काठमांडू: बीते हफ्ते जब नेपाल गहरे राजनीतिक संकट में डूब गया, तब एक संस्था मज़बूती से खड़ी रही—नेपाल आर्मी. अब यह सिर्फ एक सम्मानित लड़ाकू बल नहीं रह गई है, बल्कि दशकों के सबसे बड़े राजनीतिक संकट में देश को दिशा देने वाली एक अहम शक्ति बन गई है.
भ्रष्टाचार और आर्थिक संकट को लेकर युवाओं के नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शनों से शुरू हुआ घटनाक्रम 10 सितंबर को महज़ 48 घंटों में पूरे राजनीतिक तंत्र को ढहा गया.
प्रधानमंत्री देश छोड़कर चले गए, कई मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया और राष्ट्रपति पब्लिक अपीयरेंस से गायब हो गए. इसके तुरंत बाद प्रदर्शनकारियों ने संसद, सुप्रीम कोर्ट और पांच पूर्व प्रधानमंत्रियों के घरों को आग के हवाले कर दिया. देश लगभग अराजकता के कगार पर पहुंच गया था, नेतृत्व कहीं नज़र नहीं आ रहा था.
तभी देर रात नेपाल आर्मी प्रमुख जनरल अशोक राज सिग्देल का एक छोटा वीडियो संदेश सामने आया, जिसमें उन्होंने शांति बनाए रखने की अपील की.
कुछ ही घंटों में सेना ने काठमांडू की सड़कों पर नियंत्रण कर लिया और हिंसा धीरे-धीरे थमने लगी.
राजनीतिक ढांचा टूट चुका था और हिमालयी देश में गुस्सा और अव्यवस्था हावी थी. ऐसे हालात में वरिष्ठ सैन्य अधिकारी चुपचाप जेन-ज़ी प्रदर्शनकारियों के अलग-अलग धड़ों से मिलने लगे, ताकि आगे का रास्ता तय किया जा सके.
बहुत जल्द ही, राष्ट्रपति नहीं बल्कि नेपाल आर्मी ही मुख्य मध्यस्थ बनकर उभरी. उसने जेन-ज़ी प्रदर्शनकारियों के नेताओं और बिखरी हुई राजनीतिक पार्टियों के बीच उच्चस्तरीय बातचीत को आगे बढ़ाने में मार्गदर्शन किया.
संसद भंग होने और नागरिक सरकार अस्त-व्यस्त होने के बीच, आर्मी मुख्यालय ही असल में वार्ता का केंद्र बन गया, जहां लंबी और तनावपूर्ण बैठकों का सिलसिला चला.
बातचीत के दौरान कई बार तनाव बढ़ा, लेकिन सेना का दबदबा बना रहा. इन्हीं प्रयासों से सेना ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की को सर्वसम्मति से उभारने में मदद की, जो बाद में अंतरिम प्रधानमंत्री की प्रमुख उम्मीदवार बनकर सामने आईं.
जेन-ज़ी नेतृत्व वाला आंदोलन, जो आगे चलकर एक राजनीतिक शक्ति में बदल गया, अपनी शर्तों पर अडिग रहा—ओली सरकार का पतन, सभी प्रांतीय मंत्रियों का इस्तीफा, प्रदर्शनकारियों पर हुई गोलीबारी के दोषियों पर सख्त कार्रवाई और एक युवाओं के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार का गठन, जो पारदर्शिता और जवाबदेही पर केंद्रित हो.
नेपाल आर्मी ने राष्ट्रपति से सीधे संवाद किया ताकि संवैधानिक नियमों का पालन सुनिश्चित हो सके, भले ही उस समय कोई चुनी हुई सरकार मौजूद न थी. जनरल सिग्देल ने यह संतुलन साधा—तनाव कम करना और एक संक्रमणकालीन राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत कराना.
