भाजपा के वर्चस्व के एक कम चर्चित कारणों में से एक है इसका अपने विरोधियों के भीतर निराशावाद भर देना. जब विरोधी निराशा में भर जाते हैं, तो वे भाजपा से सहमत होने लगते हैं: भारतीय राष्ट्र की प्रकृति पर, आम भारतीयों के नज़रिए पर और सबसे महत्वपूर्ण भाजपा की प्रबल और असीमित शक्ति पर. ख़ासकर पिछले कुछ वर्षों के दौरान भाजपा के उऩ विरोधियों की बौद्धिक बहसों में यह स्वप्रेरित निराशावाद हावी रहा है, जो भाजपा को अधिकाधिक मुख्यधारा में लाने तथा खुद को और अधिक हाशिए पर डालने पर तुले हुए हैं. अयोध्या में राम मंदिर भूमिपूजन निराशावाद के ताज़ा दौर की वजह बना है.
वर्चस्ववादी पार्टियां लोगों को अपनी अपराजेयता का विश्वास दिलाकर अपनी सत्ता को कायम रखती हैं. अपारजेयता का यह भाव हमेशा ही एक मिथक होता है, लेकिन मूल समर्थकों के दायरे से बाहर फैलने पर यह एक स्वपोषित मिथक बन जाता है. जब विरोधी भी अपराजेयता के इस मिथक पर यकीन करने लगें, तो वे या तो सत्तारूढ़ पार्टी का सहयोग कर रहे होते हैं या लाचार बनाने वाले निराशावाद में घिर जाते हैं.
भाजपा और उनके तथाकथित सर्वाधिक मुखर विरोधी, दोनों ने ही अपराजेयता के इस मिथक को निर्मित करने वाली तीन विशिष्ट मान्यताओं को प्रचारित किया है. पहली ये कि अधिकांश हिंदुओं का हिंदुत्व की धारणा में यकीन है. हिंदुओं के इस बहुमत में मुसलमानों के प्रति एक अंतर्निहित और प्रबल घृणा भाव भी है, जो किसी कारणवश 2004 और 2009 में नहीं दिखा था. दूसरी मान्यता ये कि एक समेकित हिंदू पहचान आमजन की राजनीतिक कल्पना में जातिगत और क्षेत्रीय पहचानों को निर्णायक रूप से पीछे छोड़ चुकी है. दशकों के जनसंघर्ष से निर्मित इन राजनीतिक पहचानों ने अचानक अपनी प्रासंगिकता खो दी है, इन्हें साकार करने वाले सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक विचारों के समान ही और तीसरी, भाजपा संरचनात्मक रूप से इतनी शक्तिशाली है कि उसे चुनावों में हराना नामुमकिन है और इसलिए निकट भविष्य में भारत पर उसी का राज रहेगा.
अपराजेयता में विश्वास से बढ़ता निराशावाद
भाजपा रणनीतिक कारणों से इन तीनों ही मान्यताओं को प्रचारित करती है क्योंकि इनकी स्वीकार्यता उसकी अपराजेयता को ताकत देती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बड़ी रैलियां, थाली और दीया वाले आयोजन, नियमित रूप से किए जाने वाले जनमत सर्वेक्षण और असंतोष पर नियंत्रण– इन सबका उद्देश्य है निरंतर इस भ्रम को बरकरार रखना कि जनता का भारी बहुमत मोदी के साथ है. यदि भाजपा के प्रयासों में कोई कमी रह जाती है तो उसके कतिपय वैचारिक विरोधी इऩ मान्यताओं से सहमति जताकर इस भ्रम को उसकी वर्चस्व वाली छवि से जोड़ने में मददगार बनते हैं.
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भाजपा और उनके विरोधी, दोनों ही राजनीतिक बहसों का आधार 2014 को मानते हैं. भारतीय राजनीति के उस संदर्भ वर्ष के बाद से राष्ट्र अपरिवर्तनीय रूप से बदल चुका है.
