scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअब समय आ गया है कि खुद को सुप्रीम साबित करे सुप्रीम कोर्ट

अब समय आ गया है कि खुद को सुप्रीम साबित करे सुप्रीम कोर्ट

न्यायाधीशों और कानूनी दिग्गजों के लिए यह, खुद के लिए लड़ने के बजाय संस्थान को बचाने के लिए लड़ने और एक साथ एक पंक्ति में खड़े होने का समय है.

Text Size:

न्यायाधीशों की होने वाली तकरार से इस लोकप्रिय संस्थान की विश्वसनीयता को मिट्टी में मिला दिया गया है, और इसकी पीठ में कुल्हाड़ी गाड़ने के लिये कार्यकारी तैयार है. क्या एक थकी हुई न्यायपालिका पलटवार कर सकती है?
जिन असाधारण घटनाओं और कार्यों को भारत की इस प्रतिष्ठित न्यायपालिका ने देखा है क्या वह किसी खतरनाक मौके के लिए एक रूपक है? भारत के शीर्ष न्यायाधीशों का संकट कितना गंभीर है?

न्यायाधीश आपस में ही तर्क-वितर्क कर रहे हैं,इससे लोकप्रिय संस्थान की विश्वसनीयता धूमिल हो गई है,और इस प्रतिष्ठित संस्थान की पीठ में कुल्हाड़ी गाड़ने के लिये कार्यकारी तैयार है.

अगर यह सब आपको नाट्कीय लग रहा है तो चलो मैं विस्तार से समझाता हूँ.

जब सरकार द्वारा किसी के अधिकारों को नजरअंदाज कर दिया जाता है या उससे इंकार कर दिया जाता है तो बेचारा गरीब नागरिक न्यायालयों के सिवा कहाँ जाए? जब वह गरीब व्यक्ति देखता है कि देश की सर्वोच्च न्यायपालिका भी उसी सरकार से सुरक्षा माँग रही है तो उसके विश्वास का क्या होता है? इसी सप्ताह भारत के मुख्य न्यायाधीश की सुरक्षा के लिए सरकार को दखल देना पड़ा. और अगर आप सोच रहे हैं कि इसकी यह भूमिका प्रभावित करने के लिए पर्याप्त नहीं है, तो इसी सप्ताह में कानून मंत्री ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने कॉलेजियम (न्यायाधीशों को नियुक्तिकरने की प्रक्रिया) में से दो लम्बे समय से विलंबित सुप्रीम कोर्ट की नियुक्तियों में से एक को समाशोधित कर पुर्नविचार के लिए फिर से लौटाने को कहा है. सरकार की आपत्ति है कि वरिष्ठता मे केरल से काफी न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई है, इसको कम नहीं किया गया है. सरकार केवल न्यायपालिका को याद दिला रही है कि स्पष्ट बहुमत के साथ, केवल सरकार हीअंतिम मालिक है.

प्रभावी रूप से, राजनेताओं को पता है कि न्यायाधीशों ने अपनी बहुत सारी राजनीतिक शक्ति खो दी है और अब उनका यह यथोचित स्थान खाली पड़ा हुआ है. वे इन पदों पर अपना दखल देने के लिए आगे बढ़ रहे हैं. यह केवल सत्ताधारी पार्टी तक ही सीमित नहीं है. यह न्यायापालिका की बहुत ही कमजोर स्थिति है जिसने लोकसभा में 10 प्रतिशत से भी कम सांसदों वाली पार्टी को प्रोत्साहित किया था ताकि वह इसे एक अपर्याप्त गति, विचारहीनता और असावधानी के साथ हिम्मत दे सके, जैसा कि वह थी. लेकिन इससे कोई राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति तो नहीं हुई बल्कि इसने सुप्रीम कोर्ट और विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश को कमजोर कर दिया. इस समय उनकी आखिरी चाहत सरकार द्वारा सुरक्षा थी.