सेना की भूमिका की सराहना प्रदर्शनकारियों ने भी की. ‘हामी नेपाल’ नामक एक्टिविस्ट समूह, जो जेन-ज़ी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करता है, ने शपथग्रहण समारोह के बाद बयान जारी किया: “सभी नेपालियों की ओर से हम नेपाल आर्मी और कमांडर अशोक राज सिग्देल का उनके अथक सहयोग, समर्पण और देशभक्ति के लिए हार्दिक धन्यवाद करते हैं. सेना संयम और साहस की प्रतीक बन खड़ी हुई और देश को उसके सबसे कठिन समय में बचाया. हम सदा ऋणी रहेंगे.”
2016 में रिटायर हुए नेपाल आर्मी के मेजर जनरल बिनोज बस्न्यात के अनुसार, जब बाकी संस्थाएं राजनीति और भ्रष्टाचार में डूबी हुई थीं, तब सेना सबसे भरोसेमंद और सम्मानित संस्था बनकर खड़ी रहीय
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “राजनीति बिखर चुकी थी, वैधता कमज़ोर हो रही थी और जनता के गुस्से तले कानून-व्यवस्था ढह रही थी. ऐसे में केवल सेना के पास संगठनात्मक अनुशासन और नैतिक अधिकार बचा था. उसकी भूमिका दोहरी थी: पहली, शांति बनाए रखने की ताकि प्रदर्शन हिंसक अराजकता में न बदलें और दूसरी, संवैधानिक संरक्षक की, ताकि खतरनाक सत्ता रिक्ति से बचा जा सके.”
एशिया फाउंडेशन के 2022 के सर्वे के मुताबिक, 91 फीसदी नेपाली सेना पर भरोसा करते हैं—यह असाधारण स्तर का जन-विश्वास है, खासकर तब जब राजनीतिक दलों और कानून लागू करने वाली संस्थाओं पर लोगों का भरोसा तेज़ी से गिर रहा है.
जनरल बस्न्यात के मुताबिक, इस नाज़ुक मोड़ पर सेना का दखल बिल्कुल ज़रूरी था.
सेना की मौजूदगी ने आम लोगों को भरोसा दिया कि कानून पूरी तरह से अंधा नहीं है. साथ ही इसने राजनीतिक नेताओं को टकराव की बजाय बातचीत का मौका दिया. सेना की मौजूदगी ने न सिर्फ नेपाल की सड़कों पर स्थिरता का संदेश दिया, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह भरोसा जताया कि हालात पूरी तरह से नहीं बिगड़े हैं.
उन्होंने कहा, “असल में, सेना सत्ता हथियाने के लिए नहीं आई, बल्कि तब तक संवैधानिक ढांचे को बचाए रखने के लिए आई थी जब तक चुनी हुई नेतृत्व फिर से नियंत्रण संभाल न ले. अगर यह स्थिरता न होती, तो जेन-ज़ी आंदोलन—जो पहले ही 77 ज़िलों में फैल चुका था और राज्य की क्षमता पर भारी पड़ रहा था—एक बड़े संवैधानिक संकट में बदल सकता था.”
पूर्व ब्रिगेडियर जनरल सुरेश बनिया, जो एनडीए और एनडीसी के पूर्व छात्र हैं और नेपाल के गृहयुद्ध के दौरान सेना की कमान संभाल चुके हैं, वे भी इससे सहमत दिखे.
उन्होंने कहा, “इतिहास में नेपाल आर्मी हमेशा संवैधानिक तटस्थता के रुख पर रही है, यहां तक कि बड़े संकटों के दौरान भी उसने राजनीति में सीधे हस्तक्षेप से परहेज़ किया, लेकिन इस बार उसका “निष्क्रिय संरक्षक” से “सक्रिय शांतिदूत” की ओर बदलाव एक बड़ा मोड़ है. सुरक्षा, मध्यस्थता और राज्य संचालन—इन तीन भूमिकाओं के साथ सेना ने अपनी पारंपरिक सीमाओं को नए सिरे से परिभाषित किया है.”
बनिया ने कहा, “प्रधानमंत्री ओली के इस्तीफे और सत्तारूढ़ गठबंधन के टूटने के बाद नेपाल राजनीतिक शून्य का सामना कर रहा है. ऐसे में सेना स्थिरता की ताकत बनकर उभरी है, लेकिन सत्ता चलाने वाली नहीं. उसकी भूमिका यहां नेतृत्व की नहीं, बल्कि यह सुनिश्चित करने की है कि संक्रमण शांतिपूर्ण, संवैधानिक और समावेशी हो.”