इस बात को याद रखना उपयोगी होगा कि पश्चिम बंगाल में तीन दशकों तक रहा वामपंथी वर्चस्व सिर्फ गहरी जड़ें जमाए संरक्षण के व्यापक स्थानीय नेटवर्क के कारण ही नहीं था, बल्कि इसमें उसकी अपराजेयत की छवि की भी भूमिका थी. और 2008 के पंचायती चुनावों में अपराजेयता की छवि टूटने के साथ ही वाम मोर्चे का पतन अवश्यंभावी हो गया था. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ सिंगुर और नंदीग्राम के आंदोलनों के बाद हुए उस चुनाव में वामपंथियों का वोट शेयर करीब 90 प्रतिशत से गिरकर 52 प्रतिशत रह गया था और उसके बाद से उनका निरंतर पतन होता गया है. अतीत के ज्ञान के आधार पर कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल में वामपंथी उसी अनुपात में मज़बूत रहे जितना की जनता ने उन्हें मज़बूत समझा.
वामपंथियों के पतन की 2006 में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था, जब विधानसभा चुनावों में उन्होंने पहले से भी व्यापक बहुमत हासिल किया था. लेकिन राजनीतिक वर्चस्व के हर दौर में उसके पतन के बीज भी समाहित होते हैं.
इसके बावजूद हमारे अनेक महानगरीय अभिजातों ने आम जनता पर भरोसा करना छोड़ दिया है. ऐसे हलकों में इस सोच को बढ़ावा दिया जाता है कि भारतीय समाज सबसे खराब किस्म के कट्टरवाद के चंगुल में पूर्णतया और बुरी तरह फंसा हुआ है. भारत की किसी भी तरह की सकारात्मक संकल्पना को भोलापन, भ्रम या ‘विशेषाधिकार’ का परिणाम तक करार दिया जाता है. मौजूदा अलोकतांत्रिक परिस्थितियों से बाहर निकलने की अवाम की नैतिक क्षमता और राजनीतिक बुद्धिमता पर विश्वास को भी उसी नज़रिए से देखा जाता है.
निराशावाद में संघर्ष से परहेज की भूमिका
लेकिन क्या एक राष्ट्र के रूप में हम बहुत धर्मांध हैं? इसे अयोध्या के उदाहरण से ही देखते हैं. बाबरी मस्जिद को गिराने का 1990 में एक नाकाम प्रयास भी हुआ था, जिसके दौरान हुई पुलिस गोलीबारी में 17 हिंदू कारसेवक मारे गए थे. मस्जिद की रक्षा के लिए पुलिस फायरिंग का आदेश देने वाले मुलायम सिंह यादव को बाद के दिनों में और अधिक राजनीतिक सफलता मिली और वे हिंदु बहुल उत्तरप्रदेश के कई बार मुख्यमंत्री बने. दूसरी ओर मस्जिद का विध्वंस होने देने वाले मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का राजनीतिक करियर आमतौर पर विपरीत दिशा में गया. और हां, ‘काउ बेल्ट’ के इस अत्यंत पिछड़े राज्य ने दलित मायावती को चार बार मुख्यमंत्री भी बनाया. ये सब उपलब्धि एक पीढ़ी के भीतर की है, वो भी जनसाधारण के वोटों के बल पर, नकि ऑनलाइन कार्यकर्ताओं के नैतिक आक्रोश के ज़रिए.
वैसे निराशावाद अक्सर विशेषाधिकार का परिणाम होता है. आप तभी सारी उम्मीदें छोड़ पाते हैं जब आपके लिए ऐसा करना संभव हो, जब चीज़ें आपको सीधे प्रभावित नहीं करती हों. कोई अचरज की बात नहीं कि यह निराशावाद ऊंची जाति के हिंदुओं में होने की संभावना अधिक होती है, नकि कामगार वर्ग के मुसलमानों में, जो शाहीन बाग़ में सबसे आगे थे?
