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Friday, 26 April, 2024
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2019 चुनाव का संदेश, राहुल गांधी को ख़ारिज किया पूरे देश ने

17वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देखा जाए तो अब कांग्रेस को गांधी परिवार के नेतृत्व से मुक्ति पा ही लेनी चाहिए. इसी में उसका भला है.

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17वीं लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद देखा जाए तो अब कांग्रेस को गांधी परिवार के नेतृत्व से मुक्ति पा ही लेनी चाहिए. इसी में उसका भला है. कांग्रेस के लिए दूसरा विकल्प यह भी है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी खुद ही चुनावों में हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पदों को मर्यादापूर्वक छोड़ दें. यदि अब भी कांग्रेस में राहुल गांधी का सिक्का ऐसे ही चलता रहा तो फिर तो यही मान लिया जाएगा कि ये अब कांग्रेस की कब्र खोद कर ही चैन लेंगे. तब इसके भविष्य को लेकर किसी तरह की भविषयवाणी करने का भी कोई मतलब नहीं रह जाएगा.

आप देखिए कि राहुल गांधी ने लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद से ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर अनर्गल आरोपों की झड़ी लगा दी थी. वे राफेल सौदे में प्रधानमंत्री मोदी पर इस तरह से आरोप लगा रहे थे जैसे कि उनके पास कोई पुख्ता प्रमाण हों. वे बार-बार मोदी जी को 15 मिनट तक बहस की चुनौती दे रहे थे. बेवजह राफेल-राफेल कर रहे थे. अगर उनके पास कुछ था तो उन्होंने उसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया. अब कांग्रेस के समझदार और जनाधार वाले नेताओं को समझना होगा कि आखिर वे नेहरू-गांधी खानदान को कब तक ढोते रहेंगे? दरअसल नेता वही होता है, जो अपनी पार्टी को विजय दिलाता है. राहुल गांधी इस मोर्चे पर फेल हुए हैं. राफेल-राफेल रटते हुए ‘रा-(राहुल) फेल’ हो गया है.

राहुल गांधी अब राजनीति से संन्यास नहीं भी लेते तो कम से कम उन्हें नैतिकता के आधार पर शर्मनाक हार की जिम्मेवारी लेते हुए पार्टी अध्यक्ष पद को तो छोड़ ही देना चाहिए. 2019 की हार कोई छोटी हार नहीं है. देश की जनता ने कांग्रेस और उनके सहयोगियों को पूरी तरह धूल चटा दी है. स्पष्ट है कि फिलहाल देश में मोदी के सामने कोई अन्य नेता बराबरी में खड़ा तक नहीं होता है. उनके सामने सब बौने हैं. उनकी समूचे देश में ही नहीं विश्वभर में स्वीकार्यता बढ़ती ही चली जा रही है.


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आज मोदी जी प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के बाद देश के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में  उभरे हैं. अभी तक तो देश में यह माना जाता था कि भारत में कांग्रेस ही लगातार दो बार पूर्ण बहुमत लेकर सत्तासीन हो सकती है. पर इस विचार को भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में गलत साबित कर दिया है.

देखा जाए तो केरल और पंजाब को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक तक नहीं कहा जा सकता. कहना न होगा कि कांग्रेस का मतलब पंजाब में राहुल गांधी नहीं हैं. वहां पर कैप्टन अमरिंदर सिंह का जलवा है. उन्हीं कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ राहुल ने कांग्रेस में नवजोत सिंह सिद्धू को खड़ा किया है. वह राहुल गांधी के खास प्रिय बताए जाते हैं. कैप्टन के न चाहने के बाद भी उनको कांग्रेस में एंट्री मिली थी. राहुल गांधी ने सिद्धू को पूरे देश में प्रचार के लिए भेजा. उन्होंने सभी जगहों पर जाकर भाजपा और मोदी के खिलाफ गटर छाप भाषा का इस्तेमाल किया. खुलकर गलियां दीं. यह सब जनता देख रही थी. सिद्धू जहां भी गए वहां पर उनकी पार्टी परास्त ही हुई.

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लोकतंत्र में वाद-विवाद- संवाद तो होते ही रहना चाहिए. संसद में भी खूब बहस होनी चाहिए. यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए पहली शर्त है. पर लोकतंत्र का यह कब से अर्थ हो गया कि आप अपने राजनीतिक विरोधी पर अनर्गल मिथ्या आरोप लगाते रहें. राहुल गांधी पूरे चुनाव अभियान में मोदी पर सुबह-शाम झूठे आरोप ही तो लगा रहे थे. वे तो राजनीति के नए व्याकरण की किताब लिख रहे थे जिसका कोई खरीदार न मिला.

