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Friday, 22 November, 2024
होम2019 लोकसभा चुनाव'चुनाव आयोग यह चुनाव निष्पक्ष कराने में पूरी तरह से विफल रहा है'

‘चुनाव आयोग यह चुनाव निष्पक्ष कराने में पूरी तरह से विफल रहा है’

चुनाव आयोग अपने कामकाज में एक हद तक स्वायत्त रहा है, जो कि इस देश की ज़्यादातर संस्थाओं के मामले में शायद ही देखने को मिलता है.

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इन पंक्तियों को लिखने के पहले एक लंबा अरसा मैंने इंतज़ार में गुजारा है. बीते कुछ हफ्तों में अलग-अलग उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार के लिए मैं देश के कई हिस्सों में गया और इस दौरान दोस्त और सहकर्मी मुझसे बार-बार इसरार करते रहे कि चुनाव आयोग के पक्षपाती रवैये को लेकर आप कुछ लिखिए. सोशल मीडिया पर लिखे चंद पोस्ट को छोड़ दें तो मैंने मसले पर अभी तक कुछ लिखने से अपने को रोक रखा था. मेरा मानना है कि चुनाव आयोग का मूल्यांकन करने में हमें सावधानी से काम लेना चाहिए.

इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि पिछले वक्तों में मेरा किसी न किसी रूप में चुनाव आयोग से मेरा जुड़ाव रहा. चुनाव-विश्लेषक के अपने पिछले चोले में मैंने भारत की लोकतांत्रिक उपलब्धियों के बारे में लिखा और बोला  है. मैंने आयोग को मुक्त और निष्पक्ष चुनाव कराने की व्यवस्था कायम करने का श्रेय दिया है और सराहना के स्वर में कहा है कि आयोग अपने कामकाज में एक हद तक स्वायत्त रहा है, जो कि इस देश की ज़्यादातर संस्थाओं के मामले में शायद ही देखने को मिलता है.


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मुझे याद है, ब्रिटेन के नव-गठित चुनाव आयोग (जी हां, ब्रिटेन में साल 2001 तक चुनाव आयोग नहीं बना था) से मैंने कहा था कि आप भारत के अनुभवों से सीख सकते हैं ! एक अवसर चुनाव आयोग के रजत-जयंति का भी था. उस वक्त आयोग ने मुझे आमंत्रित किया था कि आप दुनिया के विभिन्न देशों के चुनावी निकायों के सामने भारत के चुनावी अनुभवों को पेश कीजिए ! सो, एक संस्था के तौर पर चुनाव आयोग के साथ मेरे जुड़ाव में कहीं ना कहीं राष्ट्रीय गौरव का बोध भी रहा ही होगा.

इसके अलावे भी कई बातें रहीं. मेरा ये भी मानना रहा कि चुनाव आयोग सरीखी न्यायिक संस्था को शंका का लाभ दिया जाना चाहिए. चुनाव आयोग को राजनीति के जोखिम भरे बीहड़ से गुजरना होता है और इस बीहड़ में कोई फैसला लेना बड़ा जटिल काम है. दूसरे, अगर आयोग की अनुचित आलोचना हो तो वो इस हालत में नहीं होता कि सार्वजनिक जनपद में अपना बचाव कर सके. अपने सियासी अवतार में भी मैंने चुनाव आयोग पर टीका-टिप्पणी करने में एहतियात बरता है. अपने ज्यादातर मित्रों और सहकर्मियों के विपरीत मैंने इस लोभ का संवरण किया कि चुनावी नतीजे मन-मुताबिक नहीं आये तो ईवीएम पर दोष लगा दो. मौजूदा चुनावों में भी मैं चुनाव आयोग के पक्ष में बोला- आयोग पर बेबुनियाद आरोप लगे कि चुनावों के लिए जो तारीख तय की गई है उसमें मुस्लिम मतदाताओं के प्रति उदासीनता बरती गई है.

चुनाव आयोग को लेकर मेरे मन में जो गर्व का भाव रहा है और उसके प्रति मेरी जो निष्ठा-भावना है, उसी का तकाजा है कि अब मुझे आयोग की कुछ बातों पर अपना मुंह खोलना चाहिए. चुनाव आयोग ने इस बार के चुनाव में अभी तक जिस तरह का कामकाज दिखाया है, उसे देखते हुए मेरे पास विकल्प यही बचा है कि मैं पूर्व नौकरशाहों द्वारा राष्ट्रपति को लिखी गई उस चिट्ठी से सहमति जताऊं जिसमें कहा गया है कि आयोग अभी ‘साख के संकट’ से जूझ रहा है और चुनाव आयोग ने जिस घुटनाटेक अंदाज़ में बरताव किया है उससे ‘इस संवैधानिक संस्था की विश्वसनीयता उस हद तक घट गई है जितनी की अब से पहले कभी नहीं ’.