भाजपा और कांग्रेस एक दूसरे से घृणा करते हैं और वे न्यायपालिका को उसकी जगह दिखाने की इच्छा रखने में एकजुट हैं. उस कानून का याद करें जिसे इस न्यायालपालिका में लगभग सर्वसम्मति से पारित किया गया था न्यायाधीशों की नियुक्ति करने और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) के गठन के माध्यम से उच्च न्यायपालिका की शक्तियों को कम करना था. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर समान रूप से, असंवैधानिक तत्परता दिखाई और राजनीतिक वर्ग इसके प्रति विवाद कर रहा था. अब जबकि दोनों आपस में लड़ रहे हैं और एक आम विरोधी न्यायपालिका को वापस धक्का दे रहे हैं. याद करिए,एनजेएसी को अलग करने वाले 4-1 के फैसले में पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ,राष्ट्रपति ने तर्क दिया कि न्यायपालिका को “ऋणात्मकता के वेब” में पकड़े जाने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता है.एनजेएसी के बिना अब जो हो रहा है वह ठीक है.

मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस लोया और मेडिकल कॉलेज के मामले में कार्यकर्ता वकीलों द्वारा हमला,कांग्रेस द्वारा छेड़छाड़ की धमकी और भाजपा सरकार द्वारा बचाव के मुद्दे को लेकर कॉलेजियम के शेष चार सदस्यों के द्वारा पूछताछ के दायरे में है. इस पर मुख्य न्यायाधीश बचाव की मुद्रा में है.

क्या वह इस प्रतिष्ठित संस्थान में फिर से किसी विवाद की उम्मीद कर सकते हैं? विशेषकर तब जब वह अपने असंतुष्ट न्यायाधीशों से जुड़ने के इच्छुक नहीं है?

राजनेता न्यायपालिका की नई कमजोरियों की तलाश में हैं. कॉलेजियम द्वारा मंजूरी प्राप्त नियुक्तियों में विलंब करना नियमित हो गया था. अब एक मामले में इसमें कुछ बदलाव आया है कॉलेजियम ने एक न्यायाधीश की नियुक्ति को मंजूरी दी और कॉलेजियम ने इसपर तत्परता दिखाई. अब न्यायाधीश के.एम. जोसेफ की नियुक्ति पर पुर्नविचार करने के लिए उनको वापस भेज दिया गया है. अगर कॉलेजियम अपने काम में फिर से कोई लापरवाही दिखाती है या इसके भीतरी मामलों में कुछ विवाद होता तो सरकार इसके प्रति अपना अधिक साहसी कदम उठाएगी. इन परेशानियों का कारण क्या हो सकता है. अगर सुप्रीम कोर्ट अपनी कमजोरियों को जारी रखती है तो आज किसी को असंभव लगने वाले मामलों पर सोचने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है – सरकार वरिष्ठता के सिद्धान्त की अवहेलना कर रही है, उत्तराधिकार के नियम को तोड़ रही है और सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश रंजन गोगोई को अगला मुख्य न्यायाधीश घोषित नहीं कर रही है.

सरकार को पूर्णतयः विश्वास है कि पिछले दिनों में न्यायपालिका अपनी सार्वजनिक सहानुभूति खो चुकी है. पीआईएल के माध्यम से सुर्ख़ियों में रहने के लिए इसका झुकाव अधिक रहा है, जबकि अन्य मंद हो रहे मामले बेखबरी के दायरे में नहीं हैं. एनजेएसी की त्वरित अस्वीकृति ने इस धारणा की पुष्टि की कि न्यायाधीश केवल अपने स्वार्थ के लिए दृढ़तापूर्वक और जल्दी कार्य करते हैं. यदि भारत के मुख्य न्यायाधीश, पीआईएल के साथ लोया फैसले के आलोचकों के खिलाफ कार्रवाई की माँग करते हैं, तो यह धारणा अब पुख्ता हो जाएगी. एक बार फिर, न्यायपालिका, बड़े और ज़िम्मेदार कंधों के साथ दिखने की बजाय, ऐसी दिखेगी जैसे कि वह खुद के लिए लड़ रही हो. इसने और न्यायाधीशों के बीच निरंतर सार्वजनिक विवादों ने, भारत के लोगों के साथ न्यायपालिका के सामाजिक अनुबंध को भारी नुकसान पहुंचाया है.

इसलिए यह समय अब न्यायपालिका के वापस मुड़ कर लड़ने का है. न्यायाधीशों और कानूनी दिग्गजों के लिए यह, खुद के लिए लड़ने के बजाय संस्थान को बचाने के लिए लड़ने और एक साथ एक पंक्ति में खड़े होने का समय है.