कुल मिलाकर राहुल गांधी फिर से बुरी तरह फ्लॉप रहे हैं. देश की जनता ने कांग्रेस की नकारात्मक विचारधारा को नकार दिया है और भाजपा की ‘सबका साथ-सबका विकास’ की विचारधारा को जमकर वोट दे दिया है. देश की जनता देख रही थी कि किस तरह से उनकी अगुवाई में ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता सरकार से भारतीय एयरफोर्स के पाकिस्तान में किए स्ट्राइक का बेशर्मीपूर्वक सुबूत मांग रहे थे. मोदी सरकार की कूटनीति पर मीन-मेख निकालने वाले ये सारे विपक्षी शायद यह भूल गए जब डोकलाम विवाद पर बंदर भभकी देने वाला चीन तक पहली बार भारत के सामने झुककर पीछे हटा था.

याद नहीं आता कि चीन ने पिछले 70 साल में कभी भी इस तरह से रक्षात्मक रुख अपनाया हो. डोकलाम पर मात खाने के बाद वह चुप हो गया है. भारत को 1962 की बार-बार याद दिलाने वाले चीन को भी अब कायदे से समझ में आ गया था कि इस बार मोदी के नेतृत्व वाला भारत अब उसे छेड़ेगा तो नहीं पर यदि उसने (चीन ने) कभी छेड़ा तो मोदी जी उसे छोड़ेंगे भी नहीं.

याद कीजिए कि 2014 में विपक्ष कमोवेश बिखरा हुआ था पर इस मर्तबा वह पूरी तरह एकजुट था. इसके बाद भी मोदी जी के नेतृत्व को देश ने अपना वोट दे दिया. यह जनता का फैसला है. बेशक देश के स्वाधीनता आंदोलन में कांग्रेस का योगदान अविस्मरणीय रहा था. उस दौर की  कांग्रेस से महात्मा गांधी और सरदार पटेल जैसे महान नेता जुड़े हुए थे पर गांधी और पटेल की कांग्रेस अब रही ही कहां है. ये कांग्रेस तो एक परिवार से आगे बढ़कर सोच ही नहीं पाती है.

कांग्रेस को 2014 के चुनावों में मात्र 44 सीटों के साथ करारी शिकस्त मिली थी. नेता प्रतिपक्ष के पद के लिए 10% यानि 55 सीटें चाहिए थीं. वह भी नहीं मिल पाईं कांग्रेस को. पर इन पांच सालों के दौरान कांग्रेस ने हार के कारणों से सबक लेने की जरूरत तक नहीं समझी. उसने अपने जमीनी नेताओं को पीछे छोड़ते हुए पी. चिदंबरम, राज बब्बर, कपिल सिब्बल, अभिषेक सिंघवी, रणदीप सिंह हुड्डा जैसे हवा-हवाई नेताओं को महत्वपूर्ण बनाया. वे सिर्फ टीवी पर बहस ही तो कर सकते हैं. पर ये राहुल गांधी की कृपा से कांग्रेस में अहम पदों पर बने.


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अगर बात पश्चिम बंगाल की करें तो वहां पर भी भाजपा ने 2019 में तगड़ी दस्तक दे ही दी है. इस लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में कसकर हिंसा भी हुई फिर भी वहां के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में रहे हैं. भाजपा ने सत्तारुढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस की गर्दन में अंगूठा डाल ही दिया. पिछले लोकसभा चुनावों में बंगाल में मात्र 2 सीट जीतने वाली भाजपा को तृणमूल की दादागीरी और प्रायोजित हिंसा के बाबजूद इस बार अप्रत्याशित सफलता मिली. राज्य की जनता ममता बनर्जी के कामकाज से भीषण रूप से असंतुष्ट थी. वहां पर विकास का पहिया पूरी तरह थम गया था. ममता दीदी सिर्फ मुसलमानों के तुष्टीकरण में लगी रहीं. परिणाम अब सबके सामने ही है. ममता दीदी को लग रहा था कि वे मोदी जी और भाजपा को बुरा-भला कहकर ही प्रधानमंत्री बन जाएंगी.

बहरहाल, इस लोकसभा चुनाव का मोटा-मोटा एक खास संदेश यह है कि देश ने मोदी की लोकप्रियता और नेतृत्व को पूरी तरह स्वीकार किया है और अब राहुल गांधी को पूरी तरह खारिज कर दिया है.

(लेखक बीजेपी से राज्यसभा सदस्य हैं, और ये लेख उनका निजी विचार है)  

 

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