नई दिल्ली: नेपाल के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए 500 मिलियन डॉलर के अमेरिकी सरकारी सहायता अनुदान ने काठमांडू में तूफान खड़ा कर दिया है. इसकी वजह से सैकड़ों लोग सैकड़ों पर उतर आए हैं और प्रदर्शन किया. नेपाली कांग्रेस पार्टी के प्रधान मंत्री शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ गठबंधन को इससे बड़ा झटका लगा है.
प्रदर्शनकारियों का मानना है कि इससे देश की संप्रभुता खतरे में पड़ सकती है. पुलिस द्वारा ग्रांट का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों पर रबर की गोलियां और आंसू गैस चलाने के बाद विवादास्पद मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन – नेपाल (एमसीसी-नेपाल) समझौते को रविवार को संसद में पेश किया गया था.
2017 में अमेरिका और नेपाल द्वारा हस्ताक्षरित एमसीसी को अभी तक नेपाल की संसद द्वारा अनुमोदित नहीं किया गया है. मुख्य रूप से दो कम्युनिस्ट दलों, माओवादी सेंटर और यूनीफाइड सोशलिस्ट से कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जो कि गठबंधन सरकार का हिस्सा हैं.
हालांकि, मुख्य विपक्षी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनीफाइड मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने रविवार को संसद में इसे पेश करने में सरकार की मदद करने का फैसला किया.
कुछ सांसदों को इस बात का भय है कि अनुदान समझौते के कुछ क्लॉज़ से नेपाल के राष्ट्रीय हितों को खतरा हो सकता है. हालांकि, वाशिंगटन ने आश्वासन दिया है कि एमसीसी का उद्देश्य केवल नेपाल के विकास में सहायता करना है. अमेरिका ने पिछले छह महीनों में बार-बार शीर्ष अधिकारियों को इसके लिए नेपाल भेजा है.
पिछले हफ्ते, नेपाल में अमेरिकी राजदूत, रैंडी बेरी ने ट्विटर पर कहा कि वाशिंगटन एमसीसी के बारे में फ्री स्पीच और सार्वजनिक चर्चा का समर्थन करता है, लेकिन हिंसा कभी भी स्वीकार्य नहीं है.
नेपाली संसद के पास अनुदान समझौते को अनुमोदित करने के लिए 28 फरवरी तक का समय है. समझौते का अनुमोदन न हो पाने की दशा में नेपाल के बिजली उत्पादकों का वित्तीय नुकसान होगा, प्रधान मंत्री देउबा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि खराब होगी और अन्य विदेशी अनुदानों पर भी इसकी विपरीत प्रभाव पड़ सकता है.
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एमसीसी-नेपाल समझौते और देरी से अनुमोदन
मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन अमेरिकी सरकार की एक स्वतंत्र विदेशी सहायता देने वाली एजेंसी है जो कि कम आय वाले और गरीब देशों के साथ पांच साल का अनुदान समझौता करती है जिसे एमसीसी कॉम्पैक्ट कहा जाता है.
सितंबर 2017 में, एमसीसी ने नेपाल के साथ आधे अरब अमेरिकी डॉलर के एक समझौते पर हस्ताक्षर किए. यह किसी दक्षिण एशियाई देश को मिला अब तक का सबसे बड़ा अनुदान है.
एमसीसी-नेपाल अनुदान का उद्देश्य नेपाल में एक प्रमुख बिजली ग्रिड विकसित करना और हाईवे कनेक्टिविटी में सुधार के माध्यम से आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है.
इसका उद्देश्य 400KV (किलोवोल्ट) के दो ट्रांसमिशन लाइन परियोजनाओं – लैप्सिफेडी-रैटमेट-हेटौदा और लैप्सिफेडी-रैटमेट-दमौली – को वित्त पोषित करना है, जिससे देश को लाभ होगा. नेपाल की उच्चतम क्षमता वाली सीमा पार संचरण लाइन वर्तमान में 220KV पर चार्ज की जाती है. एक बड़े इलेक्ट्रिसिटी ग्रिड से न केवल घरेलू बाजार में बिजली को उपलब्ध कराया जा सकेगा, बल्कि इसे भारत को निर्यात करने में भी मदद मिलेगी.
जुलाई 2019 में, तत्कालीन वित्त मंत्री युबराज खातीवाड़ा, जो अपदस्थ पीएम के.पी. शर्मा ओली की सरकार का हिस्सा थे, ने इस समझौते को पारित करवाने के लिए संसद में पेश किया था.
हालांकि, अक्टूबर 2019 में, एमसीसी ने समझौते के तहत धन जारी करना बंद कर दिया क्योंकि नेपाली संसद में इसका अनुमोदन नहीं हो सका था.
