कुछ मुद्दे लोकसभा चुनाव से रहस्यमय तरीके से गायब हैं. वे बेहद जरूरी सवाल हैं. उनका करोड़ों लोगों के जीवन पर अच्छा या बुरा असर हुआ है. जब ये मुद्दे पहली बार सामने आए तो उन पर काफी चर्चा हुई. अखबारों और चैनलों में हेडलाइंस बनीं. लेकिन जब उन मुद्दों पर राय बना कर मतदान करने का समय आया तो वे गायब हो गए.
मिसाल के तौर पर आठ नवंबर, 2016 को भाजपा के शासनकाल के सबसे ज्यादा चर्चित रहे नोटबंदी के फैसले ने भी ऐसी बहस खड़ी नहीं की या उसमें ऐसी तीव्रता नहीं आ सकी, जिससे आम लोगों को उस फैसले की हकीकत समझने में मदद मिलती. जबकि नोटबंदी के कारण लोगों, खासकर छोटे व्यापारियों को तबाही का सामना करना पड़ा, डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई, भ्रष्टाचार जैसी समस्या पर कोई फर्क नहीं पड़ा, और आतंकवाद भी खत्म नहीं हुआ. आज ये खबरें यह भी आ चुकी है कि नोटबंदी के फैसले के पहले जितने मूल्य के नोट बाजार में थे, उससे करीब बीस फीसदी ज्यादा नोट बाजार में आ चुके हैं. लेकिन न तो बीजेपी इस आधार पर वोट मांग रही है कि इससे भ्रष्टाचार और आतंकवाद खत्म हुआ और न ही विपक्ष इसे मुद्दा बना पा रहा है कि नोटबंदी अपने लक्ष्यों को किस हद तक पूरी कर पाई.
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कई बार ऐसा लगता है कि देश के शासन को एक तमाशे की तरह चलाया जा रहा है, जिसमें बेहद गंभीर और नीतिगत फैसले भी दिखावे के तौर पर इस तरह लागू किए गए, मानो सिर्फ उससे प्रचार हासिल करके ही किसी समस्या का हल पा लिया जाएगा. हर दो-तीन दिन या हफ्ते भर बाद कोई न कोई ऐसा मुद्दा सुर्खियों में आया, जिसका हासिल कुछ भी नहीं था, सिवाय इसके कि लोगों को किसी भी मसले पर सोचने-समझने के लिए वक्त नहीं दिया गया. बल्कि सचेतन यह कोशिश दिखी कि लोगों के सोचने-समझने की प्रक्रिया को बाधित किया जाए और किसी भी मसले पर ठोस राय नहीं बनने दी जाए. सवाल है कि एक राजनीति के तहत चल रहे इस खेल का मकसद क्या था?
शोषण का सामाजिक एजेंडा
इसमें कोई शक नहीं कि एक तरफ बाजार की ताकतें और दूसरी तरफ वर्चस्वशाली जातियों-तबकों ने इस बीच देश के ज्यादातर आर्थिक संसाधनों पर कब्जा जमाया, सार्वजनिक या सरकारी उपक्रमों को कमजोर किया गया, निजी क्षेत्र का ताकतवर विस्तार हुआ और धन-संपत्ति का केंद्रीकरण हुआ. लेकिन भारत का समूचा समाज चूंकि केवल आर्थिक रूप से विभाजित नहीं है और इसका सबसे बड़ा सच इसका सामाजिक और जातिगत आधार है, इसलिए भाजपा सरकार के तमाम नीतिगत फैसलों को सामाजिक मकसद साधने से अलग करके नहीं देखा जा सकता.
यह किसी से छिपा नहीं है कि सतह या पटल पर चल रही बेमानी मुद्दों पर लगातार बहसों के बीच सबसे ज्यादा बारीक तरीके से दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के अधिकारों पर चोट पहुंचाई गई. यह समाज के स्तर पर जूता पहनने या मूंछें रखने वाले दलित युवकों से मारपीट के रूप में सामने आया या इस तरह के दूसरे बर्बर बर्ताव सामने आए. मरी गाय की खाल उतारते ऊना के दलित युवकों की सरेआम बर्बर तरीके से पिटाई ने समूचे देश और दुनिया को हिला दिया था.