संविधान की धारा 324 में चुनाव आयोग को मुक्त और निष्पक्ष चुनाव कराने के व्यापक अधिकार दिये गये हैं. लेकिन आयोग की सबसे बड़ी जमापूंजी है उसकी यह नैतिक ताकत कि वह राजनीति के कीचड़-उछाल मैदान में बिना किसी पक्षपात के एक रेफरी की हैसियत से अपना दायित्व निभायेगा. चुनाव आयोग को यह नैतिक ताकत पिछले तीन दशकों में हासिल हुई है. मुझे डर है कि कहीं मौजूदा चुनाव आयोग अपनी इस बेशकीमती जमापूंजी का बंटाधार ना कर दे.

आइए, इस बाबत कुछ उदाहरणों पर गौर करें. पहला मुद्दा तो चुनाव की समय-सारणी का ही है. चुनाव आयोग ने अपने प्रेस-सम्मेलन के समय में फेर-बदल किया और इस फेरबदल के बाद पत्रकारों में यह चुटकुला चल पड़ा है कि चुनाव आयोग को चुनावों की तारीख की घोषणा करनी होती है तो वह इसके लिए ये देखता है कि प्रधानमंत्री ने अपनी घोषणाओं के लिए क्या वक्त तय कर रखा है.

चुनाव की समय-सारणी को लेकर साजिश की बू सूंघती ढेर सारी बातें चल पड़ी हैं- मेरा उन पर रत्तीभर यकीन नहीं तो भी मेरे मन में यह सवाल तो आता ही है कि आखिर ओड़िशा में चार चरणों में चुनाव करवाने के पीछे क्या तकनीकी कारण हो सकते हैं भला? हो सकता है, चुनाव आयोग ने जो किया है वैसा करने के उसके पास कारण हों लेकिन क्या आयोग ने लोगों के मन में मौजूद इस शंका के समाधान के लिए पर्याप्त कारण बताये हैं कि चुनावों की तारीख सत्ता पक्ष की सुविधा के हिसाब से तय की गई है ?

दूसरा मुद्दा नरेन्द्र मोदी केंद्रित फिल्म, वेब सीरियल तथा नमो चैनल से संबंधित है. ये बात ठीक है कि चुनाव आयोग ने आखिरकार इसपर रोक लगायी लेकिन मुश्किल ये है कि नमो चैनल ने अपने ऊपर लगी रोक का बड़ी बेशर्मी से उल्लंघन किया और आयोग टाल-मटोल का रवैया अपनाये रहा. इससे लोगों में बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण संदेश गया कि आयोग भले ही मसले पर लीपापोती के लिए तकनीकी कारण ना खोज रहा हो लेकिन उसकी मंशा मसले को टाल जाने की है.

तीसरी बात है विपक्षी दलों के शासन वाले आंध्रप्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में पुलिस के आला अधिकारियों के तबादले की. तबादले जिस तरह किये गये उसे चाहे आप दोहरे मानदंड अपनाने का उदाहरण ना मानें तो भी उनमें एक तरह की विसंगति तो झलकती ही है. आखिर, तमिलनाडु में तो डीजीपी का तबादला नहीं हुआ जबकि विपक्षी दलों ने इसकी बारंबार मांग उठायी थी. चलते चुनाव के बीच विपक्ष के नेताओं पर आयकर विभाग के छापे पड़े और आयोग ने कड़क आवाज़ में ऐतराज़ जताया लेकिन उसने कोई कार्रवाई नहीं की.


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ऐसा ही दोरंगापन गुजरात में उपचुनावों की घोषणा (सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक आयद की थी) को लेकर आयोग की जल्दबाजी में दिखता है जबकि आयोग ने तमिलनाडु में उप-चुनाव की घोषणा करने से अपने कदम पीछे खींच लिये क्योंकि वहां सत्तापक्ष चुनाव का सामना करने से कतरा रहा है. अब इस मामले में भी आयोग के पास लोगों को बताने के लिए कोई ना कोई वैध कारण ज़रुर होगा लेकिन कुल मिलाकर देखें तो उपचुनाव की घोषणा के बाबत आयोग के रुख से लोगों में यही संदेश गया कि वह अपने कदम उठाने या रोकने का फैसला सत्तापक्ष की सुविधा को देखकर करता है.

