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Monday, 25 November, 2024
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लालू प्रसाद यादव की आत्मकथा की 5 बातें, कोई और नेता लिखता तो ‘महान’ बन जाता

दलितों ने लिटरेचर लिखा तो उसे ‘दलित साहित्य’ कहकर पुस्तक मेलों में ही किनारे स्टॉल पर खड़ा कर दिया गया. ठीक वैसे ही, जैसे जाति सिस्टम में होता है.

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लालू प्रसाद यादव की आत्मकथा ‘गोपालगंज टू रायसीना’ आई है और आते ही विवादों से घिर गई है. किताब में लालू प्रसाद यादव ने अपने ऊपर लगे कई आरोपों के जवाब दिये हैं. इस किताब में जो 5 बातें सबसे महत्वपूर्ण हैं, वो इस प्रकार हैं-

एक तो उन्होंने साफ-साफ कहा है कि वो किसी भी कीमत पर सत्ता पाने को तैयार थे.

दूसरा, उन्होंने स्वीकारा है कि राजनीतिक सफलताओं के बाद वो अहंकारी हो गये थे.

तीसरा, लोहा सिंह के डायलॉग बताते हुए साफगोई से कहते हैं कि पैट्रियार्कल समाज में औरतों को नीचा दिखाना ही मजे की बात मानी जाती थी.

चौथा, पटना क्लब में दलितों और विशेषकर ‘डोम’ जाति के लोगों को घुसाने जैसा काम दक्षिण भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पेरियार ई वी रामास्वामी नईकर के मंदिर प्रवेश आंदोलन के जैसा है. गौरतलब है कि ‘डोम’ जाति के लोगों के पास जमीन नहीं थी और वो सड़कों पर शादी-विवाह करते थे. पुलिस इस बात के लिए उनको पीटती थी.

पांचवां, किसी ग्रामीण वृद्ध की तरह गंभीरता से भूत देखने की बात करने से लेकर ‘चूंटा हो चूंटा’ जैसे बचकाने और ग्रामीण खेल खेलने की बात करते हुए सही अर्थों में ग्रामीण परिवेश को बयान करते हैं.

ये स्वीकारोक्तियां किसी अन्य नेता की आत्मकथा में देखने को नहीं मिलती हैं. देश के तमाम शीर्ष नेताओं पर किताबें छपीं. फिल्में बनीं. सबमें उनका महिमामंडन ही होता है. कोई ये स्वीकार नहीं करता कि सत्ता के लालच में क्या कुछ किया. ना ही ये बताता है कि सत्ता में आने के बाद वो कितना बदला. दूसरी बात कि आखिर कितने पिछड़े और दलितों की आत्मकथाएं आती हैं? कभी कभी ऐसा लगता है कि आत्मकथा लिखने पर भी कथित उच्च जातियों का ही हक रहा है. दलितों ने लिटरेचर लिखा तो उसे ‘दलित साहित्य’ कहकर पुस्तक मेलों में ही किनारे स्टॉल पर खड़ा कर दिया गया. ठीक वैसे ही, जैसे जाति सिस्टम में होता है.

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लालू यादव/ दिप्रिंट

इस किताब में लालू प्रसाद यादव ने अपने जीवन के कई पक्ष रखे हैं. उन्होंने कहा है कि वो कभी भी ‘भूरा बाल साफ करो’ जैसी बातें नहीं बोले. उनके स्कूल टाइम से ही लेकर उच्च जाति के लोगों से भी अच्छे ही संबंध रहे. लालू प्रसाद क्लियर करते हैं कि जातिवाद से दिक्कत थी, लोगों से नहीं. इसी तरह ‘आईएएस अफसरों से खैनी मलवाने और थूकदान ढोवाने’ जैसी बातों का भी खंडन करते हैं. क्योंकि बहुत सारे अफसरों ने उनके साथ बहुत अच्छा काम भी किया है. एक महत्वपूर्ण बात का जिक्र करते हुए कहते हैं कि जब वो 1991-92 में लगातार दलितों के हकों के लिए काम कर रहे थे, जिसे परंपरागत राजनीति बेवकूफी समझ रही थी, बहुत सारे अफसर केंद्र में जाने के लिए बेताब हो गये थे. ब्यूरोक्रेसी में फैले जातिभेद का ये नमूना था.


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अगर भारतीय राजनीतिक नेताओं की बात करें तो सिर्फ महात्मा गांधी ने ही अपनी आत्मकथा ‘माय एक्सीपेरिमेंट विद द ट्रुथ’ में अपनी कमियों के बारे में भी खुल के बताया है. आत्मकथा लिखने के मामले में ये किताब स्टैंडर्ड है. उनकी किताब पढ़कर पता चलता है कि वो कोई महामानव नहीं थे, साधारण आदमी थे जिन्होंने चिंतन-मनन कर अपना जीवन आगे बढ़ाया.

ये आश्चर्यचकित करने वाला है कि बाकी नेताओं की आत्मकथाओं और जीवनियों को ‘एक व्यक्ति के जीवन की कहानी’ की तरह देखा जाता है. उसे एक राजनैतिक यात्रा की तरह देखा जाता है. लेकिन लालू यादव की आत्मकथा में लगातार नुक्स निकालने की कोशिश की जा रही है. जैसे  भाजपा नेता सुशील मोदी ने तो इस किताब को सबसे घटिया किताब के टाइटल से नवाज़ा है. हालांकि इसकी कोई वजह नहीं बताई है. वे ये भी कहते हैं कि किताब में गलतियों की भरमार है-इसके चार पन्नों में ही सौ गलतियां मिली हैं! पिछले साल सुशील मोदी खुद ‘लालू लीला’ नाम से किताब लाये थे, जिसमें उन्होंने कथित तौर पर लालू प्रसाद यादव के ‘घोटालों’ का खुलासा किया था. सोशल मीडिया पर भी लालू प्रसाद यादव की आत्मकथा की जमकर आलोचना हुई.