बिना मार्शल लॉ लगाए या नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित किए, सेना ने शांति बहाल करने के कई काम चुपचाप किए—भागे हुए कैदियों को पकड़ना, लूटे गए हथियार बरामद करना, त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे समेत ज़रूरी ढांचों को फिर से खोलना और राजधानी में कुछ ही दिनों में कानून-व्यवस्था बहाल करना.
बनिया ने कहा, “हमने गोली नहीं चलाई. हमने सत्ता नहीं ली, लेकिन हमने देश को फिर से खड़ा होने में मदद की.”
हालांकि, सवाल उठ रहे हैं कि सेना पहले क्यों नहीं उतरी?
उन्होंने कहा, “हम कानूनी आदेश के बिना बाहर नहीं निकल सकते. यहां तक कि जब हमारे ही बैरक पर हमला हुआ था, तब भी हमने आदेश का इंतज़ार किया. यही कानून है.”
नेपाल का संविधान सेना की स्वतंत्र तैनाती पर रोक लगाता है. स्थानीय प्रशासन कानून के तहत सेना तभी कार्रवाई कर सकती है जब पुलिस और अर्धसैनिक बल पूरी तरह से असफल हो जाएं और औपचारिक मंज़ूरी राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद और राष्ट्रपति से मिले.
इस हफ्ते की अशांति में सेना के संयम को और भी अहम बनाता है उसका ऐतिहासिक किरदार: कभी यह शाही सेना थी, जो सिर्फ राजा को जवाबदेह होती थी—यहां तक कि 1990 में बहुदलीय लोकतंत्र आने के बाद भी. 1996 से 2006 के बीच चले गृहयुद्ध में भी नेपाली सैनिक जनता नहीं, बल्कि काठमांडू के ताज के वफादार रहे.
उन्होंने कहा, “कोई आदेश नहीं था, कोई नेतृत्व नहीं था. प्रधानमंत्री इस्तीफा दे चुके थे. राष्ट्रपति गायब थे. आदेश की शृंखला टूटी हुई थी. हम अकेले थे, लेकिन कानून से बंधे हुए थे.”
ओली सरकार के पतन और पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की की अगुवाई वाली अंतरिम सरकार बनने के साथ ही सुधार की उम्मीदें फिर से जगने लगीं.
बनिया ने कहा, “प्रधानमंत्री ईमानदार इंसान हैं. उनकी छवि साफ-सुथरी है. मंत्रिमंडल अधिक तटस्थ और सक्षम है, लेकिन छह महीने में चुनाव? यह व्यावहारिक नहीं है. शायद एक साल में, अगर वे दिन-रात काम करें.”
फिर भी, उन्होंने इसे एक अनोखा मौका माना. “यह टीम लंबे समय बाद सबसे अच्छी है, लेकिन जनता देख रही है. उन्हें नतीजे चाहिए.”
उस क्षेत्र में जहां सेनाएं अक्सर सत्ता पर कब्ज़ा कर लेती हैं—पाकिस्तान, म्यांमार, यहां तक कि बांग्लादेश में भी—नेपाल आर्मी ने हमेशा पेशेवर संयम की पहचान बनाई रखी है. दोनों पूर्व अधिकारियों ने “डीप स्टेट” जैसी तुलना को नकार दिया.
बनिया ने कहा, “नेपाल, पाकिस्तान नहीं है. हम नागरिक नेतृत्व के अधीन हैं. हम राजनीति में दखल नहीं देते. हम राष्ट्र की ‘हार्ड पावर’ हैं, लेकिन ‘सॉफ्ट पावर’ को भी समझते हैं. यह सोचने वाली सेना है.”
उनके मुताबिक, यह संयम निष्क्रियता नहीं बल्कि रणनीति है.
उन्होंने कहा, “एक सैनिक के पास 100 गोलियां हो सकती हैं और फिर भी वह ट्रिगर दबाने से रुके. अगर प्रदर्शनकारी निहत्थे हैं, लड़ाकू नहीं हैं, तो हम गोली नहीं चलाते. यह कायरता नहीं, अनुशासन है.”
