scorecardresearch
Thursday, 18 April, 2024
होम2019 लोकसभा चुनावअब देश को मंजूर नहीं है महलों से सियासत करने वाले-17वीं लोकसभा का फैसला

अब देश को मंजूर नहीं है महलों से सियासत करने वाले-17वीं लोकसभा का फैसला

ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह की हार बताती है कि अब देश की जनता उन्हें ही अपना नुमाइंदा बनाएगी जो उनके सुख-दुख में शामिल होंगे.

Text Size:

कांग्रेस के नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का मध्य प्रदेश की गुना और दिग्विजय सिंह का भोपाल से लोकसभा चुनावों में पराजित होना संकेत है कि अब देश महलों से सियासत करने वालों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. देश इन राजे-रजवाड़ों को अपना खुदा नहीं मानता. सिंधिया को गुना में भारतीय जनता पार्टी के जमीनी नेता कृष्ण पाल यादव ने धूल चटा दी. सिंधिया पांचवीं बार लोकसभा का चुनाव लड़ रहे थे. वे लगातार 2002 से लोकसभा सदस्य थे.

उधर, भोपाल में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने दिग्विजय सिंह को मजे से मात दे दी. हालांकि जब भाजपा ने साध्वी को भोपाल से अपना उम्मीदवार घोषित किया था तब कुछ राजनीतिक समीक्षक कहने लगे थे कि भोपाल में मुकाबला एकतरफा होगा. इस तरह के कयास लगाने वाले भूल रहे थे कि मौजूदा भारत का नौजवान महलों में रहने वालों और अपने से 20 साल बड़े लोगों से चरण स्पर्श करवाने वालों को पसंद नहीं करता. उसे तो सामवेशी भारत की चाहत है.


यह भी पढ़ें: जब नई दिल्ली सीट से एक मलयाली अटल जी को हराने वाला था


बात यहां पर सिंधिया और दिग्विजय सिंह पर ही खत्म नहीं हो रही. जम्मू-कश्मीर की ऊधमपुर सीट से कांग्रेस के विक्रमजीत सिंह हारे. वे कश्मीर के पूर्व सदरे रियासत डा. कर्ण सिंह के पुत्र हैं. इस सीट पर डा. जितेन्द्र सिंह को विजय हासिल हुई.

गौर कीजिए कि तीनों जीते और पराजित हुए नेताओं में कुछ बातें समान है. उदाहरण के रूप में सभी विजयी भाजपा से है. हारे हुए नेता कांग्रेस से संबंध रखते हैं. इसी कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी ने

राजे-रजवाड़ों को मिलने वाली आर्थिक मदद एक झटके में खत्म कर दी थी. तब संविधान में संशोधन करके राजे-रजवाड़ों को सरकार से मिलने वाली आर्थिक मदद को बंद करवा दिया गया था, जिन्होंने देश की आजादी के वक्त भारत के साथ अपनी रियासत का विलय करना मंजूर किया था.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

बेशक, स्वतंत्र भारत का वह बेहद अहम फैसला था जब सामंतवादी ताकतों को चोट पहुंचाई गई थी. पर कांग्रेस कहीं ना कहीं उन राजवाड़ों को अपने साथ भी रखना चाहती थी. इसीलिए तो कांग्रेस में सर्वाधिक रजवाड़ों को खाद-पानी मिलता रहा.


यह भी पढ़ें: वंशवाद को देश ने सिरे से नकारा, भारत में इस बार नामदार की जगह कामदारों की जीत


अंग्रेजों के देश छोड़ने के बाद करीब साढ़े पांच सौ राजे-रजवाड़ों को आर्थिक मदद मिलने लगी थी. यही नहीं, उनकी पहले की हैसियत के अनुसार तोपों की सलामी की भी व्यवस्था जारी रही. बता दें कि सरदार पटेल के प्रयासों से त्रावणकोर, भोपाल और जोधपुर ने 15 अगस्त, 1947 से पहले ही भारत के साथ विलय के प्रस्ताव को मान लिया था. शेष ने भी भारत के साथ विलय करने में देरी नहीं की.

भारतीय संघ से मिलने की एवज में इन रजवाड़ों को सालाना 5 हजार रुपए से लेकर 10 लाख रुपए मिलने लगे. हैदराबाद, मैसूर, त्रावणकोर, बड़ौदा, जयपुर और पटियाला के पूर्व राज परिवारों को सालाना 10 लाख रुपए मिलते थे. जाहिर है कि यह राशि 1947 के हिसाब से बहुत भारी-भरकम थी.

ये ही आर्थिक मदद 1971 में ही खत्म कर दी गई थी. इसके लिए संविधान में 26वां संशोधन भी हुआ. तब मोरारजी देसाई ने रजवाड़ों को मिलने वाली मदद को बंद करने का विरोध किया. उनका तर्क था कि इन्हें भारत से विलय के बदले में आर्थिक मदद देने का फैसला हुआ था. अगर हम उसे खत्म करेंगे तो हम अपने वादे को तोड़ेंगे.

जैसा कि स्वाभाविक था, तब सरकार का उपर्युक्त फैसला राजाओं को बहुत रास नहीं आया. इस पर मुखर असंतोष जाहिर करने वालों में से एक थे- क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी. वे तो नाराज हो गए कि उन्हें दी जानी वाली सुविधा वापस क्यों ले ली गई.

वो 1971 का लोकसभा चुनाव गुड़गांव से इसी मसले पर हरियाणा पार्टी के टिकट पर लड़े. उन्होंने अपने प्रचार अभियान के दौरान इस फैसले का विरोध किया और इसके खिलाफ जनता को एकजुट करने की कोशिश की. उन्हें उम्मीद थी कि उनकी ‘प्रजा’ उनका साथ देगी. गुड़गांव लोकसभा क्षेत्र में ही उनकी रियासत पटौदी भी आती थी. लेकिन उन्हें चुनाव में करारी मात झेलनी पड़ी. मात्र पांच फीसदी मतदाताओं ने उनके हक में वोट दिए.

पर, एक बात समझ नहीं आती कि तब इंदिरा गांधी के मन में राजे-रजवाड़ों के विशाल महलों को अधिग्रहित करने का विचार क्यों नहीं आया? ये महल तो इनके पास बने रहे. जाहिर है,किसी को भी इस बात पर एतराज होगा कि जब राजशाही खत्म हो गई तो इन्हें महलों को कब्जाए रखने का अधिकार क्यों मिला रहा ?

फिर वर्तमान में वापस चलते हैं. पंजाब की पटियाला सीट से मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की परनीत कौर ने बाजा मार ली. सबको पता है कि अमरिंदर सिंह पटियाला के राज परिवार से है. पर परनीत कौर की इस लोकसभा चुनाव में विजय पर बात करते हुए याद रखते हैं कि वो 2014 के लोक सभा चुनाव में मात खा गई थीं. तो वो जरूर जनता के बीच में गईं होंगी इसलिए उन्हें कामयाबी मिली.

ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह की हार बताती है कि अब देश की जनता उन्हें ही अपना नुमाइंदा बनाएगी जो उनके सुख-दुख में शामिल होंगे. उसे इस बात से सरोकार नहीं है कि उनसे वोट मांगने वाला शख्स राजा है या फकीर.

(वरिष्ठ पत्रकार और गांधी जी दिल्ली पुस्तक के लेखक हैं , यह लेखक के निजी विचार है)

share & View comments