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Thursday, 21 November, 2024
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जानें- कैसे होते हैं एग्ज़िट पोल, कब फेल हुए और अब कितनी है इनकी विश्वसनीयता

योगेन्द्र यादव कहते हैं कि 2004 के चुनाव को अपवाद मान लें तो मोटे तौर पर एक्ज़िट पोल सफल रहे हैं. नतीजों की दिशा क्या होगी इसका पता अब भी चल जाता है. 

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नई दिल्ली: सातवें चरण की वोटिंग के साथ आज यानी रविवार को 2019 का आम चुनाव समाप्त हो जाएगा. चुनाव आयोग के निर्देश के मुताबिक आज शाम से मीडिया एग्ज़िट पोल का प्रसारण कर सकता है. एग्ज़िट पोल में मीडिया अपने द्वारा किए गए सर्वे के हिसाब से नतीजों की भविष्यवाणी करता है. हालांकि, ऐसे भी मौके आए हैं जब सटीक बताए जाने वाले एग्ज़िट पोल फेल हो गए. लेकिन अब भी इन पोल्स में लोगों की दिलचस्पी कतई कम नहीं हुई है. ऐसे में आइए जानते हैं कि ये पोल्स होते कैसे हैं.

चुनाव से जुड़े दो तरह के पोल्स होते हैं. एक ऑपिनियन और दूसरा एग्ज़िट पोल होता है. ऑपिनियन पोल चुनाव से पहले होते हैं जिसमें जनता के बीच जाकर मीडिया वाले उनका मूड समझने की कोशिश करते हैं. ऑपिनियन पोल में किसी ऐसी एजेंसी का सहारा लिया जाता है जो लोगों के बीच जाकर चुनाव संबंधी सर्वे करे. इसमें लोगों से राजनीति, समाज और चुनावी मुद्दों से जुड़े कई सवाल पूछे जाते हैं जिनके सहारे ये पता लगाया जाता है कि लोगों का झुकाव किस पार्टी की तरफ है. इसे चुनाव शुरू होने के पहले तक मीडिया वाले कई बार करते और दिखाते हैं. हालांकि, ऑपिनियन पोल की विश्वसनीयता या उनका दम एग्ज़िट पोल जैसा नहीं होता. ऑपिनियन पोल्स पर पक्षपाती होने के भी आरोप लगे हैं.

कैसे होते हैं एक्ज़िट पोल

दिप्रिंट से बात करते हुए सामाजिक वैज्ञानिक, चुनाव विश्लेषक और राजनीतिज्ञ योगेंद्र यादव ने बताया कि वोटर जब बूथ से बाहर निकल रहा होता है तब उससे एग्ज़िट पोल से जुड़ी जानकारियां ली जाती हैं. वहां एग्ज़िट पोल करने वाली एजेंसी का इन्वेस्टिगेटर खड़ा होता है. वो बाहर आने वाले हर आठवें, 10वें या 12वें व्यक्ति से जानने का प्रयास करता है कि उसने किसको वोट दिया. यादव ने बताया, ‘इन्वेस्टिगेटर कहता है कि आप मुझे मत बताएं. ये रहा बैलट पेपर और इस पर निशान लगाकर आप बक्से में डाल दें.

उन्होंने ये भी कहा कि आजकल ये टैबलेट जैसे इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स पर भी हो रहा है. उसी पर निशान लगवाकर आंकड़ा जुटा लिया जाता है. एग्ज़िट पोल की ख़ास बात ये होती है कि इसमें भी वोटर ने किसे वोट दिया ये तो पता चल जाता है लेकिन उसकी गोपनीयता बनी रहती है. यादव कहते हैं, ‘जो अच्छा एग्ज़िट पोल होता है उसमें गोपनीयता बनी रहती है.’ उन्होंने कहा कि सर्वे करने वाले को भी पता नहीं लगता कि किसने किसको वोट दिया है.