सेना, उन्होंने ज़ोर देकर कहा, कोई अंधाधुंध हथियार नहीं बल्कि अंतिम विकल्प की स्थिर करने वाली ताकत है.
बनिया ने कहा, “हम चौकसी करने वाले हैं. हम यहां घर को जलने से बचाने के लिए हैं, उसे अपने कब्ज़े में लेने के लिए नहीं.”
अब आगे क्या?
बस्न्यात के मुताबिक, प्रदर्शन शुरू होने के पहले दिन से ही जनरल अशोक राज सिग्देल के सामने तीन बड़ी चुनौतियां थीं. पहली—कानून और संवैधानिक अधिकार के ढांचे के भीतर स्थिरता बनाए रखना. दूसरी—राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल की मदद करना ताकि आंदोलनकारी समूहों के साथ बातचीत का रास्ता खुले और संकट को राजनीतिक संवाद की ओर मोड़ा जा सके. तीसरी और सबसे अहम—संविधान की रक्षा करना, उस समय जब संस्थाएं भारी दबाव में थीं.
ऐसे हालात में, उनका कहना है कि आर्मी चीफ की भूमिका सिर्फ संचालनात्मक नहीं रही, बल्कि प्रतीकात्मक भी हो गई—लोगों को यह भरोसा देना कि राजनीतिक लकवे के बीच भी देश ढहेगा नहीं और नागरिकों व अंतरराष्ट्रीय समुदाय दोनों को यह संदेश देना कि सेना संवैधानिकता और संयम के प्रति प्रतिबद्ध है.
तैनाती में हुई देरी की आलोचनाओं के बीच सेना प्रमुख के भाषण के दौरान उनके पीछे लगे नेपाल आर्मी के संस्थापक राजा पृथ्वीनारायण शाह के चित्र पर भी बहुत चर्चा हुई, लेकिन दोनों अधिकारियों ने साफ किया कि यह कोई नई या असामान्य बात नहीं है—यह हर आर्मी दफ्तर में मौजूद होता है और एक पुरानी संस्थागत परंपरा का हिस्सा है.
बस्न्यात ने कहा कि इस चित्र को लेकर फैल रही अटकलें ज़्यादातर साज़िशी सिद्धांतों और राजनीतिक अफवाहों पर आधारित हैं, जिनमें राजतंत्र की वापसी की संभावना जताई जाती है. असलियत यह है कि सेना का रुख पूरी तरह संवैधानिक सिद्धांतों पर टिका है, बीते शासन तंत्र को वापस लाने की कोई इच्छा इसमें नहीं है.
दोनों अधिकारियों ने विद्रोह को लेकर विदेशी हस्तक्षेप की बात को सिरे से खारिज किया, भले ही कुछ राजनीतिक हलकों में यह चर्चा चल रही हो.
बनिया ने साफ किया, “यहां कोई अमेरिकी हाथ नहीं है. न चीनी साज़िश है, न भारतीय दखल. यह सिर्फ और सिर्फ युवाओं का दबा हुआ गुस्सा है. उनका भविष्य उनसे छीन लिया गया है.”
उनके मुताबिक, असली मुद्दा केवल सेंसरशिप या बेरोज़गारी नहीं था, बल्कि एक गहरी नैतिक गिरावट थी.
बनिया ने सवाल किया, “जब जनता देखती है कि मंत्री पैसे दबा रहे हैं, जब बच्चे पूछते हैं कि उनकी स्कूलों में बेंच क्यों नहीं हैं—तो कोई चुप कैसे रह सकता है?”
उन्होंने नेपाल के कभी मज़बूत रहे मध्यमवर्ग के धीरे-धीरे खोखला होने का भी ज़िक्र किया, “हम पहले 80% मध्यमवर्ग थे. अब लोग या तो बहुत अमीर हैं या बहुत गरीब. लोकतंत्र हमें सशक्त बनाने के लिए आया था, न कि हमारे ही हाथों लूटे जाने के लिए.”
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