चौथा उदाहरण 50 फीसद मतदान केंद्रों पर वीवीपीएटी ऑडिट कराने के विपक्ष की मांग का है. विपक्ष अपनी यह मांग छोड़ चुका था कि मतदान बैलेट पेपर(मतपत्र) के ज़रिये कराया जायें. ऐसे में चुनाव आयोग का कर्तव्य बनता है कि वह वीवीपीएटी को लेकर प्रमुख राजनीतिक दलों की जो जायज शंकाएं हैं, उनका समाधान करें. लेकिन आयोग ने अड़ियल इनकार का रवैया अपनाया और सुप्रीम कोर्ट के सामने एक विचित्र किस्म का तर्क दिया कि 50 प्रतिशत वीवीपीएटी की पर्चियों की गिनती में 5-5 दिन का समय लगेगा(जबकि सभी मतपत्रों की गिनती में दो दिन का समय लगता था! ). जाहिर है, चुनाव आयोग ने यह तर्क किसी बात को छुपाने के गरज से दिया है.

पांचवा मुद्दा राजनेताओं के आपत्तिजनक टिप्पणियों से संबंधित है. आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले ज्यादातर राजनेता सत्ताधारी दल के हैं. ऐसा लगता है, वक्त का पहिया एकबारगी पूरा घूम गया है. कभी वो वक्त था जब सुप्रीम कोर्ट आगे आकर चुनाव आयोग को बताया करता था कि आपके अधिकारों की हद कहां खत्म होती है और एक ये वक्त है जब सुप्रीम कोर्ट को आयोग को याद दिलाना पड़ रहा है कि आपके कुछ अधिकार भी हैं- आप एकदम से नखदंत-विहीन नहीं हैं जो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें. योगी आदित्यनाथ ने ‘मोदी सेना’ सरीखे शब्द का प्रयोग किया तो चुनाव आयोग ने उन्हें मीठी झिड़की दी और आयोग का यह रुख देश भर में मजाक का विषय बना.


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राजस्थान के राज्यपाल की अमर्यादित टिप्पणी पर आयोग ने राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखी थी लेकिन चिट्ठी ऐसी थी कि उस पर किसी का ध्यान ही ना गया . बेशक, आयोग ने योगी आदित्यनाथ, मायावती, आजम खान आदि पर कार्रवाई की है लेकिन कार्रवाई तब ही हुई है जब सुप्रीम कोर्ट ने इस बाबत आयोग को याद दिलाया है. ऐसे में आयोग की साख बढ़ी नहीं बल्कि उसका नैतिक आभामंडल और ज्यादा मलिन हुआ है.

संवैधानिक दायित्व के निर्वाह में आयोग के पिछड़ने का मसला सबसे ज्यादा दिखता है अमित शाह और स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के मामले में. इन दोनों के मामले में आयोग एकदम ही नि:सहाय नजर आता है. एंटी सेटेलाइट वेपन की कामयाबी को आधार बनाकर प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन का अप्रत्याशित निर्णय किया लेकिन आयोग चुप बैठा रहा. आयोग ने लचर सा तकनीकी तर्क ये दिया कि प्रधानमंत्री के भाषण का प्रसारण दूरदर्शन से नहीं हुआ था और असल सवाल गोल कर गया कि प्रधानमंत्री चुनाव की घड़ी में ऐसा संबोधन कर सकते हैं या नहीं.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुलेआम पुलवामा के शहीदों के नाम पर वोट मांग रहे हैं और यह बात चुनाव आयोग की खुद की जारी हुई उस एडवायजरी से मेल नहीं खाती जिसमें कहा गया है कि चुनावों में सुरक्षाबलों का नाम नहीं घसीटा जाना चाहिए. और, जरा याद कीजिए वर्धा में दिया गया भाषण जहां उन्होंने अपने विपक्षियों को ‘हिन्दू-विरोधी’ कहा था. यह सीधे-सीधे चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन का मामला भर नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश तथा देश में लागू फौजदारी के कानूनों के भी खिलाफ है.


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अमित शाह ने उन धार्मिक समुदायों के नाम गिनाये जिनके घुसपैठियों को विदेशी नहीं माना जायेगा. लेकिन चुनाव आयोग (और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी) के मुंह से एक शब्द तक नहीं निकला. आपके नैतिक बल की परीक्षा तब होती है जब आप सबसे ताकतवर के खिलाफ उठ खड़े होते हैं. अफसोस की बात है कि चुनाव आयोग इस कसौटी पर खड़ा नहीं उतरा. चुनाव आयोग या तो ताकतवर का तरफदार नजर आया या फिर एकदम ही निरुपाय अथवा दोनों ही !

सो, एक पुराने दोस्त तथा चुनाव आयोग सरीखी संस्था के प्रशंसक होने के नाते इसे चलाने वाले तीन शीर्षस्थ कर्णधारों से मेरी विनती है कि आप जिस महान विरासत के वारिस है उसे तहस-नहस मत कीजिए. अगर आप इस विरासत और संविधान को बचा नहीं सकते तो फिर मेहरबानी करके इस्तीफा दे दीजिए.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)

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