पर लोगों का यही रवैया अन्य नेताओं की आत्मकथाओं पर नज़र नहीं आता. प्रणव मुखर्जी, एमजीआर, करुणानिधि, जयललिता, लालकृष्ण आडवाणी, अटलबिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी, चौधरी चरण सिंह- सबकी आत्मकथाएं और जीवनियां आई हैं पर उनको एक राजनैतिक यात्रा के तौर पर ही देखा जाता है. पर लालू यादव की किताब पर लेंस लगाकर नज़र रखी जा रही है.


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सोचिए कि अगर प्रणब मुखर्जी की किसी किताब में वो अपने अहंकारी होने की बात स्वीकार कर लेते तो उसे किसी महान कृति की संज्ञा दी जाती. अगर मनमोहन सिंह अपनी किताब में यह कह देते कि मैं हमेशा से ही सत्ता हासिल करना चाहते था तो क्या उसे इतिहास की सबसे शानदार किताब नहीं कहा जाता? कुछ दिन पहले राहुल गांधी ने कहा था कि कांग्रेस अहंकारी हो गई थी तो लोगों ने तारीफों का समां बांध दिया था. लेकिन जेल में बंद पिछड़े वर्ग के नेता ने इतनी बड़ी बातें स्वीकार कर ली हैं और मीडिया में कोई चर्चा नहीं है.

हरियाणा के ऊपर लिखी किताब थ्री लाल्स ऑफ हरियाणा पढ़ी तो उसमें कई जगह डींगें हांकने का कॉम्पीटिशन चल रहा था. एक आईएएस अधिकारी ने अपने चहेते नेता की तारीफ इस ढंग से की है कि साधारण पाठक पकड़ भी नहीं पाएगा.

सिविल सर्वेंट्स नटवर सिंह, भास्कर घोष, एम के कॉ, रोबिन गुप्ता और विनोद राय की लिखी किताबें पढ़ें तो सारे लोग ईमानदारी और प्रतिबद्धता की प्रतिमूर्ति बने नज़र आएंगे. ऐसा लगेगा कि टिटहरी ने आसमान थाम रखा था. किताब पढ़ते ही आपको लगेगा कि इन अफसरों को तो रिटायर ही नहीं होना चाहिए था.


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प्रणब मुखर्जी की आत्मकथा जब आई तो लोगों ने अनुमान लगाया था कि इसमें इमरजेंसी, संजय गांधी, 1984, बोफोर्स से जुड़ी बातें भी होंगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं निकला. ऐसा लगा कि प्रणब मुखर्जी ने तो ये शब्द ही नहीं सुने थे. इसी तरह लालकृष्ण आडवाणी की किताब से 2002, कंधार हाईजैक, 1990 के राम मंदिर आंदोलन की गलतियां- सारी स्वीकारोक्तियां गायब थीं. सब कुछ ऐसे दिखाया किया गया जैसे कुछ खराब हुआ ही नहीं था.

लेकिन किसी व्यक्ति की आत्मकथा उसका पक्ष है, तो हम उसी तरीके से उसे ग्रहण करेंगे. अगर प्रणब मुखर्जी और लालकृष्ण आडवाणी इन मुद्दों की सत्यता को अपनी आत्मकथा से छुपा ले गए, तो इसी से पता चलता है कि ये मुद्दे कितने गंभीर थे और इन पर कितने रिसर्च की आवश्यकता है.

उसी तरह लालू प्रसाद यादव की आत्मकथा भी उनका पक्ष है. हमें उनकी स्वीकारोक्ति के साथ वो चीज़े भी देखनी होंगी जो उसमें मिसिंग है. हालांकि लालू प्रसाद यादव की राजनीति पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि सब कुछ जाना पहचाना लगेगा. संतोष सिंह की ‘रूल्ड ऑर मिसरूल्ड’, संकर्षण ठाकुर की ‘द ब्रदर्स बिहारी’, विजय नांबिसन की ‘बिहार इन द आईज ऑफ बिहोल्डर’ जैसी तमाम किताबें हैं, जिनमें लालू प्रसाद यादव के शासनकाल की बातें मिल जाएंगी. पर लालू प्रसाद यादव के मन में क्या चल रहा था, वो जानना भी ज़रूरी है.


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ये बिल्कुल सही बात है कि कोई राजनेता अपनी आत्मकथा लिखकर खुद को पाक-साफ ही दिखाना चाहेगा, वो कभी स्वीकार नहीं करेगा कि उससे कुछ गलती हुई है. लेकिन लालू प्रसाद यादव ने कम से कम कुछ बातें स्वीकारी हैं. हालांकि अपने शासनकाल में हुई तमाम बातों के लिए उन्होंने सारे खुलासे नहीं किए हैं. बिहार में ‘किडनैपिंग इंडस्ट्री’ कैसे फलने लगी, इसके बारे में लालू प्रसाद यादव ने कुछ नहीं बोला है.

लेकिन सांप्रदायिकता और जातिवाद से जूझता हुआ भारत धीरे-धीरे एक ऐसे मोड़ पर पहुंच सकता है जहां नेताओं को ये स्वीकारोक्तियां देनी ही होंगी कि उन्होंने जान-बूझकर ये गलतियां कीं जिनकी वजह से देश इस स्थिति में पहुंचा है.

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