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इसीलिए नागरिकता संशोधन कानून विरोधी आंदोलन, अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद, सरकार के लिए एक चुनौती था. इस मुख्यतया मुस्लिम आंदोलन ने कोई तात्कालिक राजनीतिक चुनौती तो नहीं पैदा की थी, लेकिन आंदोलन द्वारा निर्मित उम्मीद खतरनाक थी – एक खतरनाक विचार कि जनसाधारण संविधान के आदर्शों के सहारे बेहतर भारत में यकीन कर सकता है और आगे बढ़कर इस सरकार की ताकत को झेल सकता है.
इसके विपरीत, निराशावाद कभी निर्माण नहीं कर सकता, केवल विनाश ही कर सकता है. अपनी हताशा और खोखले आक्रोश में यह सामने दिख रही हरेक चीज को निशाना बनाता है. चूंकि भाजपा अपराजेय है, सो आप आमतौर पर आपकी तरफदारी करने वाले वैकल्पिक बलों पर ही हमले करने लगते हैं. मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस भी दुश्मन बन जाता है. चूंकि वह ‘जनेऊधारी’, ‘सौम्य हिंदुत्व’ की नवउदारवादी पार्टी है, इसलिए उसे नष्ट कर एक प्रामाणिक, धर्मनिरपेक्ष एवं समतावादी सिद्धांतों का पूर्ण पालन करने वाली काल्पनिक पार्टी के लिए जगह बनाई जाए. हालांकि, जैसा कि इज़रायल के उदाहरण से जाहिर है, एक दक्षिणपंथी राह पर अग्रसर देश में लंबे समय तक सत्ता में रही मध्यमार्गी-वाम पार्टी (लेबर) की खाली जगह किसी अधिक ‘सिद्धांतवादी’ वाम दल की बजाय मध्यमार्गी/मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी पार्टियों द्वारा भरे जाने की संभावना अधिक होती है.
जनसाधारण की ताकत
यह लेख इस वास्तविकता को नकारने का प्रयास नहीं है कि भाजपा की 2014 की जीत ना सिर्फ चुनावी सफलता, बल्कि एक वैचारिक जीत भी थी. फिर भी ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाए तो ये जीत अंतिम होना तो दूर, अभी भी असामान्य और अस्थिर है. इनकार और पराजयवाद के बीच एक व्यापक बौद्धिक धरातल होता है. एक यथार्थवादी आदर्शवाद ना केवल जीत की उम्मीद पैदा करेगा, बल्कि इसके लिए ज़रूरी गठबंधनों की स्थापना में भी सहायक साबित होगा. निराशावाद सिर्फ शिकायतों और विवादों के काम आता है. यह शुचिता और अच्छाई की लड़ाई में भाजपा विरोधियों के पहले से भी छोटे घटकों को परस्पर भिड़ाने के काम आता है.
हमारी एकजुटता राष्ट्र की कतिपय बुनियादी और सामान्य अवधारणों के प्रति निष्ठा तथा जनसाधारण की बुद्धिमता पर भरोसे से ही संभव है. स्वतंत्रता संघर्ष का आधार यही था, जोकि एक साझा लक्ष्य के लिए विभिन्न विचारधाराओं की भागीदारी वाला एक व्यापक आंदोलन था. आज़ादी के जनांदोलन के सूत्रधार गांधी मानव की मूलभूत ‘अच्छाई’ में यकीन करते थे. तभी तो वह एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर सके जिसे कांग्रेस के बौद्धिक ‘उदारवादी’ सदस्यों ने ‘अनपढ़ जनता’ की क्षमताओं से परे करार दिया था. यदि हमें भारत को बचाने के लिए द्वितीय स्वतंत्रता संघर्ष की दरकार है, जैसा कि प्रताप भानु मेहता की दलील है, तो पहले हमें नए सिरे से यकीन करना होगा कि गांधी, नेहरू और आंबेडकर का देश अभी मरा नहीं है. किसी विचार की तरह, ये सचमुच में तभी मरेगा जब हम इसे मृत मानने लगेंगे.
(लेखक नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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Tum.musalman ho isliy tum hinduo se grina karte ho bas yahi lekh tumhri hinduo se grina ko batata hai