न्यायपालिका के वर्तमान संकट के लिए एक रूपक की खोज, मुझे, हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती इतिहास के एक अध्याय में वापस ले जाती है. 1906-07 में, अंग्रेज अपने घृणित उपनिवेशीकरण बिल को लेकर आए, जिसने उन्हें भू-मालिकों की सम्पत्तियो पर व्यापक शक्तियां दीं. इसके सबसे कठोर अनुच्छेद ने उन्हें किसी भी भू-मालिक किसान (या जाट, पंजाब में पुकारा जाने वाला नाम) की भूमि अधिग्रहण करने के लिए अधिकार दिया था, जिसका वारिस न हो और भू-मालिक मर गया हो.

भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह और लाला लाजपत राय ने इसके खिलाफ एक प्रसिद्द विद्रोह का नेतृत्व किया. इसका एंथम(गान) ल्यालपुर (अब फैसलाबाद) के संपादक बांके दयाल द्वारा लिखा गया एक गीत था: पगड़ी संभाल जट्टा, पगड़ी संभाल ओय / तेरा लुट ना जाये माल जट्टा (किसान भाई, आपकी संपत्ति और आपका आत्म सम्मान लुट सकता है, इसलिए अपनी पगड़ी को मजबूती से पकड़ के रखो). इतिहास में इस आंदोलन को ‘पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन’ के रूप में उद्धृत किया गया. लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को मांडले में निर्वासित कर दिया गया था, लेकिन ये पंक्तियां भगत सिंह के समय तक जारी रहीं. इसलिए भारतीयों की कई पीढ़ियों ने भगत सिंह के साथ इन पंक्तियों की पहचान की.

मैं, यह अत्यधिक देखभाल, प्रचुर विचारों और सावधानी के साथ लिखता हूँ. यह भारतीय न्यायपालिका का ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ वाला समय है. प्रतिबद्ध न्यायपालिका और 1973 के अधिग्रहण के लिए इंदिरा गांधी की खोज के बाद संस्थान अपने सबसे बड़े खतरों का सामना करते हैं. न्यायपालिका के विचार के लगभग दो दशकों के बाद यह समय आया, जब इसने एक ढलवां लोहे की भांति कॉलेजियम को परिष्कृत करके खुद को सुरक्षित कर लिया. मध्यवर्ती वर्षों में इसे इस हद तक कमजोर करने के लिए, इसकी ख़राब नियुक्तियों, शीघ्र सुधार को टालने, अधिक अधिकारित और सम्बद्ध जनता के मध्य देरी के साथ बढती व्यग्रता के मूल्यांकन में विफल रहने से लेकर लोक-प्रसिद्धि के लिए न्यायाधीशों के झुकाव के रूप में देखी जाने वाली इसकी संशयात्मकता तक, इसने बहुत कुछ गलत किया है| हम इन सभी पर न्यायाधीशों की आलोचना करते रहे हैं और उन्हें आगाह करते रहे हैं.

लेकिन यह उन्हीं बिन्दुओं की फिर से आलोचना करने का समय नहीं है. अगर न्यायपालिका इस लड़ाई मे हार जाती है, तो यह अपूरणीय क्षति का सामना करेगी और हम सभी नागरिक हारने वाले खेमे में होंगे. चाहे न्यायाधीश इसे पसंद करें या न करें, वह अब एक ऐसी विषम परिस्थिति में है जहां उसे गड्ढे में अपनी एड़ी को धंसाना है और सुप्रीम कोर्ट और उसके कॉलेजियम के लिए लड़ना है.

एक और कुटिल विचार यह हो सकता है कि उन्हें खुद या उनके संस्थान के लिए लड़ने के बीच चयन करना होगा और बल्कि मैं इस पर बहस करने से भी बचूंगा. जैसा कि उनके न्यायाधीश भाइयों के लिए, 1973-77 इतिहास का एक स्मरण काफी होगा. इंदिरा गांधी के अधिग्रहण से लाभ प्राप्त न्यायाधीश के नाम को कोई भी नहीं जानता. लेकिन निकाल फेंके गये लोगों ने भारतीय न्यायपालिका के हॉल ऑफ फेम से जुड़े विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया था. आज के कुछ न्यायाधीश कदाचित इस तरह के दोबारा परीक्षण के लिए अगुआई कर सकते हैं.

share & View comments