हालांकि, ऐसे थर्ड रेट सर्वे भी होते हैं जिनमें गोपनीयता को अहमियत नहीं दी जाती. वहीं, यादव ने मज़ाकिया लहज़े में ये भी बताया कि कुछ सर्वे तो एजेंसियां घर बैठे कर देती हैं. कई बार ऐसे ही सर्वे की वजह से जो आंकड़े दिखाए या बताए जाते हैं वो मार खा जाते हैं क्योंकि ये ठोस नहीं होते.

क्या इनकी अभी भी पहले जैसी विश्वसनीयता है

योगेन्द्र कहते हैं कि 2004 के चुनाव को अपवाद मान लें तो मोटे तौर पर एग्ज़िट पोल सफल रहे हैं. यादव कहते हैं, ‘2004 के साल के अलावा बाकी के मौकों पर एग्ज़िट पोल ये बताने में सफल रहे हैं कि नतीजों की दिशा क्या होगी.’ वो आगे कहते हैं कि राष्ट्रीय चुनाव की दिशा क्या होगी और किसकी सरकार बनेगी इसका पता अब भी चल जाता है.

कब कब फेल हुए एग्ज़िट पोल

आम चुनाव से जुड़े 2004 के एग्ज़िट पोल का बार-बार उदाहरण दिया जाता है. उस साल लगभग सभी पोल्स इस ओर इशारा कर रहे थे कि वाजपेयी की सरकार फिर से बन रही है लेकिन पासा पलट गया और कांग्रेस को भाजपा से ज़्यादा सीटें मिल गईं. इतना ही नहीं कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की जो सरकार बनी वो अगले 10 सालों तक चली. इसी का हवाला देकर हर बार एग्ज़िट पोल पर सवाल उठाए जाते हैं. लेकिन जैसा कि यादव कहते हैं कि अगर इसे अपवाद मान लें तो मोटे तौर पर एग्ज़िट पोल सफल रहे हैं.

कौन सी एजेंसिया सबसे भरोसेमंद हैं

वैसे तो अब कई एजेंसिया हैं जो ऑपिनियन और एग्ज़िट पोल करती हैं. लेकिन इस मामले में सबसे भरोसेमंद नाम सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस), सी-वोटर और चाण्क्या जैसी एजेंसियों का है. 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद से न्यूज़ 24 के लिए सर्वे करने वाला चाणक्या अचानक से मशहूर हो गया. उस चुनाव में एक ओर जहां बाकी के सर्वे में दिल्ली के सीएम केजरीवाल की पार्टी को बिल्कुल तवज्जों नहीं दी गई, वहीं चाण्क्या का सर्वे वो इकलौता सर्वे था जिसमें उस साल पहली बार चुनाव लड़ रही केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को सबसे ज़्यादा सीटें पाने वाली पार्टी के तौर पर दिखाया गया था. बाद में ये सही भी साबित हुआ.

हालांकि, पिछले कुछ चुनावों में चाण्क्या का सर्वे उतना सटीक नहीं रहा. वहीं, दो सबसे पुराने और भरोसेमंद नामों में सीएसडीएस और सी-वोटर के नाम शामिल हैं. एग्ज़िट पोल के बिल्कुल सटीक नहीं साबित होने के पीछे की एक वजह ये भी होती है कि भारत के कुल वोटरों की संख्या 900 मिलियन है. वहीं, जब सर्वे किए जाते हैं तो सैंपल साइज़ यानी जिन लोगों से जानकारी इकट्ठा की जाती है वो बहुत छोटी होती है. ऑपिनियन पोल के मामले में सैंपल साइज़ अक्सर 3000 से 5000 लोगों का होता है. वहीं, एग्ज़िट पोल के मामले में कई बार ये 7-8 लाख़ वोटरों का भी होता है. इसमें सभी 543 लोकसभा क्षेत्रों को भी शामिल नहीं किया जाता.

इसे चावल पकाने का उदाहरण देकर समझाया जाता है. यानी पहले जब चवाल पकाया जाता था तो चार दानों को उंगलियों से मसल कर पता लगाते थे कि पूरा चावल पक गया है या नहीं. ऐसे में कुछ मौंकों पर ऐसा होता है कि एग्ज़िट पोल का ‘चवाल कच्चा’ भी रह जाता है.

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