पहली बात सभी इस ओर इशारा करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दूसरा कार्यकाल मिलेगा, और इस बात का भी चांस है कि भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल कर सकती है.
दूसरा, दोनों प्रमुख पार्टियों के बीच सीटों का फासला अब भी बहुत बड़ा रहेगा और कांग्रेस के तीन अंक को छू पाने के आसार बहुत कम हैं.
तीसरा ये कि विपक्षी गठबंधन ने कई राज्यों में काम नहीं किया है. इसके इतर, ऐसा नज़र आ रहा है कि भाजपा विरोधी गठबंधनों में समन्वय की कमी नज़र आ रही है और उनके साथ आने से जो उनका वोट शेयर बनता है उससे कम वोट उनके हिस्से में आता दिख रहा है.
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मौन मतदाता
जरूरी नहीं कि यह मतदाताओं की रणनीतिक चुप्पी हो
कुछ मतदाता सार्वजनिक रूप से अपनी वोट वरीयता को स्पष्ट करने में असफल क्यों होते हैं? जबकि बैकलैश का डर एक महत्वपूर्ण कारक है, ज्यादातर मामलों के लिए हम सोचते हैं कि पर्यवेक्षकों ने रणनीतिक संयम के तहत एक क्लीयर वोट विकल्प को स्पष्ट करने में असमर्थता को ठीक नहीं माना है.
यह कारण स्पष्ट है: भारतीय मतदाताओं का एक बड़ा तबका मतदान के कुछ दिन पहले या मतदान के दिन ही यह निर्णय लेता है कि किसको वोट करना हैं अगर मतदान के दिन से एक हफ्ते पहले कोई उनसे मिलने जाता है और उनके मतदान के फैसले के बारे में पूछता है तो यह मतदाता स्वाभाविक रूप से अनजान होता है. इसी तरह, कम-जानकारी वाले मतदाता व्यक्तिगत बातचीत में भी सक्रिय रूप से अपने वोट विकल्प पर चर्चा नहीं करते हैं. ऐसा न करने की इच्छा के लिए आत्म-चेतना को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है कि वे किसके लिए मतदान करते हैं.
कमेंटेटर्स देर से निर्णय लेने की संभावना को नजरअंदाज करते हुए चुपचाप मतदान की सीमा को गलत तरीके से आंक रहे हैं और जैसा कि रिसर्च से पता चला है, देर से आने वाले लोगों को बैंडवैगन प्रभाव का पालन करने की अधिक संभावना है, अर्थात वो जीतने वाली पार्टी के लिए वोट करें.
एक मौन मतदाता भी भाजपा को वोट दे सकता है
क्या मौन मतदाता हमेशा भाजपा के खिलाफ वोट करते हैं? पर्यवेक्षकों के बीच आम धारणा यह है कि मौन वोटर सबसे अधिक बार भाजपा जैसी पार्टियों के खिलाफ होते हैं, जो कि भारत के हाशिए पर पड़े तबके में पसंदीदा विकल्प नहीं हैं.
दुनिया के अन्य हिस्सों के शोध बताते हैं कि पार्टियों के लिए मौन समर्थन प्रमुख जातीय समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं. उदाहरण के लिए, ब्रैडली प्रभाव अमेरिकी चुनाव साहित्य में एक बहुत ही सामान्य शब्द है जो एक ऐसे परिदृश्य को बताता है जहां जनमत सर्वेक्षण श्वेत और अश्वेत उम्मीदवारों के बीच दौड़ की भविष्यवाणी करने में विफल रहते हैं.
