी प्रमाणित हुआ है और टू लेट भी, जबकि भाजपा ने सिद्ध कर दिया है कि वह झूठ बोलेगी और लाजवाब कर देगी और जो सच कहेंगे, उन्हें हरा देगी.
अब देश के जो हालात हैं, उनमें आगे सबसे बड़ा खतरा यह है कि नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार विपक्ष की इस पराजय को अपनी तमाम कारस्तानियों पर जनता की मोहर मान लेने की गलती करेगी. इससे समस्याएं घटने के बजाय बढ़ेंगी ही. योगेन्द्र यादव गलत नहीं कह रहे कि पश्चिम बंगाल में, जो भाजपा की नई प्रयोगशाला है, अगले दो सालों में क्या-क्या होगा, सोचकर रूह कांप उठती है. लेकिन क्या कीजिएगा, देश में राजनीतिक दलों द्वारा उन्हें मिले जनादेशों की मनमानी व्याख्याओं की लम्बी और समृद्ध परम्परा रही है. ऐसे में मीडिया से लेकर नीति आयोग और चुनाव आयोग तक ढेर सारी संवैधानिक संस्थाओं का ‘सफल’ इस्तेमाल करके प्रज्ञा सिंह ठाकुर जैसों तक को जिता लाई भाजपा को लेकर यह मानने का कोई कारण नहीं दिखता कि वह इस परम्परा से खुद को वंचित रखें.
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जो भी हो, विपक्ष के लिए गहन निराशा के इन क्षणों में यह समझना बेहतर होगा कि जैसे हर लेखक को अपना पाठकवर्ग बनाना पड़ता है, वैसे ही हर नेता या पार्टी को अपनी जनता और उसकी मानसिकता का निर्माण करना पड़ता है. नरेन्द्र मोदी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले दशकों में अपनी जनता और उसकी मानसिकता का दायरा बनाने और बढ़ाने में अथक मेहनत की है, जबकि विपक्ष इस बीच लगातार अपनी जनता गंवाता रहा है और सिर्फ सदाशयता के आधार पर ‘भारत के विचार’ की रक्षा करना चाहता है. उसे याद नहीं कि एक समय बाबासाहब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि कोई भी विचार शास्वत नहीं होता. विचार पैदा होते, खिलते, मुरझाते और मरते रहते हैं. इसलिए किसी को भी अपने विचारों को जिन्दा रखने और फैलाने के लिए उन्हें समय-समय पर खाद-पानी देना होता है. इस सबक को विपक्ष जितनी जल्दी फिर से याद कर लेगा, उतनी ही जल्दी अपनी दुर्दशा को खत्म कर पाएगा.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)