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Friday, 22 November, 2024
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सोचिये ज़रा, एक सीट के लिए एक हज़ार से ज़्यादा उम्मीदवार मैदान में आ जायें तो?

कभी चुनावों के समय गांवों की महिलाएं विभिन्न चुनाव चिह्नों वाली भांति-भांति के रंगों की ढेर सारी बिंदिया-टिकुलियां इकट्ठा कर लेती थीं.

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एक अनार सौ बीमार वाली कहावत आपने अनेक बार सुनी होगी. कौन जाने कभी तंगी से गुज़रते हुए सोचा भी हो कि कभी एक अनार को वाकई सौ बीमारों में बांटना पड़े तो कितनी मुश्किल होगी.

आज एक नई कल्पना कीजिए: किसी चुनाव में एक सीट के लिए एक हज़ार से ज़्यादा उम्मीदवार मैदान में आकर ताल ठोंकने लग जायें तो? इस जानकारी के साथ कि आपकी यह कल्पना निरी कल्पना नहीं होगी. 1996 में हुए तमिलनाडु विधानसभा के चुनाव में एक सीट पर एक ऐसा ही वाकया पेश आया था.

तब वहां के प्रसिद्ध पेरियार ज़िले के इरोड लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में स्थित मोडाकुरिची नाम की इस विधानसभा सीट से एक स्थानीय समस्या का समाधान न होने से नाराज़ एक हज़ार तैंतीस लोगों ने अपनी उम्मीदवारी के परचे भर दिये थे.

उनका कहना था कि उन्होंने मोडाकुरिची से इससे पहले निर्वाचित होते आ रहे विधायकों द्वारा उक्त समस्या के समाधान में रुचि न लेने के प्रति विरोध दर्ज कराने के बाकी तरीकों के बेअसर हो जाने के बाद यह कदम उठाया, लेकिन उनके द्वारा नामांकन पत्रों की वापसी की तारीख बीत जाने पर भी अपने परचे वापस न लेने से चुनाव आयोग की समस्या उनकी समस्या से कहीं ज़्यादा बड़ी हो गई. अंततः उसकी परेशानियां इतनी बढ़ गईं कि उसे उस सीट का चुनाव स्थगित करने के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझा.


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फिलहाल किसी एक सीट के लिए प्रत्याशियों की यह संख्या अभी भी एक रेकार्ड है. इसके चलते चुनाव आयोग के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आई कि इतने प्रत्याशियों को चुनाव चिह्न कैसे उपलब्ध कराये जायें? बाद में इनकी मुकम्मल व्यवस्था के बाद मतपत्र को एक पुस्तिका के रूप में छापा गया तो मतदान के दिन मतदाताओं को उसे उलट-पलट कर अपने प्रत्याशी का चुनाव निशान ढूंढ़ने में खासी मशक्कत करनी पड़ी.

उन दिनों इस चुनाव के नतीजे पर देश भर की नज़र थी. पुस्तिकाकार मत पत्रों के कारण मतगणना में भी लम्बा समय लगा. नतीजे के तौर पर द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम की सुब्बूलक्ष्मी जगदीशन ने अन्नाद्रमुक के आर एन किट्टूस्वामी को हराकर विजय दर्ज की. सुब्बूलक्ष्मी को 64,436 वोट मिले जो कुल हुए मतदान का 54.97 प्रतिशत थे, जबकि किट्टूस्वामी को 24,896 वोट ही मिल सके.

प्रसंगवश, तमिलनाडु के उस चुनाव में दो और सीटें ऐसी थीं, जहां प्रत्याशियों की ज़्यादा संख्या के कारण मतदान आगे के लिए टालना पड़ा था.

पहले आम चुनाव की कठिनाइयां

सोचिये कि जब प्रत्याशियों की संख्या बढ़ जाने के कारण चुनाव कराना इतना कठिन हो जाता है तो देश में पहले आम चुनाव की व्यवस्था में कितनी कठिनाई हुई होगी, जब न कोई मतदाता सूची तैयार थी, न ही मतपत्र या मतपेटियां. यहां तक कि मतदान केन्द्र भी तय नहीं थे. 85 प्रतिशत मतदाता निरक्षर थे और पहाड़ों व दुर्गम स्थलों पर स्थित अनेक गांवों तक पहुंचने के साधन नहीं थे. न सड़कें और न पुल. वहां चुनाव कराने के लिए ज़रूरी था कि यातायात को सुगम बनाने के लिए पुल और सड़कें बनाई जायें.