इससे पहले हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या के रूप में सांस्थानिक हत्या का जो रूप सामने आया, उसने सत्ता और तंत्र के चरित्र को उजागर किया और इसके खिलाफ देश भर में व्यापक रोष पैदा हुआ. फिर भीमा-कोरेगांव युद्ध की दो सौवीं वर्षगांठ के दिन वहां जुटे लोगों पर हमला करके यह जताने की कोशिश की गई कि चेतना के स्तर पर ब्राह्मणवाद के खिलाफ किसी प्रतीक या लड़ाई को कुंद करने की हर कोशिश की जाएगी.
वंचितों पर पड़ी चौतरफा मार
दूसरी तरफ, नौकरियों और उच्च शिक्षा में दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को कई स्तर पर चोट पहुंचाने या कमजोर करने की प्रक्रिया की शुरुआत की गई. एक ओर लाखों आदिवासियों को जंगल से जबरन बेदखल करने का फैसला आता है, जिस पर विवाद और आपत्ति के बाद फिलहाल रोक है तो दूसरी ओर अकेले छत्तीसगढ़ में एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर घने वनक्षेत्र एक खदान कंपनी को सौंपने को मंजूरी दे दी जाती है.
इसके अलावा, वह चाहे सरकारी नौकरियों में भारी कटौती करने, निजीकरण की प्रक्रिया को और तेज करने, उच्च शिक्षा में फीस को बहुत ज्यादा करने से लेकर तकनीकी निर्भरता जैसे कई पेच खड़ा करने, भर्ती प्रक्रिया में एससी-एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण के नियम-कायदों की तोड़-मरोड़ करने, अकादमिक जगत से दलित-पिछड़ी जातियों को बाहर करने के मकसद से तेरह पॉइंट रोस्टर लागू करने की कोशिश और गरीबी के नाम पर उच्च कही जाने वाली जातियों के लिए दस प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए आनन-फानन में संविधान संशोधन- इन सब व्यवस्था की अंतिम मार दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासियों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति पर पड़ना है.
प्रतिरोध के रास्ते
सत्ताधारी जातियों के चरित्र का यह पक्ष समझना मुश्किल है कि उसने आखिर किन वजहों से अनुसूचित जातियों और आदिवासियों के सम्मान और हक के संरक्षण के लिए बने कानून तक को खत्म कराने की कोशिश की. एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम को लगभग दंतहीन बना देने के अदालत के फैसले ने साबित किया था कि समाज पर वर्चस्व जमाए बैठी जातियां आज भी किस सामंती और मनुवादी मानसिकता में जी रही हैं और तंत्र में वंचित जातियों की भागीदारी की कमी के क्या नतीजे हो सकते हैं. अगर इसके खिलाफ दो अप्रैल, 2018 को देश भर में एक बड़ा प्रतिरोध नहीं खड़ा होता तो शायद मौजूदा सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस देश की दलित-वंचित जातियों के खिलाफ किस तरह की अन्यायपूर्ण व्यवस्था की वापसी कराई जा रही है!
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इसके समांतर सच यह भी है कि सामाजिक स्तर पर सशक्तीकरण का स्तर अब इस हद तक पहुंच चुका है कि इन सवालों पर एक ठोस राजनीतिक लड़ाई खड़ी हो रही थी. ‘एससी-एसटी एक्ट’ के हक में दो अप्रैल और ‘तेरह पॉइंट रोस्टर’ के मसले पर पांच मार्च को भारत बंद के जरिए यह सामने भी आया.
आरएसएस-भाजपा की राजनीति का असली एजेंडा ब्राह्मणवादी ढांचे के खिलाफ इसी प्रतिरोध को रोकना है. इस मकसद से ऐसे मुद्दे खड़े किए गए, हर वक्त राष्ट्रवाद, हिंदू-मुसलमान, पाकिस्तान या इस तरह के फिजूल मुद्दों में उलझाए रखा गया, जिस पर राय जाहिर करना आज जोखिम का काम बन चुका है. इसीलिए सामान्य जनता के सवालों से जुड़ी हकीकतें राष्ट्रवाद के उन्माद से ढकने की कोशिश की जाती है. इस पर्दे के तले दलित-वंचित जातियों-तबकों के अधिकारों को छीनने का इंतजाम किया जाता है.
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)