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Thursday, 30 October, 2025
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‘ऑपरेशन सिंदूर’ का असर: तुर्की के नेशनल डे समारोह में भारत ने नहीं भेजा कोई अधिकारी

ऑपरेशन सिंदूर के बाद पाकिस्तान के समर्थन में खड़े होने और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की आलोचना करने से भारत-तुर्की के रिश्तों में ठंडक आई है. वहीं, भारत ने साइप्रस के साथ अपने रिश्ते मज़बूत किए हैं.

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नई दिल्ली: भारत सरकार के किसी भी अधिकारी ने बुधवार को नई दिल्ली स्थित तुर्की दूतावास में आयोजित तुर्किश नेशनल डे समारोह में हिस्सा नहीं लिया. इसे भारत की ओर से अंकारा को एक सख्त संदेश माना जा रहा है, खासकर पाकिस्तान के समर्थन में उसके रवैये को देखते हुए — खास तौर पर ऑपरेशन सिंदूर के दौरान.

दरअसल, मई में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए 87 घंटे लंबे संघर्ष के दौरान पाकिस्तान ने तुर्की के ड्रोन का इस्तेमाल किया था.

भारतीय अधिकारियों का समारोह में न जाना यह दिखाता है कि नई दिल्ली, तुर्की के पाकिस्तान समर्थक रुख और संयुक्त राष्ट्र महासभा जैसे मंचों पर जम्मू-कश्मीर पर भारत की आलोचना को लेकर कितनी नाराज़ है.

सूत्रों के मुताबिक, अधिकारियों को औपचारिक रूप से इस कार्यक्रम से दूर रहने का निर्देश दिया गया था. आमतौर पर ऐसे समारोहों में केंद्रीय मंत्री और विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी हिस्सा लेते हैं. ऐसे आयोजनों में भागीदारी का स्तर दोनों देशों के आपसी रिश्तों का संकेत भी देता है.

पहलगाम हमले के बाद जब भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान और पीओके में आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई की, तब तुर्की ने पाकिस्तान का खुला समर्थन किया था. अंकारा ने भारतीय कार्रवाई को “बिना उकसावे की आक्रामकता” बताया और कहा कि भारत “निर्दोष नागरिकों की हत्या” कर रहा है.

22 अप्रैल को जम्मू-कश्मीर के पाहलगाम में हुए आतंकी हमले में 26 लोगों की मौत हुई थी. हमले के कुछ ही दिनों बाद एक तुर्की नौसैनिक जहाज कराची बंदरगाह पहुंचा. उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ भी तुर्की के दौरे पर थे.

हमले के कुछ घंटे बाद ही शरीफ ने राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन से मुलाकात की और जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान के प्रति तुर्की के लगातार समर्थन के लिए उनका धन्यवाद किया.

नई दिल्ली और अंकारा के रिश्ते जहां ठंडे पड़े हैं, वहीं भारत ने यूरोपीय संघ के सदस्य देश साइप्रस के साथ अपने संबंध मज़बूत किए हैं. तुर्की और साइप्रस के बीच 1974 के तुर्की आक्रमण से चला आ रहा विवाद आज भी जारी है.

जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साइप्रस की राजधानी निकोसिया गए थे — पहलगाम हमले के बाद उनका यह पहला विदेश दौरा था. वहां राष्ट्रपति निकोस क्रिस्टोडुलाइड्स ने उन्हें साइप्रस-तुर्की के बीच की युद्धविराम रेखा दिखाई और निकोसिया के पास के वे पहाड़ भी दिखाए जो इस वक्त तुर्की के कब्ज़े में हैं.

इस समय साइप्रस के विदेश मंत्री कॉन्सटैंटिनोस कॉम्बोस तीन दिन की भारत यात्रा पर हैं. गुरुवार सुबह उन्होंने विदेश मंत्री एस. जयशंकर से द्विपक्षीय वार्ता की और दिन में बाद में इंडियन काउंसिल ऑफ वर्ल्ड अफेयर्स (ICWA) में एक लेक्चर दिया.

जयशंकर ने मुलाकात के दौरान साइप्रस की “संप्रभुता, एकता और क्षेत्रीय अखंडता” के प्रति भारत के “अटूट समर्थन” को दोहराया.

उन्होंने कहा, “भारत, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संबंधित प्रस्तावों के अनुसार, साइप्रस गणराज्य की संप्रभुता, एकता और क्षेत्रीय अखंडता तथा राजनीतिक समानता पर आधारित द्वि-क्षेत्रीय, द्वि-सामुदायिक संघ के लिए अपने अटूट समर्थन को दोहराता है.”

भारत लंबे समय से साइप्रस के मुद्दों पर उसके साथ खड़ा रहा है. 1974 में तुर्की ने साइप्रस में सैन्य हस्तक्षेप किया था, जब ग्रीस की सैन्य जुंटा के समर्थन से वहां एक तख्तापलट हुआ था.

तुर्की के इस आक्रमण के बाद उत्तरी साइप्रस में एक समानांतर प्रशासन बना, जो आज तक केवल अंकारा द्वारा मान्यता प्राप्त है, जबकि दुनिया के बाकी देश इस क्षेत्र को साइप्रस का ही हिस्सा मानते हैं.

1964 से संयुक्त राष्ट्र की शांति सेना साइप्रस में तैनात है. भारत ने भी इस मिशन में योगदान दिया है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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