लेकिन तब देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने सारी ज़िम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया था. तथ्यों के अनुसार उन दिनों मतपेटियां बनवाने के लिए 8200 टन स्टील की जरूरत पड़ी थी. कई चरणों में सम्पन्न उस आम चुनाव में मतदान का पहला चरण 25 अक्टूबर, 1951 को सम्पन्न हुआ था, जबकि पहली लोकसभा 2 फरवरी, 1952 को विधिवत गठित हुई थी.


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इस सिलसिले में आज इलेक्ट्रानिंक वोटिंग मशीनों के दौर में कम से कम नई पीढ़ी के लिए यह जानना भी खासा दिलचस्प है कि तब मतदान केन्द्रों पर अलग-अलग उम्मीदवारों के लिए अलग-अलग रंगों की मतपेटियां रखी जाती थीं और मतदाता अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने के लिए उसके लिए निर्धारित मतपेटी में मत डालता था.

बाद में यह व्यवस्था खत्म कर दी गई क्योंकि इसमें यह ऐब था कि किसी प्रत्याशी की मतपेटी भर जाती तो उसे बदलना पड़ता था. इससे मतदान प्रक्रिया की गोपनीयता भंग होती थी और पता चल जाता था कि प्रत्याशियों में कौन जीत रहा है. आगे चलकर मतपत्र पर वांछित निशान पर मोहर लगाने के बाद हर मतदाता का मत एक ही पेटी में डालने की व्यवस्था की गई. इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनें आने के बाद तो मतपत्र, मतपेटी और मुहर सब इतिहास में समा गये हैं.

गुम हो गये बिल्ले भी!

लेकिन अगर आप सोचते हैं कि सिर्फ मतपेटियां और मतपत्र ही इतिहास में गुम हुए हैं तो गलती पर हैं. अब चुनाव प्रचार में ‘बिल्लों’ का चलन भी ऐसा खत्म हो गया है कि वे किसी भी प्रत्याशी या उसके समर्थकों के सीने पर सजे नहीं दिखाई देते. लेकिन देश के चुनावी इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब प्रत्याशियों की प्रचार गाड़ियों के आते ही क्या युवा और क्या बच्चे, सभी उनके चुनाव चिह्नों या नेताओं के चित्रों वाले बिल्ले पाने के लिए दौड़ पड़ते थे और आलपिन की मदद से उन्हें अपने सीने पर सजाकर खुश होते थे.


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पहले ये बिल्ले टिन के ही होते थे, लेकिन बाद में कागज़ और प्लास्टिक के भी बनने लगे थे. वे इतने आकर्षक होते थे कि उन्हें पाने की दीवानगी शहरों से लेकर गांवों तक के लोगों में एक सी दिखाई देती थी. अब कई प्रत्याशी कहते हैं कि ये बिल्ले चुनाव आयोग द्वारा मतदाताओं को कुछ भी बांटने पर लगाई गई बंदिशों की भेंट हो गये हैं हालांकि यह हालात का पूरा सच नहीं लगता.

कभी चुनावों के समय गांवों की महिलाएं विभिन्न चुनाव चिह्नों वाली भांति-भांति के रंगों की ढेर सारी बिंदिया-टिकुलियां इकट्ठा कर लेती थीं. पर अब ऐसा नहीं होता. प्रत्याशियों के प्रचार वाहनों पर अपनी या अपनी पार्टी की तारीफ व विरोधियों पर व्यंग्य वर्षा करने वाली लोकगीतों व फिल्मी गीतों की पैरोडी भी अब सुनाई नहीं देती. कुछ सुनाई देता है तो बस नेताओं का शालीनता की हदें लांघता वाक्युद्ध!

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार है.)

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