पटना: बिहार में विपक्षी महागठबंधन ने शुक्रवार को लोकसभा चुनावों के लिए सीटों के बंटवारे संबंधी जिस समझौते की घोषणा की, उसमें सर्वाधिक रियायतें राज्य में विपक्ष को एकजुट करने का बीड़ा उठाने वाली पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने दी हैं.
लालू प्रसाद यादव की अगुआई वाली पार्टी ने पहली बार बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से आधी से कम पर चुनाव लड़ना स्वीकार किया है. अब से पहले गठबंधन में रहने के बावजूद राजद ने कभी भी राज्य की 25 सीटों से कम पर उम्मीदवार खड़े नहीं किए थे.
पर, इस बार सीट बंटवारे के बहुप्रतीक्षित फार्मूले के अनुसार राजद मात्र 19 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, कांग्रेस को नौ सीटें मिली हैं. महागठबंधन के अन्य घटकों में से पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) को पांच सीटें तथा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) और मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) को तीन-तीन सीटें मिली हैं. जबकि वामपंथी सीपीआई (माले) एक सीट पर चुनाव लड़ेगी.
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राजद नेताओं ने कहा है कि महागठबंधन के घटक दलों को आवंटित सीटों की संख्या तो नहीं बदलेगी, पर चुनाव के बाद के चरणों में पार्टियां सीटों की अदला-बदली कर सकती हैं— खास कर दरभंगा और वाल्मीकि नगर सीटों की.
सीटों के बंटवारे की घोषणा करते हुए राजद सांसद मनोज झा ने कहा, ‘महागठबंधन के सारे घटक दल अपनी सीटों की संख्या कम करने के लिए रज़ामंद हुए हैं, ताकि चुनावी गठबंधन वास्तविकता बन सके.’
‘हमारे नेता लालू प्रसाद ने 2014 चुनावों के तत्काल बाद इस गठबंधन की आधारशिला रख दी थी. यह गठबंधन पार्टियों का समूह मात्र नहीं है, बल्कि यह दबे-कुचले वर्गों की आवाज़ बनेगा.’
लालू प्रसाद की पार्टी के पक्ष में एक अच्छी बात ये हुई है कि इसने आखिरकार शरद यादव को उनकी पुरानी सीट मधेपुरा से राजद के टिकट पर लड़ने के लिए मना लिया.
राजद के नेताओं ने दिप्रिंट से बातचीत में स्वीकार किया कि सीटों के बंटवारे के समझौते पर पार्टी प्रमुख लालू प्रसाद का असर स्पष्ट है. लालू इस समय चारा घोटाला मामले में रांची में न्यायिक हिरासत में रखे गए हैं.
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘तेजस्वी (लालू के पुत्र) रालोसपा को मात्र तीन सीटें देना चाहते थे. पर उन्हें इसे बढ़ाकर पांच करना पड़ा क्योंकि लालू ने इसके लिए कुशवाहा को आश्वस्त कर रखा था.’
इसी तरह, महागठबंधन के छोटे घटक दलों हम और वीआईपी में से प्रत्येक को तीन सीटें दी गईं, जबकि राजद में बहुतों का मानना था कि इन दोनों की हैसियत मात्र एक-एक सीट की है.
‘लालू एक बड़ा सामाजिक गठजोड़ बना रहे हैं’
राजद नेताओं का कहना है कि पार्टी ने घटक दलों को इसलिए रियायतें दी हैं क्योंकि इन चुनावों में लालू अपना सामाजिक आधार बढ़ाना चाहते हैं.
पार्टी के एक नेता ने कहा, ‘2009 और 2014 के लोकसभा चुनावों में राजद के सीटों की संख्या चार पर अटकी रही थी. लालू जी को इस बात का अहसास हो गया कि मुस्लिम और यादव समुदायों के मौजूदा समर्थन आधार के सहारे वह चार सीटों से अधिक जीतने की उम्मीद नहीं कर सकते. उन्होंने महसूस किया कि अधिक सीटें जीतने के लिए उन्हें अपना सामाजिक आधार बढ़ाना पड़ेगा.’
महागठबंधन के घटक दलों पर गौर करने पर इस बात में दम नज़र आता है. रालोसपा पिछड़े वर्ग की कुशवाहा जाति का प्रतिनिधित्व करती है, जो बिहार की आबादी में 6 से 8 प्रतिशत के करीब है. कुशवाहा मतदाताओं का कराकट, उजियारपुर, समस्तीपुर और खगड़िया जैसी कई लोकसभा सीटों पर प्रभुत्व है. उल्लेखनीय है कि वोटरों का यह वर्ग परंपरागत रूप से राजग गठबंधन के साथ रहा है.
इसी तरह, हम के जीतन राम मांझी को मुसहरों का नेता माना जाता है. दलित समुदाय की मुसहर जाति राज्य की आबादी में चार प्रतिशत के करीब है, और गया लोकसभा क्षेत्र में ये बड़ी संख्या में हैं.
जबकि, साहनी की पार्टी वीआईपी को साथ लेकर महागठबंधन उनके मल्लाह समुदाय में पैठ बनाने की उम्मीद करता है. मल्लाहों को राज्य के अत्यंत पिछड़ा वर्ग में रखा गया है. बिहार के मतदाताओं में से करीब 29 प्रतिशत अत्यंत पिछड़ा वर्ग के हैं.
लालू का खुद का मुसलमानों और यादवों का सामाजिक आधार बिहार के 30 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करता है.
मुकाबला अगड़ी जातियां बनाम अन्य का करने की कोशिश
जहां राजग गठबंधन के उम्मीदवारों में से बहुतायत ऊंची जाति वालों की है, वहीं विपक्षी महागठबंधन दलित और पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को उतार कर उनका मुकाबला करने की उम्मीद करता है.
राजद नेता इस रणनीति का ज़िक्र करते हुए 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान के माहौल का उल्लेख करते हैं जब लालू ने भाजपा को ऊंची जातियों की पार्टी करार देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान का इस्तेमाल किया था. तेजस्वी के एक निकट सहयोगी ने दिप्रिंट से कहा, ‘ऐसा भले ही ऊंची जातियों के हमारे उम्मीदवारों की कीमत पर होता हो.’
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रणनीति में बदलाव औरंगाबाद संसदीय सीट पर दिखने भी लगा है, जहां टिकट के दावेदारों में कांग्रेस के निखिल कुमार सिंह सबसे आगे थे. सिंह दिल्ली पुलिस के प्रमुख तथा केरल और नागालैंड के राज्यपाल रह चुके हैं. राजपूत जाति के सिंह राजपूतों के वर्चस्व के कारण बिहार का चित्तौड़गढ़ कहे जाने वाले औरंगाबाद क्षेत्र से स्वाभाविक उम्मीदवार माने जा रहे थे.
पर इस बार, महागठबंधन ने औरंगाबाद सीट इस शर्त के साथ हम पार्टी को सौंप दिया है कि वह वहां से पूर्व जद (यू) विधायक उपेंद्र प्रसाद को लड़ाएगी, जो कि पिछड़े वर्ग के दांगी समुदाय से हैं. महागठबंधन के नेताओं को भरोसा है कि इस सीट पर दांगी, यादव और मुस्लिम समुदायों की सम्मिलित ताकत ऊंची जातियों के वर्चस्व को खत्म कर सकेगी.
राजद सांसद झा ने कहा, ‘एकमात्र कमी लालू प्रसाद की अनुपस्थिति के रूप में होगी. उनके अपने बीच रहने पर हमारे कार्यकर्ता बहुत उत्साहित होते.’
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