पिछली के.पी. शर्मा ओली सरकार ने इसे अनुमोदित करान के लिए एक नई समय सीमा – 30 जून, 2020 – तय की. लेकिन ऐसा करने में वह विफल रही क्योंकि पार्टी के भीतर ओली विरोधी गुट – नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) – इसके खिलाफ थे.
विडंबना है कि यह मुद्दा नेपाल के वर्तमान प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के पास दोबारा लौट आया है, जिन्होंने साल 2017 में प्रधानमंत्री के रूप में अपने पिछले कार्यकाल के दौरान समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. स्थानीय मीडिया के मुताबिक वह इसे अनुमोदित कराने के लिए उत्सुक है, भले ही यह गठबंधन को विभाजित करने की कीमत पर हो सके.
ओली के हटने के बाद, देउबा, पिछली जुलाई से नेपाल के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर रहे हैं.
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अनुदान का हो रहा विरोध, ‘चीन का हाथ’
ग्रांट के मुद्दे पर लोग राजनीतिक रूप से बंटे हुए हैं, जिससे देउबा की गठबंधन सरकार में बंटवारा भी हो सकता है.
देउबा की नेपाली कांग्रेस पार्टी (एनसी) और गठबंधन की छोटी सहयोगी जनता समाजवादी पार्टी (जेएसपी) इस परियोजना का समर्थन करती है. हालांकि, प्रमुख गठबंधन सहयोगी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी सेंटर (सीपीएन-एमसी) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनीफाइड सोशलिस्ट (सीपीएन-यूएस) इसका विरोध कर रहे हैं.
मुख्य विपक्षी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनिफाइड मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (यूएमएल) इस मुद्दे पर किनारे पर है – यह पहले अमेरिकी अनुदान का विरोध कर रही थी, लेकिन रविवार को इसे संसद में पेश करने में सरकार की मदद करने का फैसला किया.
नेपाली टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, माओइस्ट सेंटर के पुष्प कमल दहल ने इस महीने की शुरुआत में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) के अंतरराष्ट्रीय विभाग के शीर्ष अधिकारी सोंग ताओ के साथ ‘गुप-चुप’ तरीके से वर्चुअल मीटिंग की.
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पिछले साल नवंबर में, चीनी अधिकारियों ने काठमांडू में वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेताओं से बात की थी ताकि उन्हें अमेरिकी अनुदान को हरी झंडी देने से सक्रिय रूप से रोका जा सके.
काठमांडू स्कूल ऑफ लॉ के हरि पी. चंद के एक शोध पत्र के अनुसार, बीजिंग को डर है कि अमेरिकी अनुदान उसके बेल्ट रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को कमजोर कर सकता है, जिसका नेपाल एक हिस्सा है.
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क्या अनुदान में संशोधन किया जा सकता है?
अगस्त 2020 में, छह सदस्यीय टास्क फोर्स ने सिफारिश की कि सरकार ‘राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए’ आवश्यक संशोधनों और संशोधनों के साथ अनुदान को अनुमोदित करे.
यह एमसीसी-ग्रांट विरोधी प्रदर्शनकारियों की भी मांग है, जिनमें से कुछ को स्थानीय मीडिया ने ‘माओवादी काडर’ कहा है, जो एक बार फिर सड़कों पर उतरे हैं.
हालांकि, काठमांडू में अमेरिकी दूतावास ने अनुदान में संशोधन या समायोजन की संभावना को खारिज कर दिया है.
एक ईमेल की प्रतिक्रिया में काठमांडू पोस्ट को बताया, ‘अमेरिकी दूतावास जहां आवश्यक हो, स्पष्टीकरण प्रदान करने के लिए तैयार है. अगस्त 2017 में, नेपाल और एमसीसी ने कॉम्पैक्ट पर बातचीत की. कॉम्पैक्ट वार्ता में नेपाल और एमसीसी के प्रतिनिधियों द्वारा प्रत्येक प्रावधान पर सावधानीपूर्वक चर्चा किया गया.’
यदि इसका अनुमोदन हीं हो पाता है तो तो नेपाल में बिजली उत्पादकों को सालाना 142 बिलियन रुपये का नुकसान होगा.
इससे भी अधिक, देउबा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी विश्वसनीयता खो सकते हैं क्योंकि उन्होंने एमसीसी उपाध्यक्ष फातमा सुमार, दक्षिण और मध्य एशियाई मामलों के ब्यूरो के अमेरिकी सहायक राज्य सचिव डोनाल्ड लू और एमसीसी के उप मुख्य कार्यकारी अधिकारी एलेक्सिया लाटोर्ट्यू से अनुदान को अनुमोदित कराने का उन्होंने वादा किया है.
विशेषज्ञों ने यह भी सुझाव दिया है कि यदि एमसीसी-नेपाल समझौते का अनुमोदन नहीं हो पाता है तो विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक जैसी बहुपक्षीय एजेंसियों से दी जाने वाली सहायता भी सवालों के घेरे में आ सकती है.
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