रिसर्च से पता चलता है कि एक सामाजिक पूर्वाग्रह के कारण, सीधा जवाब देने वाले इस तथ्य को छिपाना चाहते हैं कि उन्होंने एक भ्रष्ट उम्मीदवार को वोट नहीं दिया. इसी प्रकार ‘शाई टोरिएस‘ की घटना भी यूनाइटेड किंगडम में प्रचलित है. इसके अनुसार, बहुत सारे कंज़र्वेटिव पार्टी के मतदाता सार्वजनिक रूप से अपनी वोटिंग वरीयताओं को स्वीकार नहीं करना चाहते हैं क्योंकि यह उन मित्रों और पड़ोसियों के बीच सामाजिक रूप से स्वीकार्य नहीं हो सकता है जो उदार हैं.
2014 के परिदृश्य के बाद मौन भाजपा वोटर की संभावना को भी खारिज नहीं किया जा सकता है. 2014 से भाजपा दलित वोटों के एक बड़े हिस्से को आकर्षित करने में सफल रही है)
इसके अलावा लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा किए गए राष्ट्रीय चुनाव अध्ययन (एनईएस) सर्वेक्षणों के अनुसार, लगभग 8-10 प्रतिशत-मुस्लिम मतदाताओं के एक वर्ग ने भाजपा को वोट दिया था.
इन समुदायों के बीच भाजपा के अविश्वास और पिछले पांच वर्षों में जाति और सांप्रदायिक हिंसा के घटनाओं के कारण, इन सामाजिक समूहों के कुछ मतदाता सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करने से बच सकते हैं कि वे भाजपा को वोट देते हैं. उनके अपने समुदाय के भीतर से सामाजिक दबाव के कारण कुछ लोगों को सार्वजनिक रूप से भाजपा का समर्थन करने से रोकने के लिए मजबूर करते हैं.
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मौन मतदाता और एग्जिट पोल
क्या एक्जिट पोल हमेशा मौन वोटरों का हिसाब करने में नाकाम रहते हैं? बहुत बार ये पोल गलत हो जाते हैं, लेकिन इसका कारण निश्चित रूप से मौन मतदाता नहीं हैं. चुनाव सर्वेक्षण, जो पद्धतिगत प्रोटोकॉल का पालन करते हैं, उन कारकों के लिए जिम्मेदार होते हैं जो उनके अनुमानों पर पक्षपात की वजह हो सकते हैं. वे प्रतिक्रिया की गोपनीयता बनाए रखने, उत्तरदाताओं को आश्वस्त करने के बारे में अपने सर्वेक्षण उपकरण में अंतर्निहित तंत्र का उपयोग करते हैं. इसके अलावा, कई सर्वेक्षण जान बूझकर वोट की पसंद पर प्रतिक्रिया देने से बचते हैं और डमी बैलट पेपर और बॉक्स या टैबलेट पर ईवीएम इंटरफेस की प्रतिचित्र लगाते हैं.
सख्ती से किए गए सर्वेक्षण भी एक साक्षात्कार के तहत सटीक परिदृश्य को ध्यान में रखते हैं. उदाहरण के लिए, लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण रिकॉर्ड करता है कि साक्षात्कार के दौरान क्या उत्तरदाता अकेले था या नहीं और वह कुछ सवालों के जवाब देने में हिचकिचा रहा था या नहीं. अन्य पूर्वाग्रहों के बीच भय, सामाजिक वांछनीयता पूर्वाग्रह, सहकर्मी के दबाव आदि वजहें ये सब नियंत्रित करती हैं.
पर्यवेक्षकों ने यह दावा किया हैं कि मौन वोट एक काफी अधिक जटिल समस्या है और चुनावी विश्लेषक भी इससे अनजान नहीं हैं. यह विभिन्न तरीकों से संचालित होता है और अत्यधिक संदर्भ पर निर्भर है. एक लोकसभा चुनाव में बहुत बार विभिन्न प्रकार के मौन वोट एक दूसरे के प्रभाव को रद्द कर देते हैं और शुद्ध परिणाम एक्जिट पोल के पूर्वानुमान के बहुत करीब होते हैं.
(राहुल वर्मा सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर), दिल्ली के फेलो हैं. प्रणव गुप्ता कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले में पीएचडी के छात्र )
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